Monday, October 31, 2016

अध्याय-3, श्लोक-43

एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ ॥ ४३ ॥
इसप्रकार हे महाबाहु अर्जुन! अपने आपको भौतिक इंद्रियों, मन तथा बुद्धि से परे जान कर और मन को सावधान आध्यात्मिक बुद्धि (कृष्णभावनामृत) से स्थिर करके  आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम रूपी दुर्जेय शत्रु को जीतो।
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इसप्रकार हे महाबाहु अर्जुन! तुम 
इंद्रियाँ,मन और बुद्धि से ऊपर हो।
इन सबके स्वामी आत्मा हो तुम 
न कि इनके नियंत्रण के भीतर हो।।

अपनी बुद्धि द्वारा मन को स्थिर कर 
चंचल इंद्रियों को तुम वश में करो।
अपने संयम के द्वारा तुम इस दुर्जेय 
महापापी शत्रु काम को परास्त करो।।

******कर्मयोग नाम का तीसरा अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-3, श्लोक-42

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥ ४२ ॥
कर्मेंद्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इंद्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा) बुद्धि से भी बढ़कर है।
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इंद्रियाँ हैं  श्रेष्ठ जड़ पदार्थ से 
हे अर्जुन! यह तथ्य लो जान।
इंद्रियों से भी श्रेष्ठ मन तुम्हारा 
मन से ऊपर बुद्धि का स्थान।।

इस बुद्धि से भी जो है श्रेष्ठ वह 
तुम हो, शुद्ध स्वरूप जीवात्मा।
तुम सर्वश्रेष्ठ हो सबों में क्योंकि 
तुम्हारे अंशी है स्वयं  परमात्मा।।

अध्याय-3, श्लोक-41

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ॥ ४१ ॥
इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारम्भ में ही इंद्रियों को वश में करके इस पाप के के महान प्रतीक (काम) का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार के इस विनाशकर्त्ता का वध करो।
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हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन तुम 
सर्वप्रथम इंद्रियों को वश में करो।
इंद्रिया वश में हो जाए तब फिर 
पाप के प्रतीक काम का दमन करो।।

यह काम ही है जो ज्ञान को ढकता 
आत्म-साक्षात्कार में बाधक बनता।
इन पर भी विजय वो पा जाता जो 
बलपूर्वक इन्हें समाप्त कर पाता।।

अध्याय-3, श्लोक-40

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥ ४० ॥
इंद्रियाँ, मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान हैं। इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है।
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जीव की इंद्रियाँ, मन और बुद्धि को 
कामनाओं ने अपना घर बनाया है।
इनके भीतर बैठकर ही उसने  फिर 
जीव को इस जग में भटकाया है।।

पहले जीव के वास्तविक ज्ञान को
कामनाएँ आच्छादित कर देती हैं।
ज्ञान के आच्छादित होने के बाद 
जीव को सदा मोहग्रस्त  रखती हैं।।

अध्याय-3, श्लोक-39

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥ ३९ ॥
इसतरह ज्ञानमय जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है जो कभी भी तुष्ट नही होता और अग्नि के समान जलता रहता है।
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हे कुंती पुत्र! स्वभाव से तो जीव का 
शुद्ध, चेतन व ज्ञान से भरा स्वरूप है।
पर  उसकी शुद्ध चेतना पर अक्सर 
चढ़ जाता काम का विकृत रूप है।।

जीव का यह काम रूपी नित्य शत्रु 
तो एक प्रज्ज्वलित अग्नि होता है।
कितनी भी सामग्रियाँ डालो उसमें 
पर वह कभी भी तुष्ट नही होता है।।

अध्याय-3, श्लोक-38

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥ ३८ ॥
जिस प्रकार अग्नि धुएँ से, दर्पण धूल से अथवा भ्रूण गर्भाशय से आवृत्त रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस काम की विभिन्न मात्राओं से आवृत्त रहता है।
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जैसे अग्नि हमें दिखायी  न देती 
जब धुएँ का बादल छा जाता।
परिबिम्ब दर्पण में दिखता नही 
जब धूल से दर्पण भर जाता।

गर्भ जैसे गर्भाशय आवृत्त करती    
वैसा ही काम का आवरण होता।
कम-ज़्यादा हर जीव के ज्ञान को 
इस काम का आवरण ढक देता ।।

अध्याय-3, श्लोक-37

श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥ ३७ ॥
श्रीभगवान ने कहा-हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण  करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है।
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भगवान ने कहा कि हे अर्जुन सुनो 
काम ही है समस्त पाप का कारण।
रजोगुण से उत्पन्न होनेवाला काम  
बाद में करता क्रोध का रूप धारण।।

ये काम और क्रोध बड़े ही पापी हैं 
ये दोनों कभी भी तृप्त नही हो पाते।
इनसे बड़ा कोई शत्रु नही जीव का 
ये उनका समस्त  भक्षण कर जाते।।

अध्याय-3, श्लोक-36

अर्जुन उवाचः
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥ ३६ ॥
अर्जुन ने कहा-हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो।
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अर्जुन ने कहा वृष्णिवंशी प्रभु से 
कि क्यों ये पाप होते हैं हमसे?
न चाहते हुए भी मन ये हमारा 
पाप हेतु प्रेरित होता है किससे?

ऐसा लगता है जैसे कि कोई हमें 
बल पूर्वक अपनी ओर खींच रहा।
पाप में प्रवृत्त होते जा रहे ज़बरन 
किए जा रहे किसी और का कहा।।

अध्याय-3, श्लोक-35

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ ३५ ॥
अपने नियतकर्मों को दोषपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना भी अन्य के कर्मों को भलीभाँति करने से श्रेयस्कर है। स्वीय कर्मों को करते हुए मरना पराये कर्मों में प्रवृत्त होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है, क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का अनुसरण भयावह होता है।
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दूसरों के कर्त्तव्यों की नक़ल से बेहतर
कि करें हम अपने कर्त्तव्य का पालन।
दूसरों के कार्य में निपुणता से बेहतर
अपने कार्य का त्रुटिपूर्ण भी संचालन।।

दूसरों के पथ का अनुसरण करने से
संतुष्टि नही होती उल्टा भय होता है।
श्रेष्ठ कहलाता वह व्यक्ति जो अपने
कर्त्तव्य का पालन करते हुए मरता है।।

Sunday, October 30, 2016

अध्याय-3, श्लोक-34

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥ ३४ ॥
प्रत्येक इन्द्रिय तथा उसके विषय से संबंधित राग-द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम होते हैं। मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म-साक्षात्कार के मार्ग के अवरोधक हैं।
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इंद्रियों और उनके  विषयों के प्रति 
जो आसक्ति और विरक्ति होती है।
वे सारी आसक्तियाँ व विरक्तियाँ 
शास्त्रीय नियमों के अधीन होती हैं।।

भोग हमारे नियमित व नियंत्रित हो 
वह हमें वश में कर नही नचा पाए।
वरना भोग की आधीनता व्यक्ति के 
आत्म-ज्ञान पथ में बाधक बन जाए।।

Saturday, October 29, 2016

अध्याय-3, श्लोक-33

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ ३३ ॥
ज्ञानी पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है, क्योंकि सभी प्राणी तीनों गुणों से प्राप्त अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करते हैं। भला दमन से क्या हो सकता है?
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जितने भी प्राणी है इस जगत में
सब प्रकृति के गुणों के अधीन हैं।
सबको ही प्रभावित करते हैं ये
जो सत् , रज, तम गुण तीन हैं।।

ज्ञानी भी जिस गुण को अपनाते
उसी गुण के अनुसार कार्य करते।
जीवन में जब तक भक्तिभाव न हो
इसका निराकरण नही कर सकते।।

Thursday, October 27, 2016

अध्याय-3, श्लोक-32

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌ ।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥ ३२ ॥
किंतु जो ईर्ष्यावश इन उपदेशों की उपेक्षा करते हैं और इनका पालन नही करते उन्हें समस्त ज्ञान से रहित, दिग्भ्रमित तथा सिद्धि के प्रयासों में नष्ट-भ्रष्ट समझना चाहिए।
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किंतु कुछ लोगों को ईर्ष्यावश 
ये उपदेश मन को नही भाते हैं।
इन आदेशों की करके उपेक्षा वे
अपने अलग ही नियम बनाते हैं।।

ऐसे लोग होते हैं सदा ही भ्रमित 
उन्हें समस्त ज्ञान से रहित जानें।
सिद्धि के लिए जो करते प्रयास 
उन प्रयासों में भी नष्ट-भ्रष्ट माने।।

अध्याय-3, श्लोक-31

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः ॥ ३१ ॥
जो व्यक्ति मेरे उपदेशों के अनुसार अपना कर्त्तव्य करते रहते हैं और ईर्ष्यारहित होकर इस उपदेश का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं, वे सकाम कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
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जो भी मनुष्य मेरे इन आदेशों को 
जीवन में अपने श्रद्धा से अपनाते हैं।
मेरे उपदेशों को ही आधार बना कर 
अपने सारे नियत कर्म करते जाते हैं।।

ऐसे लोग हर दायित्व निभाते है पर 
आत्म ज्ञान से होते हैं सदा ही युक्त।
जग में रहकर नियत कर्म करके भी 
ये हर कर्म बंधन से रहते  हैं मुक्त।।

अध्याय-3, श्लोक-30

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥ ३० ॥
अतः हे अर्जुन! अपने सारे कार्यों को मुझमें समर्पित करके मेरे पूर्ण ज्ञान से युक्त होकर, लाभ की आकांक्षा से रहित, स्वामित्व के किसी दावे के बिना तथा आलस्य से रहित होकर युद्ध करो।
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हे अर्जुन! जो भी कर्त्तव्य कर्म हैं तेरे 
सबको ही मुझमें समर्पित कर दो।
मन को जग के भटकन से निकाल 
उसे पूर्ण आत्म-ज्ञान से तुम भर दो।।

लाभ की कोई इच्छा न रखो मन में 
न मोह को हृदय में अपने बसने दो।
अपने संताप का पूर्ण त्याग कर अब 
दृढ़ता से आगे बढ़ो और युद्ध करो।।

अध्याय-3, श्लोक-29

प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ॥ २९ ॥
माया के गुणों से मोहग्रस्त होने पर अज्ञानी पुरुष पूर्णतया भौतिक कार्यों में संलग्न रहकर उसमें आसक्त हो जाते हैं। यद्यपि उनके ये कार्य उनमें ज्ञान के अभाव के कारण अधम होते हैं, किंतु ज्ञानी को चाहिए कि उन्हें विचलित न करें।
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माया का प्रभाव ऐसा है यहाँ कि 
उसमें पड़कर सब मोहित हो जाते।
जग में इतनी आसक्ति बढ़ जाती 
कि कर्मों में ही लगकर रह जाते।।

माया का यह बंधन यद्यपि करता  
सकाम कर्मियों को सदा व्यथित।
पर भी कहा गया है ज्ञानियों से कि 
मूर्खों को न करें ज्ञान से विचलित।।

