न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ॥३१॥
हे कृष्ण ! इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न, मैं उससे किसी प्रकार की विजय, राज्य या सुख की इच्छा रखता हूँ।
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"इस भीषण युद्ध को आवश्यक
समय और धर्म दोनों ने कहा है।
पर स्वजनों को शत्रु पक्ष में देख
अर्जुन धर्म-अधर्म सब भूल रहा है।।
युद्ध में उसे अच्छाई नही दिख रही
बेकार लग रहा है विजय का सुख।
जब मन पर मोह छा जाता है तब
हो जाता है मानव कर्त्तव्य विमुख।।"
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ॥३१॥
हे कृष्ण ! इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न, मैं उससे किसी प्रकार की विजय, राज्य या सुख की इच्छा रखता हूँ।
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"इस भीषण युद्ध को आवश्यक
समय और धर्म दोनों ने कहा है।
पर स्वजनों को शत्रु पक्ष में देख
अर्जुन धर्म-अधर्म सब भूल रहा है।।
युद्ध में उसे अच्छाई नही दिख रही
बेकार लग रहा है विजय का सुख।
जब मन पर मोह छा जाता है तब
हो जाता है मानव कर्त्तव्य विमुख।।"