Wednesday, October 26, 2016

अध्याय-3, श्लोक-28

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥ २८ ॥
हे महाबाहो! भक्तिभावमय कर्म तथा सकाम कर्म के भेद को भलीभाँति जानते हुए जो परम सत्य को जानने वाला है, वह कभी भी अपने आपको इंद्रियों में तथा इन्द्रियतृप्ति में नही लगाता।
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परंतु हे महाबाहु! जिस व्यक्ति ने भी 
प्राप्त कर लिया परम तत्त्व का ज्ञान।
जिसे पता निष्काम कर्म के विषय में 
जिसे सकाम के बंधन का भी है भान।।

ऐसा मनुष्य तो सदा ही विषयों से 
स्वयं व इंद्रियों को दूर ही है रखता।
संयमित रहता है जीवन में अपने वह 
इन्द्रियतृप्ति में कभी भी नही फँसता।।

अध्याय-3, श्लोक-27

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ २७ ॥
जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं।
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अहंकार का प्रभाव मनुष्य को 
इस तरह से मोहित कर देता है।
वह स्वयं को समस्त कार्यों को  
करनेवाला कर्ता मानने लगता है।।

वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य 
प्रकृति के गुणों को बस अपनाते है।
प्रकृति के उन्ही गुणों के द्वारा ही 
समस्त कार्य संपन्न किया जाते हैं।।

अध्याय-3, श्लोक-26

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌ ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ ॥ २६ ॥
विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि वह सकाम कर्मों में आसक्त अज्ञानी पुरुषों को कर्म करने से रोके नही ताकि उनके मन विचलित न हों। अपितु भक्तिभाव से कर्म करते हुए वह उन्हें सभी प्रकार के कार्यों में लगाये।
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विद्वान व्यक्तियों का दायित्व है 
कि मोहित मनुष्यों को समझाए।
अपने सही उदाहरण से उनको
निष्काम कर्म के पथ पर लाए।।

उन्हें कर्म करने से रोके नही वरना 
उनकी बुद्धि भ्रमित हो जाएगी।
उनका कर्म-फल से जो मोह है 
वह आसक्ति धीरे-धीरे जाएगी।।

अध्याय-3, श्लोक-25

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌ ॥ २५ ॥
जिस प्रकार अज्ञानी जन फल की आसक्ति से काम करते हैं, उसी तरह विद्वान जनों को चाहिए कि वे लोगों को उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त रहकर कार्य करें।
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हे भरतवंशी! बड़े ही दृढ़ लगन से 
अज्ञानी मनुष्य अपने कर्म करते हैं।
कर्म फल से बड़ा मोह होता उन्हें 
हर पल फल की चिंता में रहते हैं।।

उसी लगन से ज्ञानी मनुष्यों को भी 
संसार-कल्याण में लगना चाहिए।
बिना किसी फल की इच्छा किए 
अनासक्त हो कर्म करना चाहिए।।

अध्याय-3, श्लोक-24

यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌ ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥ २४ ॥
यदि मैं नियतकर्म न करूँ तो ये सारे लोग नष्ट हो जायँ। तब मैं अवांछित जनसमुदाय (वर्णसंकर) को उत्पन्न करने का कारण हो जाऊँगा और इस तरह सम्पूर्ण प्राणियों की शांति का विनाशक बनूँगा।
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यदि मैं नियत कर्मों को न करूँ तो 
सारे लोग इसका अनुसरण करेंगे।
कर्त्तव्य पालन न करने के कारण 
वे सब अपने पथ से भ्रष्ट हो जाएँगे।।

तब उत्पन्न होगी अवांछित संताने 
जिसका कारण भी मैं कहलाऊँगा।
इससे  भंग होगी समाज की शांति 
मैं ही उसका भी कारण बन जाऊँगा।।

Tuesday, October 25, 2016

अध्याय-3, श्लोक-23

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ २३ ॥
क्योंकि यदि मैं नियत कर्मों को सावधानीपूर्वक न करूँ तो हे पार्थ! यह निश्चित है कि सारे मनुष्य मेरे पथ का ही अनुगमन करेंगे।
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आवश्यक है अपने कार्यों के द्वारा 
लोगों के समक्ष सही आदर्श रखना।
अपने कर्त्तव्यपालन से उन्हें उनके 
कर्त्तव्यों के प्रति सावधान करना ।।

हे पार्थ! अगर मैं न करूँ गंभीरता से  
नियत कर्मों का सही-सही पालन।
तो निश्चित है कि ये सारे मनुष्य भी 
करेंगे लगेंगे इस कार्य का अनुगमन।।

अध्याय-3, श्लोक-22

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥ २२ ॥
हे पृथापुत्र! तीनों लोकों में मेरे लिए कोई भी कर्म नियत नहीं है, न मुझे किसी वस्तु का अभाव है और न आवश्यकता ही है। तो भी मैं नियत कर्म करने में तत्पर रहता हूँ।
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हे पार्थ! तीनों लोकों में मेरे किए 
करने को कुछ भी तो नही शेष है।
कोई नियत कर्म नही निर्धारित है  
न ही जीवन में मेरे कोई क्लेश है।।

न अभाव है किसी वस्तु की मुझे 
न किसी चीज़ की आश्यकता है।
फिर भी कर्त्तव्य मान कर्म करने की 
सदा ही रहती मुझमें तत्परता है।।

अध्याय-3, श्लोक-21

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ २१ ॥
महापुरुष जो जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं। वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है, सम्पूर्ण विश्व उसका अनुसरण करता है।
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समाज के श्रेष्ठ जनों के जीवन को
बाक़ी जन अपना आदर्श बनाते हैं।
जैसा आचरण करते हैं महापुरुष
सामान्य लोग भी वही अपनाते हैं।।

महापुरुषों के अनुसरणीय कार्यों से
सारे विश्व का ही मार्गदर्शन होता है।
उनके जीवन के मूल्यों से समाज का
सदियों तक कुशल संचालन होता है।।

अध्याय-3, श्लोक-20

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥ २० ॥
जनक जैसे राजाओं ने केवल नियत कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त की। अतः सामान्य जनों को शिक्षित करने की दृष्टि से तुम्हें कर्म करना चाहिए।
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कर्त्तव्यों का अपने पालन करके भी 
परम सिद्धि को पाया जा सकता है।
राजा जनक जैसे मानवों का चरित्र 
इस बात का हमें उदाहरण देता है।।

इसलिए हे अर्जुन! तुम भी अपने 
नियत कर्त्तव्य का ही पालन करो।
सामान्य लोगों के मार्गदर्शन हेतु  
अपने क्षत्रिय धर्म को धारण करो।।

अध्याय-3, श्लोक-19

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥ १९ ॥
अतः कर्मफल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्त्तव्य समझकर कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से उसे पर ब्रह्म (परम) की प्राप्ति होती है।
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इसलिए मनुष्य को कर्म फल की  
चिंता में कभी नही पड़ना चाहिए।
जो कार्य हुए हैं उसे निर्धारित उन्हें 
कर्त्तव्य समझकर करना चाहिए।।

अगर फल की चिंता ही नही होगी 
तो मोह माया भी नही घेर पाएगा। 
ऐसा अनासक्त व्यक्ति एकदिन
अवश्य ही परमात्मा को पाएगा।।

अध्याय-3, श्लोक-18

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥ १८ ॥
स्वरूपसिद्ध व्यक्ति के लिए न तो अपने नियत कर्मों को करने की आवश्यकता रह जाती है, न ऐसा कर्म न करने का कोई कारण ही रहता है। उसे किसी अन्य जीव पर निर्भर रहने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती।
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न कर्म करने की आवश्यकता रहती 
न ही कोई कारण कर्म न करने का।
उन्होंने सीख लिया होता है तरीक़ा 
अपनी आत्मा में ही प्रसन्न रहने का।।

ऐसे पुण्य पुरुष जग में रहते फिर भी 
मुक्त रहते इस जग के सारे बंधन से।
किसी भी प्राणी पर निर्भर नही होते 
दूर ही रहते सांसारिक आलम्बन से।।

Monday, October 24, 2016

अध्याय-3, श्लोक-17

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ १७ ॥
किंतु जो व्यक्ति आत्मा में ही आनंद लेता है तथा जिसका जीवन आत्म-साक्षात्कार युक्त है और जो अपने में ही पूर्णतया संतुष्ट रहता है उसके लिए कुछ करणीय (कर्त्तव्य) नही होता।
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किंतु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो 
अपनी आत्मा में ही आनंद पा लेते।
जिनका एक क्षण भी व्यर्थ न जाता 
हर पल आत्म-साक्षात्कार को देते।।

कोई बाहरी लालसा न होती मन में 
आत्मा में ही पूर्णतया संतुष्ट रहते हैं।
कोई कर्त्तव्य शेष नही बचता उनका 
उनके लिए वही पर्याप्त जो वे करते हैं।।

अध्याय-3, श्लोक-16

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥ १६ ॥ 
हे प्रिय अर्जुन! जो मानव जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र का पालन नहीं करता वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऐसा व्यक्ति केवल इंद्रियों की तुष्टि के लिए व्यर्थ ही जीवित रहता है।
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जो व्यक्ति वेदों द्वारा निर्धारित किए 
नियत कर्मों का पालन नहीं करता।
हे अर्जुन! ऐसे लोगों का जीवन फिर 
निश्चय ही पाप कर्मों में ही गुज़रता।।

जीवन के बहुमूल्य क्षणों को जिसने  
क्षणिक इन्द्रिय सुख में व्यर्थ किया।।
जीवन को सार्थक करने का अवसर 
उसने अपने ही हाथों स्वयं गँवा दिया।।

अध्याय-3, श्लोक-15

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥ १५ ॥
वेदों में नियमित कर्मों का विधान है और ये वेद साक्षात् श्रीभगवान (परब्रह्म) से प्रकट हुए हैं। फलतः सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञकर्मों में सदा स्थित रहता है।
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वेदों बताते हैं हमारे नियत कर्म 
और उन्हें पूरा करने का विधान।।
वेद लौकिक पुस्तक मात्र नही 
है साक्षात् प्रभु से उत्पन्न ज्ञान।।

वेदों का अनुसरण करते हुए ही 
ज्ञानी यज्ञों  को संपन्न करते हैं।
सर्वव्यापी अविनाशी परमात्मा 
इन यज्ञों में सदा ही बसते हैं।।

Sunday, October 23, 2016

अध्याय-3, श्लोक-14

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ १४ ॥
सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है।
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इस जगत में है जितने भी प्राणी 
वे सब अन्न पर आश्रित होते हैं।
अन्न की उत्पत्ति होती तब जब 
बादल समय पर वर्षा करते हैं।।

यज्ञ का सम्पन्न करना ज़रूरी है
समय पर वर्षा के होने के लिए।
यज्ञ की उत्पत्ति होती है जब हम 
दृढ़ हो नियत कर्म करने के लिए।।

अध्याय-3, श्लोक-13

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ॥ १३ ॥
भगवान के भक्त सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि वे यज्ञ में अर्पित किए भोजन (प्रसाद) को ही खाते हैं। अन्य लोग, जो अपने इन्द्रियसुख के लिए भोजन बनाते हैं, निश्चित रूप से पाप खाते हैं।
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भगवान को पहले अर्पित करते हैं 
फिर उनका प्रसाद जब वे खाते हैं।
यज्ञ का उच्छिष्ट ग्रहण करनेवाले 
ऐसे भक्त हर पाप से बच जाते हैं।।

लेकिन जो लोग अर्पण नही करते 
बस भोग के लिए भोजन पकाते हैं।
ऐसे इन्द्रियसुख चाहने वाले व्यक्ति   
निश्चित रूप से सिर्फ़ पाप खाते हैं।।

Saturday, October 22, 2016

अध्याय-3, श्लोक-12

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ॥ १२ ॥
जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले विभिन्न देवता यज्ञ सम्पन्न होने पर प्रसन्न होकर तुम्हारी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे। किंतु जो इन उपहारों को देवताओं को अर्पित किए बिना भोगता है, वह निश्चित रूप से चोर है।
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हमारी विभिन्न ज़रूरतों की ज़िम्मेदारी 
भगवान ने विभिन्न देवता को सौंपी है।
यज्ञ द्वारा देवताओं को करें प्रसन्न हम 
यह आज्ञा हमारे लिए निर्धारित की है।।

जो देवताओं को अर्पित किए बिना ही 
बस उनके दिए उपहारों को भोगता है।
बिना दिए लेनेवाले ऐसे व्यक्तियों को 
शास्त्र हमारा निश्चित ही चोर कहता है।।

अध्याय-3, श्लोक-11

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ ११ ॥
यज्ञों के द्वारा प्रसन्न होकर देवता तुम्हें भी प्रसन्न करेंगे और इस तरह मनुष्यों तथा देवताओं के मध्य सहयोग से सबों को सम्पन्नता प्राप्त होगी।
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जब तुम यज्ञ करोगे तो उससे
देवाताओं को प्रसन्नता होगी।
प्रसन्न देवताओं से फिर तुम्हें 
हर उन्नति में सहायता मिलेगी।।

जब मनुष्य और देवता दोनों ही   
साथ में  मिलकर कार्य करते हैं।
तब दोनों ही आपसी सहयोग से 
परम कल्याण को प्राप्त करते हैं।।

अध्याय-3, श्लोक-10

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ॥ १० ॥
सृष्टि के प्रारम्भ में समस्त प्राणियों के स्वामी (प्रजापति) ने विष्णु के लिए यज्ञ सहित मनुष्यों तथा देवताओं की संततियों को रचा और उनसे कहा,"तुम इस यज्ञ से सुखी रहो क्योंकि इसके करने से तुम्हें सुखपूर्वक रहने तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए समस्त वांछित वस्तुएँ प्राप्त हो सकेंगी।"
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समस्त प्राणियों के स्वामी ब्रह्मा ही 
सृष्टि की शुरुआत में सबको रचते हैं।
यज्ञ सहित मानव देवताओं को रचते 
और रचकर उनसे ये बात वे कहते हैं।।

इस यज्ञ के साथ तुम सब सुखी रहो 
इससे सुख-समृद्धि तुम्हें प्राप्त होगी।
भौतिक सुख के संग-संग इस यज्ञ से 
मुक्ति की कामना की भी पूर्ति होगी।

अध्याय-3, श्लोक-9

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥ ९ ॥
श्रीविष्णु के लिए यज्ञ रूप में कर्म करना चाहिए, अन्यथा कर्म के द्वारा इस भौतिक जगत् में बंधन उत्पन्न होता है। अतः हे कुंतीपुत्र! उनकी प्रसन्नता के लिए अपने नियत कर्म करो। इस तरह तुम बंधन से सदा मुक्त रहोगे।
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श्रीविष्णु के लिए जो कर्म वही यज्ञ 
बाक़ी सब तो बंधन के कारण होते हैं।
हर कर्म का होता है निश्चित फल जो 
जन्म-मरण का बंधन उत्पन्न करते हैं।।

हे कुंतीपुत्र! छोड़ कर फल की इच्छा 
जब यज्ञ समझकर अपना कर्म करोगे।
तो तुम अपना नियत कर्म करते हुए भी 
कर्म बंधन से भी सदा मुक्त ही रहोगे।।

अध्याय-3, श्लोक-8

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥ ८ ॥
अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता।
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हे अर्जुन! तुम वह नियत कर्म करो
जिन्हें करने का दायित्व है तुम्हारा।
बिना काम बेकार बैठे रहने से श्रेष्ठ   
है व्यस्त रहना निज कर्म के द्वारा।।

बिना कर्म किए कोई कैसे रह सकता 
यह तो मानव मात्र के लिए है ज़रूरी।
कर्म न करे अगर कोई तो कैसे करेगा 
अपने जीवन की आवश्यकताएँ पूरी।।

अध्याय-3, श्लोक-7

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ ७ ॥
दूसरी ओर यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति अपने मन के द्वारा कर्मइंद्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्मयोग प्रारम्भ करता है, तो वह अति उत्कृष्ट है।
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हे अर्जुन!जब निष्ठा होती मन में तो 
मनुष्य का हर बंधन छूटने लगता है।
स्थिर मन के द्वारा इन्द्रियों को वह   
वश में करने की कोशिश करता है।।

बिना मोह ममता रखे मन में अपने 
जो कर्मयोग का आचरण करता है।
ऐसा अनासक्त मनुष्य ही वास्तव में 
सभी मनुष्यों में सबसे उत्तम होता है।।

Thursday, October 20, 2016

अध्याय-3, श्लोक-6

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ ६ ॥
जो कर्मइंद्रियों को वश में तो करता है, किंतु जिसका मन इन्द्रियविषयों का चिंतन करता रहता है, वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है।
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काम-काज छोड़ दे बनकर त्यागी 
और मन के साथ भटकता फिरता।
करे दिखावा वो ऊपर से कितना भी 
मन तो उसका विषयों में ही रहता।।

ऐसा मूरख तो दुनिया के साथ-साथ 
स्वयं को भी सदा धोखा ही  देता है।
कितना भी कर ले दिखावा और ढोंग 
वास्तव में वह मिथ्याचारी ही होता है।।

अध्याय-3, श्लोक-5

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ ५ ॥ 
प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना पड़ता है, अतः कोई भी एक क्षणभर के लिए भी बिना कर्म किए नही रह सकता।
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इस प्रकृति के अपने नियम हैं 
जो हर व्यक्ति पर लागू होते हैं।
प्रकृति के तीन गुण करे संचालन 
जो भी कर्म हम जग में करते हैं।।

क्षण भर को भी कोई इस जग में  
कर्म किए बिना नही रह सकता।
प्रकृति के गुणों से होकर विवश 
हरकिसी को कर्म करना ही पड़ता।।

अध्याय-3, श्लोक-4

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ ४ ॥
न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त की जा सकती हैं।
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कर्म का बंधन होता दुखदायी पर 
कर्म न करने से बंधन नही मिटता।
फेर ले मुख कोई काम से अपने  
तो भी उसे छुटकारा नही मिलता।।

छोड़छाड़ दे दुनिया के कर्म सारे 
तो सफलता नहीं मिल जाती है।
हृदय फँसा हो जग में जब तक 
संन्यास भी सिद्धि नहीं दिलाती है।।

अध्याय-3, श्लोक-3

श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥ ३ ॥
श्रीभगवान ने कहा - हे निष्पाप अर्जुन! मैं पहले ही बता चुका हूँ कि आत्म-साक्षात्कार का प्रयत्न करने वाले दो प्रकार के पुरुष होते हैं। कुछ इसे ज्ञान द्वारा समझने का प्रयत्न करते हैं, तो कुछ भक्ति-मय सेवा के द्वारा।
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भगवान बोले कि जैसाकि मैंने तुम्हें 
पहले ही इसके विषय में बताया है।
जो आत्म-साक्षात्कार का प्रयास करे 
वह इन दो श्रेणियों में ही  आया है।।

एक श्रेणी होती है ज्ञानियों की जो 
ज्ञान के पथ का अनुसरण करते हैं।
दूसरी होती है भक्तों की श्रेणी जो 
भक्तिमय सेवा से ही  ध्येय पाते हैं।।

अध्याय-3, श्लोक-2

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ॥ २ ॥
आपके व्यामिश्रित ( अनेकार्थक) उपदेशों से मेरी बुद्धि मोहित हो गई है। अतः कृपा करके निश्चयपूर्वक मुझे बतायें कि इनमें से मेरे लिए सर्वाधिक श्रेयस्कर क्या होगा?
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अनेक अर्थोंवाले उपदेशों से आपके  
मेरी यह बुद्धि मानो मोहित हो रही है।
इन उपदेशों में से अपने लिए उचित 
एक रास्ता नही वह चुन पा रही है।।

इन अनेक सही मार्गों में सो जो भी 
मेरे लिए है सर्वोत्तम,वह मुझे बतायें।
इतनी कृपा करें प्रभु मुझ पर ताकि 
मुझे मेरे जीवन का ध्येय मिल पाये।।

अध्याय-3, श्लोक-1

अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ १ ॥
अर्जुन ने कहा - हे जनार्दन, हे केशव! यदि आप बुद्धि को सकाम कर्म से श्रेष्ठ समझते हैं तो फिर मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हैं?
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अर्जुन करते हैं जिज्ञासा प्रभु से कि 
आपके अनुसार कर्म से श्रेष्ठ ज्ञान है।
सकाम कर्म करने की अपेक्षा अगर 
ज्ञान के मार्ग का अनुसरण महान है।।

तो हे केशव! इस स्थिति में तो फिर  
मनुष्य भयंकर कर्म से बचना चाहे।
पर सब कुछ जानते हुए भी जनार्दन 
आप मुझे इस युद्ध में क्यों लगा रहे?

Tuesday, October 18, 2016

अध्याय-2, श्लोक-72

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥ ७२ ॥
यह आध्यात्मिक तथा ईश्वरीय जीवन का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य मोहित नहीं होता। यदि कोई जीवन के अंतिम समय में भी इस तरह स्थित हो, तो वह भगवद्धाम में प्रवेश कर सकता है।
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ईश्वरीय जीवन का है पथ यह 
अध्यात्म के रस में डूबा हुआ है।
जिसने भी चुना इस जीवन को 
जग से नही वो मोहित हुआ है।।

इस पर चलने में कभी देर न होती 
यह सदा सर्वदा ही खुला रहता है।
अंतिम समय में भी अगर अपना ले 
तो भी पथिक परम धाम पाता है।।


******गीता का सार नाम का दूसरा अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-2, श्लोक-71

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ ७१ ॥ 
जिस व्यक्ति ने इन्द्रिय तृप्ति की समस्त इच्छाओं का परित्याग कर दिया है, जो इच्छाओं से रहित रहता है और जिसने सारी ममता त्याग दी है तथा अहंकार से रहित है, वही वास्तविक शांति को प्राप्त कर सकता है।
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इंद्रियों को तृप्त करने की इच्छा 
जिसने सर्वथा परित्याग दिया है।
अपने चंचल मन को भी जिसने 
समस्त इच्छाओं से मुक्त किया है।।

ऐसा व्यक्ति ही मन को जीत कर 
मोह,अहंकार से रहित हो जाता है।
ऐसी दिव्य अवस्था में पहुँचकर ही 
व्यक्ति शांति का परम सुख पाता है।।

अध्याय-2, श्लोक-70

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं 
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌ ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे 
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ ७० ॥
जो पुरुष समुद्र में निरंतर प्रवेश करती रहनेवाली नदियों के समान इच्छाओं के निरंतर प्रवाह से विचलित नहीं होता और जो सदैव स्थिर रहता है, वही शांति प्राप्त कर सकता है, वह नहीं, जो ऐसी इच्छाओं को तुष्ट करने की चेष्टा करता हो।
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जैसे दृढ़ प्रतिष्ठा वाले पूर्ण समुद्र को  
नदियाँ विचलित किए बिना समाती।
उसी भाँति स्थिरबुद्धि पुरुष के मन में  
इच्छाएँ विकार उत्पन्न नही कर पाती।।

ऐसा प्रतिष्ठित प्रज्ञा वाले  मनुष्य ही 
जीवन में शांति का सुख ले पाते हैं।
वरना इंद्रिया को तुष्ट करने वाले तो 
जीवनपर्यन्त  अशांत ही रह जाते हैं।।

अध्याय-2, श्लोक-69

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ ६९ ॥
जो सब जीवों के लिए रात्रि है, वह आत्मसंयमी के जागने का समय है और जो समस्त जीवों के जागने का समय है वह आत्मनिरीक्षक मुनि के लिए रात्रि है।
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रात के समय जब सारा संसार 
स्वप्न लोक में समाया रहता है।
आत्म संयमी मनुष्य उस समय  
आत्म-साक्षात्कार हेतु जगता है।।

सांसारिक काम में लगने को जब 
समस्त प्राणी नींद से जगता है।
वह समय स्थिर प्रज्ञ मुनि को तो 
रात्रि के समान अँधेरा लगता है।।

अध्याय-2, श्लोक-68

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६८ ॥
अतः हे महाबाहु! जिस पुरुष की इंद्रियाँ अपने-अपने विषयों से सब प्रकार से विरत होकर उसके वश में हैं, उसी की बुद्धि निस्सन्देह स्थिर है।
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इंद्रियों के इतने विषय जग में 
जिनपर वह मोहित होती रहती।
पर कुछ ऐसे भी पुरुष भी होते 
जिनकी इंद्रियाँ वश में है होती।।

उनके विषयों से हटा इंद्रियों को 
जो उन्हें अपने वश में रख पाते हैं।
हे महाबाहु! ऐसे संयमी पुरुष ही 
जग में स्थिर बुद्धि के कहलाते हैं।।

अध्याय-2, श्लोक-67

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥ ६७ ॥ 
जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को प्रचण्ड वायु दूर बहा ले जाती है उसी प्रकार विचरणशील इंद्रियों में से कोई एक जिस पर मन निरंतर लगा रहता है, मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है।
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इंद्रियाँ सदा संसार में है विचरती 
और मन को अपने पीछे है भगाती।
जिस पर मन निरंतर लगा रहता है 
वही सबसे अधिक उत्पात मचाती।।

पानी में तैरती हुई नाव को वायु 
अपने वेग से दूर बहा ले जाती है।
वैसे ही मन की कोई प्रिय इन्द्रिय 
बुद्धि को हरकर  उसे भटकाती है।।

अध्याय-2, श्लोक-66

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌ ॥ ६६ ॥ 
जो कृष्णभावनामृत में परमेश्वर से सम्बंधित नही है उसकी न तो बुद्धि दिव्य होती है और न ही मन स्थिर होता है जिसके बिना शांति की कोई सम्भावना नहीं है। शांति के बिना सुख हो भी कैसे सकता है?
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भगवान से जिसने नाता नही जोड़ा 
उसकी बुद्धि कभी दिव्य नही होती।
मन भी उसका चंचल ही रहता और  
मति कभी उसकी स्थिर कहाँ होती।।

ऐसे अस्त-व्यस्त जीवन में कभी भी 
शांति की होती कोई सम्भावना नही।
शांति के बिना सुख आए जीवन में 
आज तक कभी हुआ है ऐसा कहीं?

अध्याय-2, श्लोक-65

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥ ६५ ॥
इस प्रकार भगवान की कृपा प्राप्त होने से सम्पूर्ण दुःखों का अन्त हो जाता है तब उस प्रसन्न-चित्त मन वाले मनुष्य की बुद्धि शीघ्र ही एक परमात्मा में पूर्ण रूप से स्थिर हो जाती है।
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भगवान के अहैतुकी कृपा जब 
मानव के ऊपर ऐसे बरसती है।
सारे क्लेश उसके मिट जाते हैं 
दुःख उससे अब दूर ही रहती है।।

प्रसन्नता उसके जीवन में फैलती   
वह सदा प्रसन्न चित्त ही  रहता है।
बुद्धि पूर्ण रूप से प्रभु में स्थिर है  
अब संसार में नही वह  बहता है।।

अध्याय-2, श्लोक-64

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌ ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥ ६४ ॥
किंतु समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इंद्रियों को संयम द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है।
*****************************************
लेकिन जो समस्त राग और द्वेष से 
मुक्त हुआ निर्मल मन का होता है।
इंद्रियों को अपनी संयमित कर सके
जिसके अंदर इतना सामर्थ्य होता है ।।

वह निश्छ्ल हृदय वाला व्यक्ति तो 
भगवान को अतिशय प्रिय है लगता।
इसी धरा धाम पर रहते हुए भी वह 
प्रभु की  पूर्ण कृपा प्राप्त है करता।।


अध्याय-2, श्लोक-63

क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ ६३ ॥
क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है। जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव-कूप में पुनः गिर जाता है।
********************************************
क्रोध जन्म देता है पूर्ण मोह को 
मोह से स्मरणशक्ति में भ्रम होता।
भ्रमित स्मरणशक्ति में तो मानव 
अपना विवेक तब भी है खो देता।।

जिसके विवेक का नाश हो जाए 
उसका तो पतन निश्चित है होता।
मोह और भ्रम से भटका वह मानव  
बारम्बार इस भव सागर में गिरता।।

अध्याय-2, श्लोक-62

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ ६२ ॥
इन्द्रियविषयों का चिंतन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति हो जाती है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है।
*****************************************
इन्द्रिय विषयों का चिंतन करने से
मनुष्यको उनमें आसक्ति हो जाती।
फिर यह विषयों की आसक्ति उसे
उन्हें पाने के लिए भी है उकसाती।।

हर हाल में उसे पाना ही चाहे मनुष्य 
जब विषय की कामना उत्पन्न होती।
जब पूरी नही हो पाती इच्छा उसकी 
तो यही क्रोध को आगे जन्म है देती।।

अध्याय-2, श्लोक-61

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ६१ ॥
जो इंद्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए इन्द्रिय-संयमन करता है और अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर देता है, वह मनुष्य स्थिरबुद्धि कहलाता है।
****************************************
वेगवती इंद्रियों को वश में करके 
जो जीवन को संयमित कर लेता।
संसार के भटकन से समेट कर जो 
अपनी बुद्धि मुझने स्थिर कर देता।।

वह व्यक्ति ही इंद्रियों को जीतकर 
संसार से मोहित नही हो पाता है।
मुझमें अपनी चेतना प्रतिष्ठित कर 
वह संयमी स्थिरबुद्धि कहलाता है।।

Monday, October 17, 2016

अध्याय-2, श्लोक-60

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ ६० ॥
हे अर्जुन! इंद्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं कि उस विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं, जो उन्हें वश में करने का प्रयत्न करता है।
************************************************
हे अर्जुन! जीव की चंचल इंद्रियाँ 
बड़ी ही प्रबल व वेगवती होती हैं।
मन को सदा विषयों में भटकाती 
औ बुद्धि को भ्रमित करती रहती हैं।।

कोई विवेकी पुरुष करे प्रयास कि 
इन इंद्रियों को अपने वश में कर ले।
तो उससे पहले ये बलवती इंद्रियाँ 
उसके मन को ही बलपूर्वक हर ले।।

अध्याय-2, श्लोक-59

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥ ५९ ॥
देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है। लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बंद करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है।
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इंद्रियों को वश में कर ले जीव जब 
तब वह इन भोगों से तो बच जाए।
पर भोगने की इच्छा बनी रह जाती 
जो न जाने कब फिर से उभर आए।।

लेकिन जब जीव भक्ति का उत्तम रस 
जीवन में एक़बार जो अनुभव करता है।
तब तुच्छ रस की लालसा मिट जाती 
वह फिर इसी रस  में ही स्थिर रहता है।।

अध्याय-2, श्लोक-58

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८॥
जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह जो मनुष्य अपनी इंद्रियों को इन्द्रियविषयों से खींच लेता है, वह पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थित होता है।
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अपने अंगों को कछुआ समय देख  
जैसे  समेटता और  प्रकट करता है।
भाँप शत्रुओं को आसपास जिसतरह  
अंगों को अपने भीतर खींच लेता है।।
 
वैसा ही वश जिसका हो इंद्रियों पर 
जो विषयों से मन को खींच सकता है।
वही आत्मसंयमी दृढ़ संकल्प के साथ 
सदा ही पूर्ण चेतना में स्थिर होता है।।

अध्याय-2, श्लोक-57

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ॥
इस भौतिक जगत में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है।
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शुभ अशुभ क्षणों से भरे जगत में 
जो इनसे प्रभवित नही होता है।
शुभ में भी हर्ष होता नही उसको 
न अशुभ से ही वह द्वेष करता है।।

हर्ष और द्वेष के द्वंद्व से ऊपर उठा  
उसका चित्त सदा निर्मल रहता है।
ऐसी जिसकी प्रकृति होती जग में 
वही  पूर्ण ज्ञान में स्थिर  होता है।।


अध्याय-2, श्लोक-56

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ ५६ ॥
जो त्रय तापों के होने पर भी मन में विचलित नहीं होता अथवा सुख में प्रसन्न नहीं होता और जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त है, वह स्थिर मन वाला मुनि कहलाता है।
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दुःख की घड़ियाँ भी जिनको 
विचलित नही कर पाती है।
सुख प्राप्ति की प्रसन्नता भी 
जिनके भीतर से मिट जाती है।।

किसी से आसक्ति नही रहती 
भय क्रोध से ऊपर उठ जाते हैं।
मन होता जिनका शांत व स्थिर 
ऐसे व्यक्ति ही मुनि कहलाते हैं।।

अध्याय-2, श्लोक-55

श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌ ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥
श्रीभगवान ने कहा-हे पार्थ! जब मनुष्य मनोधर्म से उत्पन्न होनेवाली इन्द्रियतृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और जब इस तरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में संतोष प्राप्त करता है तो वह विशुद्ध दिव्य चेतना को प्राप्त (स्थितप्रज्ञ) कहा जाता है।
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श्रीभगवान ने कहा कि हे पार्थ मनोरथ 
उत्पन्न करती इन्द्रियतृप्ति की कामनाएँ।
जो मनुष्य कामनाओं का कर परित्याग 
अपने मन को विरक्त, विशुद्ध कर पाए।।

समेट सारी दुनिया से विचारों को अपने 
जो आत्मा के अंदर ही संतोष,सुख पाए।
जिनकी चेतना होती ऐसी दिव्य व शुद्ध  
वे दिव्य पुरुष ही स्थितप्रज्ञ हैं कहलाए।।

अध्याय-2, श्लोक-54

अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌ ॥ ५४ ॥
अर्जुन ने कहा-हे कृष्ण! अध्यात्म में लीन चेतना वाले व्यक्ति (स्थितप्रज्ञ) के क्या लक्षण हैं? वह कैसे बोलता है तथा उसकी भाषा क्या है? वह किस प्रकार बैठता तथा चलता है?
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कहा अर्जुन ने अब श्रीकृष्ण से कि 
प्रभु उस व्यक्ति के लक्षण बताए।
जिनकी चेतना होती आध्यात्मिक 
जो अपनी बुद्धि को स्थिर कर पाए।।

किस प्रकार की होती है उनकी बोली 
और किस भाषा का वे प्रयोग हैं करते?
उठने-बैठने की उनकी क्या विशेषता 
स्थितप्रज्ञ व्यक्ति  किस तरह चलते हैं?

अध्याय-2, श्लोक-53

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ ५३ ॥
जब तुम्हारा मन वेदों की अलंकारमयी भाषा से विचलित न हो और वह आत्म-साक्षात्कार की समाधि में स्थिर हो जाए, तब तुम्हें दिव्य चेतना प्राप्त हो जाएगी।
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वेदों के कर्म-विधान का ज्ञान जब 
मन को और विचलित न कर पाए।
भटकन के प्रभवित हुए बिना जब 
बुद्धि शांत भाव में स्थित हो जाए।।

मन व बुद्धि के इस सुंदर सुयोग में 
आत्म साक्षात्कार सम्भव हो पाता है।
फिर आती है जीवन में  परम स्थिति 
जब मानव परमात्मा का हो जाता है।।

अध्याय-2, श्लोक-52

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ ५२ ॥ 
जब तुम्हारी बुद्धि इस मोह रूपी सघन वन को पार कर जाएगी तो तुम सुने हुए तथा सुनने योग्य सब के प्रति अन्यमनस्क हो जाओगे।
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संसार का मोह एक घना-सा वन है 
उसे पार करना जीवन की चुनौती।
बिना भटके इसे  जो पार कर जाए 
वही बुद्धि सर्वोत्तम बुद्धि है होती।।

पार करके इस जंगल को मनुष्य 
सब मोह से अनासक्त हो जाता है।
सुनी हुई बातें, सुनने योग्य विषय 
कोई उसे विचलित न कर पाता है।।

अध्याय-2, श्लोक-51

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌ ॥ ५१ ॥ 
इस तरह भगवद्भक्ति में लगे रहकर बड़े-बड़े ऋषि, मुनि अथवा भक्तगण अपने आपको इस भौतिक संसार में कर्म के फलों से मुक्त कर लेते हैं। इस प्रकार वे जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाते हैं और भगवान के पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त करते हैं, जो समस्त दुखों से परे है।
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कर स्वीकार भगवद् भक्ति का पथ 
ऋषि-मुनियों ने अपना उद्धार किया।
मुक्त कर स्वयं को कर्म फल मोह से 
भक्तों ने भव बंधन को पार किया।।

जन्म-मृत्यु के अनवरत चक्र से छूट
जीवन के परम लक्ष्य को पा जाते हैं।
जीवन के बाद भगवद धाम जाकर 
वे निज स्वरूप का परम पद पाते  हैं।।

अध्याय-2, श्लोक-50

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌ ॥ ५० ॥
भक्ति में संलग्न मनुष्य इस जीवन में ही अच्छे तथा बुरे कार्यों से अपने को मुक्त कर लेता है। अतः योग के लिए प्रयत्न करो क्योंकि सारा कार्य-कौशल यही है।
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भक्ति की पद्धति को अपनाकर 
मनुष्य पाप-पुण्य से छूट जाता है।
इस संसार में रहकर भी वो व्यक्ति 
यहाँ के बंधनों में बँध नहीं पाता है।।

त्याग कर सम असम दृष्टि अपनी 
बुद्धि योग की समता को अपनाओ।
कुशलता पूर्वक सम्पन्न होंगे कार्य 
अपने प्रयास में तुम दृढ़ हो जाओ।।

अध्याय-2, श्लोक-49

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ ४९ ॥
हे धनंजय! भक्ति के द्वारा समस्त गर्हित कर्मों से दूर रहो और उसी भाव से भगवान की शरण ग्रहण करो। जो व्यक्ति अपने सकाम कर्म-फलों को भोगना चाहते हैं, वे कृपण हैं।
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बुद्धि योग का पालने करते हुए 
सारे निंदित कर्मों से तुम दूर रहो।
निष्काम कर्म की चेतना में रहकर 
भगवद आश्रित हो तुम कर्म करो।।

हे धनंजय! ऐसी सम्यक् चेतना ही 
सांसारिक बंधन से मुक्त कराती है।
फल  भोगने की इच्छा है  कृपणता 
जो हमें यहाँ और अधिक फँसाती है।।

Sunday, October 16, 2016

अध्याय-2, श्लोक-48

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ ४८ ॥
हे अर्जुन! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो। ऐसी समता योग कहलाती है।
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हे अर्जुन! जो हमारे नियंत्रण से परे है 
तुम उस कर्म फल का मोह त्याग दो।
जय-पराजय से विचलित हुए बिना 
पूरे मनोयोग से तुम अपना कर्म करो।

कर्त्तव्य समझ जब किए जाए काम 
कर्म फल से रहती नहीं कोई ममता।
मन की हो जब समभाव की स्थिति 
बुद्धि-योग कहलाती है यह समता।।


अध्याय-2, श्लोक-47

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ ४७ ॥
तुम्हें अपना कर्म करने का अधिकार है, किंतु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ।
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कर्म करने का मिला अधिकार तुम्हें 
बस तुम उसका ही सदुपयोग करो।
जिस पर तुम्हारा अधिकार ही नही 
उस फल की चिंता में न व्यर्थ पड़ो।।

फल का स्वयं को कारण न मानो 
न ही उचित कर्मों से लो विरक्ति।
अपने कर्त्तव्य का तुम करो निर्वाहन 
त्याग कर सारी अनुचित आसक्ति।।

Saturday, October 15, 2016

अध्याय-2, श्लोक-46

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥ ४६ ॥
एक छोटे से कूप का सारा कार्य एक विशाल जलाशय से तुरंत पूरा हो जाता है। इसीप्रकार वेदों के आंतरिक तात्पर्य जाननेवाले को उनके सारे प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं।
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जिसे उपलब्ध विशाल जलाशय 
वो फिर कुएँ के पास क्यों जाए।
कुएँ से होनेवाले सारे कार्य उसके  
जलाशय से शीघ्र  सिद्ध हो जाए।।

जिसने जान लिया है वेदों का सार 
उसे फिर कर्मकांड से क्या प्रयोजन।
ब्रह्म तत्त्व का जिसे ज्ञान हो चुका 
तो फिर क्यों करे व्यर्थ आयोजन।।

Friday, October 14, 2016

अध्याय-2, श्लोक-45

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ॥ ४५ ॥
वेदों में मुख्यतया प्रकृति के तीन गुणों का वर्णन हुआ है। हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो। समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी चिंताओं से मुक्त होकर आत्म-परायण बनो।
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हे अर्जुन! वेदों में तो मुख्य रूप से 
प्रकृति के तीन गुणों का वर्णन है।
यह पथ उनके लिए जिन्हें चाहिए 
दुनिया के सुख और भौतिक धन है।।

तुम इन तीन गुणों से ऊपर उठकर 
सुख-दुःख के द्वंद से बाहर आओ।
सुरक्षा के भय से होकर मुक्त अब 
स्वयं को आत्म-परायण बनाओ।। 

अध्याय-2, श्लोक-44

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥ ४४ ॥
जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं, उनके मनों में भगवान के प्रति भक्ति का दृढ़ निश्चय नही होता।
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जब मन में हो इन्द्रियभोग की इच्छा 
और आसक्ति हो भौतिक ऐश्वर्य से।
ऐसी लालसा रखनेवाले लोग फिर 
मोहित रहते हैं ऐसी ही वस्तुओं से।।



जिसके मन में बस भोग बसा हो तो 
फिर वह मन भगवान में कैसे लगाए।
मन उसका संशय ही करता प्रभु पर 
भोग बुद्धि उसे संसार में ही दौड़ाए।।

अध्याय-2, श्लोक-42-43

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥ ४२ ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌ ।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ ४३ ॥
अल्पज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं, जो स्वर्ग की प्राप्ति, अच्छे जन्म, शक्ति इत्यादि के लिए विविध सकाम कर्म करने की संस्तुति करते हैं। इन्द्रियतृप्ति तथा ऐश्वर्यमय जीवन की अभिलाषा के कारण वे कहते हैं कि इससे बढ़कर और कुछ नहीं है।
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वेदों  के कर्मकांड  भाग ने दिए हैं
सकाम कर्म के कितने ही विधान।
फँस जाते हैं उन विभागों में ही वे   
जिनको होता है न अधिक  ज्ञान।।

स्वर्ग, उच्च कुल और वैभव हेतु वेद  
अनेक विधियों का वर्णन करते हैं।
वेदों की अलंकारिक भाषा में फँस 
लोग कर्म-फल में आसक्त रहते हैं।।

जिन्हें चाहिए बस इंद्रियों का भोग 
उनको लगता कि यही मार्ग सही है।
ऐश्वर्य की कामना रखने वाले कहते 
इससे बढ़कर तो कुछ और नही हैं।।





Thursday, October 13, 2016

अध्याय-2, श्लोक-41

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥ ४१ ॥
जो इस मार्ग पर चलते हैं वे प्रयोजन में दृढ़ रहते हैं उनका लक्ष्य भी एक होता है। हे कुरुनंदन! जो दृढ़प्रतिज्ञ नहीं है उनकी बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है।
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ठाना जिसने इस पथ पर  चलना
प्रयोजन उनका सदा दृढ़ है रहता।
बुद्धि उनको विचलित नही करती 
न ही लक्ष्य उनका हरदिन बदलता।।

पर जो अपने संकल्प में दृढ़ नही है
वे लक्ष्य को लेकर भ्रमित ही  रहते।
बुद्धि उनकी बँटी होती शाखाओं में
सही मार्ग का वे निर्णय नही करते।।

अध्याय-2, श्लोक-40

यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌ ॥ ४० ॥
इस प्रयास में न तो कोई हानि होती है न ही ह्रास अपितु इस पथ पर की गई अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा कर सकती है।
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अनासक्त भाव से जब हम कर्म करे 
तो कभी भी हिस्से में हानि न  आए ।
हानि की तो बात दूर यह प्रयास तो  
कर्मफल रूपी  दोष भी दूर भगाए ।।

निष्काम कर्म के इस पथ पर कभी 
थोड़ी-सी प्रगति भी व्यर्थ न जाती।
जन्म-मृत्यु के चक्र के महान भय से 
भी पथिक की यहाँ रक्षा हो जाती।।

अध्याय-2, श्लोक-39

एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥ ३९ ॥
यहाँ मैंने वैश्लेषिक अध्ययन (सांख्य) द्वारा इस ज्ञान का वर्णन किया है। अब निष्काम भाव से कर्म करना बता रहा हूँ, उसे सुनो। हे पृथापुत्र! तुम यदि ऐसे ज्ञान से कर्म करोगे तो तुम कर्मों के बंधन से अपने को मुक्त कर सकते हो।
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हे पार्थ! अब तक तो मैंने तुम्हें 
सांख्य योग का ज्ञान दिया है।
अब सुनो निष्काम कर्म योग ने  
इस विषय  में क्या  कहा है।।

समझकर निष्काम कर्म भाव को 
जब तुम अपना कार्य  करते हो ।
उस स्थिति में सदा ही तुम अपने 
कर्म के बंधन से मुक्त रहते हो।।

अध्याय-2, श्लोक-38

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय  युज्यस्व नैवं  पापमवाप्स्यसि ॥ ३८ ॥ 
तुम सुख या दुःख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किए बिना युद्ध के लिए युद्ध करो। ऐसा करने पर तुम्हें कोई पाप नही लगेगा।
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निज सुख-दुःख से ऊपर उठ कर 
हानि-लाभ की परवाह बिना किए।
जय व पराजय की चिंता छोड़कर 
युद्ध करो पार्थ सिर्फ़ युद्ध के लिए।।

धर्म की रक्षा हेतु तुम युद्ध कर रहे 
यही कर्त्तव्य समझकर पालन करो।
कोई पाप नही लगेगा तुम्हें अगर 
निर्लिप्त अवस्था को हृदय में धरो।।

अध्याय-2, श्लोक-37

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌ ।
तस्मादुत्तिष्ठ    कौन्तेय      युद्धाय    कृतनिश्चयः ॥ ३७ ॥
हे कुंतीपुत्र! तुम यदि युद्ध में मारे जाओगे तो स्वर्ग प्राप्त करोगे या यदि जीत जाओगे तो पृथ्वी के साम्राज्य का भोग करोगे। अतः दृढ़संकल्प करके खड़े होओ और युद्ध करो।
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युद्ध करते हुए जो वीरगति को पाया 
तो प्राप्त करोगे देवताओं का लोक।
अगर जीत तुम्हारी होती है तो फिर 
पाओगे पृथ्वी के साम्राज्य का भोग।।

हे कुंतीपुत्र! त्यागकर यह निर्बलता 
खड़े हो जाओ दृढ़ संकल्प के साथ।
युद्ध ही होगा तुम्हारे लिए अभी उत्तम
बढ़ो आगे अब इस विकल्प के साथ।। 

अध्याय-2, श्लोक-36

अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌ ॥ ३६ ॥
तुम्हारे शत्रु अनेक प्रकार के कटु शब्दों से तुम्हारा वर्णन करेंगे और तुम्हारी सामर्थ्य का उपहास करेंगे। तुम्हारे लिए इससे दुखदायी और क्या हो सकता है?
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समझेगा न कोई तुमारी दया 
उल्टा सब मिल उपहास करेंगे।
रूष्ट वाणी और कटु शब्दों से 
वीरता पर तुम्हारी व्यंग करेंगे।।

एक सम्मानित व्यक्ति के लिए 
सम्मान खोना दुखदायी होता।
अपमान के ऐसे क्षण से अधिक 
पीड़ादायक कुछ और न होता।।

अध्याय-2, श्लोक-35

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ ॥ ३५ ॥
जिन-जिन महान योद्धाओं ने तुम्हारे नाम तथा यश को सम्मान दिया है वे सोचेंगे कि तुमने डर के मारे युद्धभूमि छोड़ दी है और इसतरह वे तुम्हें तुच्छ मानेंगे।
**************************************************
जिन के ऊपर तुम करुणा करके
आज रणभूमि से जाना चाहते हो।
जिन सम्बन्धों को तुम आज यहाँ 
धर्म से बढ़कर निभाना चाहते हो।।

वे भी तुम्हारे इस पलायन को करुणा 
नही, वरण तुम्हारी कायरता ही कहेंगे।
जो करते थे तुम्हारी वीरता का बखान 
वे भी यश सम्मान तुम्हें वैसा न  देंगे।।

Wednesday, October 12, 2016

अध्याय-2, श्लोक-34

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌ ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति र्मरणादतिरिच्यते ॥ ३४ ॥
लोग सदैव तुम्हारे अपयश का वर्णन करेंगे और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश तो मृत्यु से भी बढ़कर है।
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क्या प्राप्त होगा तुम्हें हे अर्जुन 
इस तरह युद्ध से मुख मोड़कर।
चिर काल तक अपयश होगा 
चले गये जो रणभूमि छोड़कर।।

जिसका यश हो हर ओर फैला 
वह  अपयश नहीं सह  पाता है।
तुम जैसे कीर्तिवान वीरों के लिए 
अपयश मृत्यु से बढ़कर होता है।।

अध्याय-2, श्लोक-33

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥
किंतु यदि तुम युद्ध करने के स्वधर्म को सम्पन्न नहीं करते तो तुम्हें निश्चित रूप से अपने कर्त्तव्य की उपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम योद्धा के रूप में भी अपना यश खो दोगे।
*******************************************************
मोह के वशीभूत होकर अगर जो  
क्षत्रिय धर्म का पालन नही करते।
तो स्वधर्म सम्पन्न नही करने वाले 
अवश्य ही पाप के भागी हैं बनते।।

अपने कर्त्तव्य की अनदेखी करके 
तुम कुछ भी शुभ नही पा सकते।
युद्ध से पलायन करनेवाले क्षत्रिय 
योद्धा रूप में अपना यश खो देते।।


अध्याय-2, श्लोक-32

यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌ ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌ ॥ ३२ ॥ 
हे पार्थ! वे क्षत्रिय सुखी हैं जिन्हें ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार खुल जाते हैं।
*********************************************************
कितने सुखी होते हैं क्षत्रिय योद्धा 
जो धर्म के लिए युद्ध कर सकते हैं।
हे पृथापुत्र! है ये सौभाग्य तुम्हारा 
ऐसे अवसर सबको कहाँ  मिलते हैं।।

धर्म के लिए लड़ते-लड़ते जो रण में 
अपने प्राणों की आहुति चढ़ा देते हैं।
उनके लिए तो स्वर्ग लोक के द्वार 
बिना प्रयत्न अपने आप खुलते हैं।।

अध्याय-2, श्लोक-31

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ ३१॥ 
क्षत्रिय होने के नाते अपने विशिष्ट धर्म का विचार करते हुए तुम्हें जानना चाहिए कि धर्म के लिए युद्ध करने से बढ़कर तुम्हारे लिए अन्य कोई मार्ग नही है। अतः संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
***************************************************
क्षत्रिय होने के नाते करो विचार तुम  
क्या कहता है स्वधर्म  तुम्हारा अभी।
क्षत्रियों के लिए धर्म-युद्ध से बढ़कर 
और कोई धर्म हो सकता है क्या कभी?

ज्ञात रहे तुम्हें अपना कर्त्तव्य सदा ही 
युद्ध के अतिरिक्त अब कोई मार्ग नही।
त्याग दो अब संदेह व संकोच सारे 
अब युद्ध से पलायन है स्वीकार्य नही।।

अध्याय-2, श्लोक-30

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ ३० ॥
हे भरतवंशी! शरीर में रहनेवाले (देही) का कभी भी वध नहीं किया जा सकता। अतः तुम्हें किसी भी जीव के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है।
*******************************************************
हे भरतवंशी! समझ लो तुम ये बात 
शरीर और आत्मा अलग-अलग है ।
रहे जो शरीर के भीतर वो है आत्मा 
जिसका वध कभी भी नही संभव है।।

नष्ट हो जाता है ये  नाशवान शरीर 
पर आत्मा तो अजर-अमर है रहती।
अजर-अमर के लिए हम शोक करें  
बुद्धिमानी तो यह कभी नही कहती।।

अध्याय-2, श्लोक-29

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- 
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति 
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌ ॥ २९ ॥
कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, किंतु कोई-कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नही समझ पाते।
************************************************************
भाँति-भाँति के लोग भाँति भाँति से 
आत्मा के विषय में ज्ञान है रखते।
कई अचरज से देखते आत्मा को 
तो कई अचरज से वर्णन है करते।।

कई लोग जो अचरज से सुनते हैं 
आत्मा के विषय में हो रही बातें।
तो कई लोग होते हैं ऐसे भी जो 
सुनते सब पर कुछ समझ न पाते।।

Tuesday, October 11, 2016

अध्याय-2, श्लोक-28

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ २८॥
सारे जीव प्रारम्भ में अव्यक्त रहते हैं, मध्य अवस्था में व्यक्त होते हैं और विनष्ट होने पर पुनः अव्यक्त हो जाते हैं। अतः शोक करने की क्या आवश्यकता है?
************************************************************
जब तक न होता जन्म जीव का 
तब तक तो वह नही दिखता है।
मृत्यु जब वरण कर लेती उसे 
तब फिर वह छुप ही जाता है।।

बीच की थोड़ी-सी जो है अवधि 
बस उसमें ही जीव प्रकट होता है।
हे भरतवंशी! फिर ऐसी स्थिति में 
शोक की क्या आवश्यकता है।।

Monday, October 10, 2016

अध्याय-2, श्लोक-27

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ २७ ॥ 
जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म भी निश्चित है। अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नही करना चाहिए।
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अगर जन्म हुआ है किसी का तो 
साथ ही निश्चित है उसका मरना।
मृत्यु को अगर कोई प्राप्त हुआ
तो तय है उसका फिर जन्म होना।।

इसलिए जिस कर्तव्य का पालन 
तुम्हारे लिए सर्वथा अनिवार्य है।
उसमें कोई शोक करो न तुम अब 
यही तुम्हारे लिए करणीय कार्य है।।

अध्याय-2, श्लोक-26

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌ ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥ २६ ॥
किंतु अगर तुम यह सोचते हो कि आत्मा सदा जन्म लेता है तथा सदा मरता है तो भी हे महाबाहु! तुम्हारे लिए शोक करने का कोई कारण नहीं है।
*************************************************************
लेकिन अगर तुम यह भी सोचते हो 
कि इस आत्मा का जन्म होता है।
और शरीर की भाँति ही आत्मा भी 
सदा ही मरण को प्राप्त करता है।।

आत्मा के गुणों से बिल्कुल अलग 
वैसे यह तो यह एक विपरीत सोच।
फिर भी हे शूरवीर इस स्थिति में भी 
कोई कारण नही कि तुम करो शोक।।

अध्याय-2, श्लोक-25

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥ २५ ॥
यह आत्मा अव्यक्त, अकल्पनीय तथा अपरिवर्तनीय कहा जाता है। यह जानकर तुम्हें शरीर के लिए शोक नही करना चाहिए।
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खुली आँखों से नही दिखता 
सूक्ष्मता कल्पना से भी परे है।
शरीर की तरह परिवर्तित न हो 
न ही इसे दुःख-व्याधि धरे है।।

आत्मा के विषय में ये सारी बातें 
हमें हमारे अमल शास्त्र बताते हैं।
जो समझ लेते हैं शास्त्रों की बातें 
वे शरीर हेतु शोक नही मनाते हैं।।

अध्याय-2, श्लोक-24

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २४ ॥
यह आत्मा अखण्डित तथा अघुलनशील है। इसे न तो जलाया जा सकता है, न ही सुखाया जा सकता है। यह शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर तथा सदैव एक-सा रहनेवाला है।
**************************************************************
आत्मा कभी भी खंडित नही होता
न ही कोई द्रव इसे घुला सकता।
न तो अग्नि से है ये जलता और
न ही यह सुखाया ही जा सकता।।

यह शाश्वत है, हर जगह है व्याप्त
इसमें न कोई कल्मष न ही विकार।
स्वभाव में इसके स्थिरता इसलिए
सदा रहता है यह एक ही प्रकार।।

Sunday, October 9, 2016

अध्याय-2, श्लोक-23


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ २३ ॥
यह आत्मा न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है।
****************************************************************
विनाश तो सदा होता है शरीर का 
आत्मा को भला कौन मार सकता।
न शस्त्र कोई कर पाए टुकड़े इसके 
न ही आग का ताप इसे जला पाता।।

नमी जिस जल का स्वभाविक गुण 
वो जल भी इसे भिगो नही पाता।
वायु से भी इसे कोई क्षति नही होती 
वह भी आत्मा को सुख नही सकता।।

अध्याय-2, श्लोक-22

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय 
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्य-
न्यानि संयाति नवानि देही ॥ २२ ॥
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग का नवीन भौतिक शरीर धारण करता है।
**********************************************************************
जब हो जाते है कपड़े पुराने 
कभी-कभी जब फट वे  जाते।
तब त्याग कर उन कपड़ों को 
नए कपड़े मनुष्य है अपनाते।

वैसे ही जब हो जाए शरीर जीर्ण 
तब त्याग उसे भी आत्मा देती।
नए वस्त्र की तरह फिर आत्मा 
एक नया शरीर धारण है करती।।

अध्याय-2, श्लोक-21


वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌ ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌ ॥ २१ ॥
हे पार्थ! जो व्यक्ति यह जानता है कि आत्मा अविनाशी, अजन्मा, शाश्वत तथा अव्यय है, वह भला किसी को कैसे मार सकता है या मरवा सकता है।
*************************************************************
जब यह ज्ञात हो जाता मनुष्य को 
कि आत्मा अजन्मा, अविनाशी है।
आदि काल से अनंत  काल तक 
हर युग, हर काल का ये  वासी है।।

हे पार्थ! आत्मतत्त्व के ज्ञान के बाद 
कैसे कोई किसी को मार सकता है?
कितना भी कर ले कोई प्रयास पर 
क्या आत्मा को वो मरवा सकता है?

Friday, October 7, 2016

अध्याय-2, श्लोक-20

न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २० ॥ 
आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु। वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा। वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत तथा पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर वह मारा नही जाता।
************************************************
कभी भी आत्मा का जन्म हुआ न 
न ही कभी भी मृत्यु हुई इसकी।
किसी काल में अपवाद न इसका 
बात भूत, भविष्य या वर्तमान की।।

अजन्मा, नित्य, शाश्वत व पुरातन 
आत्मा के है ये स्वभाविक लक्षण।
मारा जाए जब  ये क्षणिक शरीर 
तब  भी आत्मा रहता है अक्षुण्ण ।।

अध्याय-2, श्लोक-19

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌ ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ १९ ॥
जो इस जीवात्मा को मारनेवाला समझता है तथा जो इसे मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं, क्योंकि आत्मा न तो मारता है और न मारा जाता है।
****************************************************
कोई अगर समझता है ऐसा 
कि आत्मा ने किसी को मारा।
या फिर ये समझता कोई कि 
मारा गया ये किसी के द्वारा।।

ऐसी समझ रखनेवाला व्यक्ति 
तो ज्ञान से विमुख कहलाता है।
क्योंकि आत्मा किसी को न मारे 
नही कभी स्वयं मारा जाता है।।



अध्याय-2, श्लोक-18

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥ १८ ॥
अविनाशी, अप्रमेय तथा शाश्वत जीव के भौतिक शरीर का अंत अवश्यम्भावी है। अतः हे भरतवंशी! युद्ध करो।
*******************************************************
आत्मा का कभी नाश नही होता 
ना ही उसको मापा जा सकता।
कभी भी नही मरती है ये  आत्मा 
है  शास्त्र इसे शाश्वत बतलाता।।

पर शरीर का तो अंत है निश्चित 
उसका तुम इतना मोह न धरो।
हे भरतवंशी!त्यागकर मोह अब 
आओ आगे और ये  युद्ध करो।।


अध्याय-2, श्लोक-17

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌ ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ १७ ॥
जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नही है।
*******************************************************
नख से शिख तक पूरे शरीर में 
फैली हुई है जो अविरल चेतना।
उसे ही तुम अविनाशी समझो 
जो अनुभव कराए हर्ष व वेदना।

हर स्थिति, हर देश और काल में 
रहता सदा अव्यय और एक-सा।
इस आत्मा को नष्ट कर पाए कोई 
इतना नही है सामर्थ्य किसी-का।।

अध्याय-2, श्लोक-16

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥ १६ ॥
तत्त्वदर्शियों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि असत् (भौतिक शरीर) का तो कोई चिरस्थायित्व नही है, किंतु सत् (आत्मा) अपरिवर्तित रहता है। उन्होंने इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है।
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शरीर और आत्मा में है भेद बारी 
तत्त्व ज्ञानीयों ने हमें बतलाया है।
दोनों के गुणों का अध्ययन किया  
फिर सामने निष्कर्ष यही आया है।।

शरीर हमारा भौतिक  व  क्षणिक 
हर पल इसमें परिवर्तन है होता।
आत्मा सदा अपरिवर्तित है रहती  
अस्तित्व उसका कभी नही खोता।।

Thursday, October 6, 2016

अध्याय-2, श्लोक-15

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ॥
हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन)! जो पुरुष सुख तथा दुःख में विचलित नही होता और इन दोनों में समभाव रहता है, वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है।
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आए जीवन में सुख की सुंदर घड़ी 
या दुःख से भरे भीषण दिन आए।
जिस पुरुष को ऐसे दोनों ही समय 
पल भर को विचलित न कर पाए।।

अच्छी-बुरी हर एक परिस्थिति में 
जिसके मन का भाव समान है रहता।
हे अर्जुन! वह  मनुष्य तो  निश्चय ही 
 मुक्ति का परम अधिकारी है बनता।।


अध्याय-2, श्लोक-14

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥ 
हे कुंतिपुत्र! सुख तथा दुःख क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अंतर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने जाने के समान है। हे भरतवंशी! वे इंद्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहना सीखें।
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जैसे सर्दी और गर्मी के ऋतुओं का 
आना और जाना दोनों ही निश्चित।
समझ लिया जब इस प्रवर्त्तन को 
तो चित्त हमारा नहीं होता प्रभावित।।

हे कुंतीनंदन! सुख-दुःख भी ऐसे ही 
समय के साथ आते - जाते रहते हैं ।
कोई भी स्थिति सदा नही है रहती 
ज्ञानी क्षणिक वेग में नहीं बहते हैं।।

जैसा इंद्रियों से हम अनुभव है करते 
मन की वो दशा सुख-दुःख कहलाए।
मनुष्य का कर्तव्य यही है कि वो इन्हें 
अविचल भाव से सहना सीख जाए।।

अध्याय-2, श्लोक-13

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ १३ ॥
जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरंतर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नही होता।
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प्रतिक्षण शरीर बदलता जीव का 
बालक एकदिन  तरुण हो जाता।
तरुणाइ पर ही ठहरे नही जीवन 
बढ़ते-बढ़ते फिर बुढ़ापा भी आता।

शरीर को धारण करनेवाली आत्मा 
प्रतिपल ही शरीर है बदलती रहती।
बूढ़ा हो जाए जब वर्तमान शरीर तो 
नए शरीर को धारण है यह करती।।

बालपन, तरुणाइ और बुढ़ापा जैसे 
मृत्यु भी परिवर्तन के क्रम में आए।
धीर वही जो मोहित हुए बिना ही 
शरीर का ये परिवर्तन समझ जाए ।।

अध्याय-2, श्लोक-12

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥ १२ ॥
ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं न रहा होउँ या तुम न रहे हो अथवा ये समस्त राजा न रहे हो;और न ऐसा है कि भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे।
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ऐसा कभी हुआ नही अर्जुन कि 
मैं न रहा हूँ या तुम रहे नहीं  हो।
सदा रहता है अस्तित्व सबका ही  
हम तुम हो या ये राजागण हो।।

क्यों करना फिर शोक व्यर्थ में 
जब सब जीव सदा ही है रहता।
वर्तमान का बस नियम नही ये 
भविष्य में भी ऐसे ही है चलता।।

अध्याय-2, श्लोक-11

श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च  नानुशोचन्ति प ण्डिताः  ॥ ११ ॥ 
श्री भगवान ने कहा-तुम पांडित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो जो शोक करने योग्य नहीं हैं। जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवित के लिए, न ही मृत के लिए शोक करते हैं।
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श्रीभगवान ने सम्भाला जैसे गुरु पद 
अर्जुन शोक पर ही प्रश्नचिह्न लगाया।
जिनके लिए कर रहे हैं शोक अर्जुन 
वे इस योग्य नही प्रभु ने उन्हें बताया।।

पंडितों की तरह वाणी है तुम्हारी पर 
विपरीत इसके  है तुम्हारा ये आचरण।
विद्वान कभी भी शोक नहीं करते चाहे 
व्यक्ति जीवित हो या हो गया हो मरण।।



अध्याय-2, श्लोक-10

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥ १०॥
हे भरतवंशी (धृतराष्ट्र)! उस समय दोनों सेनाओं के मध्य शोकमग्न अर्जुन से कृष्ण ने मानो हँसते हुए ये शब्द कहे।
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दोनों पक्षों की सेनायें तैयार खड़ी
कि कब दिखाए रणकौशल रण में।।
खड़े थे अर्जुन व्याकुल, शोकमग्न
दोनों सेनाओं के मध्य ऐसे क्षण में।।

हे भरतवंशी धृतराष्ट्र! युद्धभूमि में जब
देखी भगवन ने अर्जुन की यह स्थिति।
शोक का उनके समाधान करने हेतु
अब हँसते हुए उनसे बोले भुवनपति।।

Wednesday, October 5, 2016

अध्याय-2, श्लोक-9

संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ ९ ॥
संजय ने कहा- इसप्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, "हे गोविंद ! मैं युद्ध नहीं करूँगा," और चुप हो गया।
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संजय सुनाए धृतराष्ट्र को कि कैसे 
परम प्रतापी अर्जुन मन से हार रहा।
शत्रुओं का दमन करने वाला योद्धा 
आज कैसे शोक के वेग में जा बहा।।

हे गोविंद मैं यह युद्ध नही करूँगा
अर्जुन ने आख़िर कह दिया प्रभु से।
अब कोई तर्क-वितर्क नही दे रहे 
सुना निर्णय बस बैठ गए चुप से।।


अध्याय-2, श्लोक-8

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌ ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌ ॥ ८ ॥
मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इंद्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके। स्वर्ग पर देवताओं के आधिपत्य की तरह इस धनधान्य-सम्पन्न सारी पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य प्राप्त करके भी मैं इस शोक को दूर नहीं कर पाउँगा।
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ऐसा कोई भी साधन नही दिखता 
जो मेरे इस शोक को दूर कर सके।
कैसे मैं प्राप्त करूँ मन की शांति 
युद्ध करके या फिर युद्ध न करके ।।

मिल जाय मुझे इंद्र की अमरावती 
या इस धरा  का निष्कंटक राज्य ।
पर कोई भी दूर नही कर सकता 
छाया मुझ पर शोक का साम्राज्य।।

अध्याय-2, श्लोक-7

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः 
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे 
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥ ७ ॥
अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्त्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ। ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ। अब मैं आपका शिष्य हूँ और आपका शरणागत हूँ। कृपया मुझे उपदेश दें।
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धीरज अब मुझसे धरा नही जाता 
कर्त्तव्य भी अपना समझ नही आता।
हावी है हृदय पर इस तरह दुर्बलता
कि कोई भी निर्णय मैं ले नही पाता।।

अब आपकी शरण में मैं आया प्रभु 
शिष्य समझ अपना आप स्वीकारे।
हित अपना मैं  समझ नहीं  पा रहा 
इस ऊहापोह से प्रभु आप ही तारे।।

अध्याय-2, श्लोक-6

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ ६ ॥
हम यह भी नही जानते कि हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है- उनको जीतना या उनके द्वारा जीते जाना। हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध कर हम जीना भी नही चाहते। फिर भी वे हमारे सामने युद्धभूमि में खड़े हैं।
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हमें नही पता कि क्या है उचित 
युद्ध करना या फिर नही करना।
अनभिज्ञ हैं हम परिणाम से भी 
होगी पराजय या तय जीतना।

धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर भी 
उनके बिना कैसे हम रह पाएँगे।
ऐसी विजय मिलेगी हमें जिसमें 
जीतकर भी हम हार ही जाएँगे।

Tuesday, October 4, 2016

अध्याय-2, श्लोक-5


गुरूनहत्वा हि महानुभावा-ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌ ॥ ५ ॥
ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं, उन्हें मार कर जीने की अपेक्षा इस संसार में भीख माँग कर खाना अच्छा है। भले ही वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हो, किंतु हैं तो गुरुजन ही! यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु उनके रक्त से सनी होगी।
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ये  श्रेष्ठ पुरुष हैं,  गुरुजन हैं हमारे 
कैसे जीवित रहूँगा मैं इन्हें मारकर ?
इनके वध से तो बेहतर यही है प्रभु  
कर लूँ निर्वाह मैं भीख ही माँगकर।।

सांसारिक लाभ की इच्छा हो उन्हें 
पर हमारे लिए तो सदा श्रेष्ठ रहेंगे।
उनके रक्त से सनी विजय का भला 
कैसे आजीवन हम सब भोग करेंगे।।

अध्याय-2, श्लोक-4

अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥ ४ ॥
अर्जुन ने कहा-हे शत्रुहंता! हे मधुसूदन! मैं युद्धभूमि में किस तरह भीष्म तथा द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर उटल कर बाण चलाऊँगा।
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अर्जुन पूछे अपनी दुविधा प्रभु से 
हे मधुसूदन आप ही बताओं हल।
देख हर तरफ़ संबंधियों को रण में 
क्षीण हो रहा है मेरी बुद्धि औ बल।।


किस तरह अपने पूज्यपितामह पर  
अपने तीक्षण बाणों से प्रहार करूँ।
सम्मुख खड़े हैं गुरु द्रोण स्वयं जब 
कैसे प्रभु गुरु पर अपने मैं वार करूँ।।

अध्याय-2, श्लोक-3

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥ ३ ॥
हे पृथापुत्र! इस हीन नपुंसकता को प्राप्त मत होओ। यह तुम्हें शोभा नही देती। हे शत्रुओं के दमनकर्ता! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े होओ।
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युद्धभूमि में आकर करुणा की बातें 
यह दया नही है, है हीं  नपुंसकता।
हे पार्थ तुम रहे हो शत्रु के संहारक 
उसी क्षात्र बल की है आवश्यकता।।

शोभा नही देती तुम्हें ऐसी कायरता 
त्याग दो हृदय की ये क्षुद्र दुर्बलता।
खड़े होओ अब त्यागकर मोह सारा 
दिखाओ शत्रुओं को अपनी प्रबलता।।

अध्याय-2, श्लोक-2

श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌ ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन           ॥ २॥
श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नही है, जो जीवन के मूल्य को जानता हो। इससे उच्चलोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है।
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अर्जुन की मोहभारी सारी बातों को 
श्रीभगवान ने मन का कल्मष बताया।
आयी कैसे कायरता क्षत्रिय हृदय में 
प्रभु ने इस पर ही बड़ा खेद जताया।

जो जाने है मानव जीवन का मूल्य 
उनके लिए ये बातें हैं अनुकूल नही।
इससे न इस लोक में यश है मिलता 
न ही मारने के बाद उच्चलोक कहीं।।

अध्याय-2, श्लोक-1

संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌ ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ १ ॥
संजय ने कहा-करुणा से व्याप्त, शोकयुक्त, अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देखकर मधुसूदन कृष्ण ने ये शब्द कहे।
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करुणा से पूरित, शोक से संतप्त 
बैठे हैं अर्जुन अश्रु नेत्रों में भरकर ।
बता रहे हैं संजय, राजा से अपने 
युद्धभूमि का सारा हाल देखकर।।

अब तक अर्जुन दे रहे थे तर्क अपने  
और प्रभु सुन रहे थे सब मौन होकर ।
किया प्रारंभ अब मधुसूदन ने कहना 
अर्जुन की ऐसी दारुण दशा देखकर।।

Monday, October 3, 2016

अध्याय-1,श्लोक-46

संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌ ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ ४६ ॥
संजय ने कहा-युद्धभूमि में इसप्रकार कह कर अर्जुन ने अपना धनुष तथा बाण एक ओर रख दिया और शोकसंतप्त चित्त से रथ के आसन पर बैठ गया।
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बता रहे हैं धृतराष्ट्र से सब संजय 
जो भी रण में  है अभी हो रहा।
कैसे युद्धभूमि के मध्य में आकर 
अर्जुन ने कृष्ण से क्या-क्या कहा।।

रखे अर्जुन ने धनुष-बाण किनारे 
युद्ध न करने के तर्क समाप्त कर।
शोक से विह्वल हृदय था उनका 
बैठ गए अब वे रथ के आसन पर।।

अध्याय-1,श्लोक-45

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्‌ ॥ ४५ ॥
यदि शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ निहत्थे तथा रणभूमि में प्रतिशोध न करनेवाले को मारें, तो यह मेरे लिए श्रेयस्कर होगा।
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शस्त्रों से सज्जित हैं  धृतराष्ट्र के पुत्र 
फिर भी मैं नही शस्त्र अब उठाऊँगा।
कर दें वे मुझ निहत्थे पर आक्रमण 
पर मैं विनाशक युद्ध नही कर पाउँगा।।

नही चाहिए मुझे उनसे कोई प्रतिशोध 
नही मारना मुझे उन्हें,चाहे वे मुझे मारे।
कुल विनाशी बनने से तो है अच्छा प्रभु 
उनके शस्त्र ही मुझे मौत के घाट उतारे।।

अध्याय-1,श्लोक-44

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌ ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ ४४॥
ओह! कितने आश्चर्य की बात है कि हम सब जघन्य पापकर्म करने के लिए उद्यत हो रहे हैं। राज्यसुख भोगने की इच्छा से प्रेरित होकर हम अपने ही सम्बन्धियों को मारने पर तुले हैं।
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जिसका परिणाम है इतना भीषण 
उस कार्य के लिए हम उताबले है।
कितना अचरज है कि हम लोग भी 
यह जघन्य पापकर्म करने चले हैं।।

क्या मिलेगा इस विजय से हमें भला 
हस्तिनापुर का राज्य और राज्य-सुख
इसके लिए हम सम्बन्धियों को मारे 
इससे बड़ा और क्या हो सकता दुःख।।



अध्याय-1,श्लोक-43

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ ४३ ॥
हे प्रजापालक कृष्ण! मैंने गुरु-परम्परा से सुना है कि जो लोग कुल-धर्म का विनाश करते हैं, वे सदैव नरक में वास करते हैं।
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हे प्रजापालक कृष्ण! यह मेरी नही 
हमारे गुरुओं की रही है ऐसी मति।
किसी भी परिस्थिति में हो न पाए 
कुल के धर्म व संस्कारों की क्षति।।

वरना जो बनता है कारण कुल के 
धर्म और संस्कारों के विनाश का।
उसको तो मिलना है निश्चित दंड  
नरक के घोर कष्टमय वास का।।




अध्याय-1,श्लोक-42

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ ४२ ॥
जो लोग कुल परम्परा को विनष्ट करते हैं और इस तरह अवांछित संतानों को जन्म देते हैं उनके दुष्कर्मों से समस्त प्रकार की सामुदायिक योजनाएँ तथा पारिवारिक कल्याण-कार्य विनष्ट हो जाते हैं।
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कुल की परम्परा का नष्ट होना बस 
कुल तक ही सीमित नहीं है होता।
कुलद्रोही अवांछित संतति का पाप 
पूरे मानव समाज को ढ़ोना है होता।

समाज कल्याण की सारी योजनाएँ 
यूँ ही धरी-की-धरी फिर रह जाती हैं।
कल्याण- कार्य सम्पन्न हो नही पाते 
जब अधर्मी,अनुत्तरदायी पीढ़ी आती है।

अध्याय-1,श्लोक-41

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ ४१॥
अवांछित संतानों की वृद्धि से निश्चय ही परिवार के लिए तथा पारिवारिक परंपरा को विनष्ट करनेवालों के लिए नारकीय जीवन उत्पन्न होता है। ऐसे पतित कुलों के पुरखे गिर जाते हैं क्योंकि उन्हें जल तथा पिण्ड दान देने की क्रियाएँ समाप्त हो जाती है।
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जब होते कुल के घातक संतति 
सारी परम्पराएँ मिट-सी जाती हैं।
न धर्म होता, न संस्कार है बचते 
नारकीय दशा उत्पन्न हो जाती है।।

कोई विधिविधान रहता नही घर में 
पितरों को पानी तक नही मिलता।
तारण - सदगति की बात करें क्या 
 पितरों का पद तो और भी गिरता।