Tuesday, January 24, 2017

अध्याय-9, श्लोक-27

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्‌ ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्‌ ॥ २७ ॥
हे कुंतीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो।
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हे कुंतीपुत्र!तुम जो भी करो 
हर काम में मेरा ध्यान धरो।
जो खाते हो, यज्ञ करते हो 
सब पहले मुझे अर्पित करो।।

दान देते हो किसी को या 
तुम कोई तपस्या ही करो।
अपने सारे कर्मों को मुझे 
समर्पित करते हुए करो।।

अध्याय-9, श्लोक-26

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ २६ ॥
यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।
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प्रेम से भरकर एक पत्ता या   
एक फूल ही कोई चढ़ा दे।
कुछ नहीं तो जल ले आए 
या एक फल भोग लगा दे।।

प्रेम और भक्ति से भरा हर
चीज़ स्वीकार मैं कर लूँगा।
इससे रहित कोई भी वस्तु 
अपने पास नहीं मैं रखूँगा।।

अध्याय-9, श्लोक-25

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्‌ ॥ २५ ॥
जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे, जो पितरों को पूजते हैं, वे पितरों के पास जाते हैं, जो भूत-प्रेतों की उपासना करते हैं, वे उन्ही के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ निवास करते  हैं।
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जो पूजते हैं देवी-देवताओं को 
उनको देवलोक प्राप्त होता है।
पितरों की पूजा करनेवाला तो 
अंत में पितृलोक ही पाता है।।

जो करे भूत-प्रेत की उपासना 
वो उनके बीच ही जन्मता है।
परंतु जो ध्याता है मुझको वो 
मेरे साथ मेरे धाम में रहता है।।

अध्याय-9, श्लोक-24

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥ २४ ॥
मैं ही समस्त यज्ञों का एकमात्र भोक्ता तथा स्वामी हूँ। अतः जो लोग मेरे वास्तविक दिव्य स्वभाव को नहीं पहचान पाते, वे नीचे गिर जाते हैं।
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जितने भी यज्ञ किए जाते हैं 
मैं ही उन सबका भोक्ता हूँ।
मैं ही हूँ इस जगत का स्वामी 
मैं ही पालन-पोषण करता हूँ।।

जो लोग मेरे इस वास्तविक 
स्वभाव को नही जान पाते हैं।
कामनाओं जाल में फँसकर 
बारबार पुनर्जन्म को पाते हैं।।

अध्याय-9, श्लोक-23

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्‌ ॥ २३ ॥
हे कुंतीपुत्र! जो लोग अन्य देवताओं के भक्त हैं और उनकी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हैं, वास्तव में वे भी मेरी पूजा करते हैं, किंतु वे यह त्रुटिपूर्ण ढंग से करते हैं।
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हे कुंतीपुत्र! जो लोग अन्य  
देवी-देवताओं के भक्त हैं।
उनकी पूजा में ही लगे रहते 
श्रद्धा उनमें ही आसक्त है।।

पर वास्तव में ऐसे लोग भी 
मेरी ही पूजा किया करते हैं।
अज्ञानता के कारण वे रास्ता
त्रुटियों वाला पकड़ लेते हैं।।

अध्याय-9, श्लोक-22

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्‌ ॥ २२॥
किंतु जो लोग अनन्य भाव से मेरे दिव्य स्वरूप का ध्यान करते हुए निरंतर मेरी पूजा करते हैं, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ।
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हरपल जो करते मेरा चिंतन
अनन्य भाव से मुझे है भजते।
मैं ही लक्ष्य होता हूँ जिनका
जो निरंतर मुझे ही हैं पूजते।।

ऐसे लोगों के ज़िम्मेदारी को
मैं स्वयं अपने पर उठाता हूँ।
जो है उसकी रक्षा करता और
जो न हो उसे लाकर देता हूँ।।

Sunday, January 15, 2017

अध्याय-9, श्लोक-21

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना 
गतागतं कामकामा लभन्ते ॥ २१ ॥
इसप्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गीय इन्द्रिय भोग को भोग लेते हैं और उनके पुण्य कर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे इस मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं। इसतरह जो तीन वेदों के सिद्धांतों में दृढ़ रहकर इन्द्रिय सुख की गवेषना करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है।
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जीव विशाल स्वर्ग लोक पहुँच
वहाँ के सुखों का भोग करता है।
जैसे ही पुण्य समाप्त हो जाता  
वापस यहाँ आना ही पड़ता है।।

इसतरह जो वेदों के अनुसार चल 
बस इन्द्रिय सुख के लिए जीते हैं।
वे ऐसे ही प्रयास और प्राप्ति करते 
जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़े रहते हैं।।

अध्याय-9, श्लोक-20

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्‍वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्‌ ॥ २० ॥
जो वेदों का अध्ययन करते तथा सोमरस का पान करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्ति की गवेषना करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं। वे पापकर्मों से शुद्ध होकर, इंद्र के पवित्र स्वर्गिक धाम में जन्म लेते हैं, जहाँ देवताओं का सा आनंद भोगते हैं।
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तीनों वेदों के अनुसार जो भी 
यज्ञ द्वारा मेरी पूजा करते हैं।
पूजा से पवित्र हो सोम रस 
वाले स्वर्ग की प्रार्थना करते हैं।

ऐसे लोग फिर पुण्य प्राप्त कर 
स्वर्ग लोक तक पहुँच जाते हैं।
इंद्र के उस लोक में जाकर वे 
देवताओं के सारे सुख पाते हैं।।

अध्याय-9, श्लोक-19

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्‌णाम्युत्सृजामि च ।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥ १९ ॥
हे अर्जुन! मैं ही ताप प्रदान करता हूँ और वर्षा को रोकता तथा लाता हूँ। मैं अमरत्व हूँ और साक्षात मृत्यु भी हूँ। आत्मा तथा पदार्थ (सत् तथा असत्) दोनों मुझ ही में हैं।
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हे अर्जुन! मुझसे ही ताप मिले
मैं ही जगत में वर्षा भी लाता।
मैं ही सूरज की गर्मी और मैं ही
बूँदों की शीतलता बन जाता।।

कभी न नष्ट हो वो अमरत्व मैं
मैं ही हूँ सर्वहारी मृत्यु साक्षात।
मैं ही सत्य रूप में आत्मा होता
और सत्य रूप में मैं ही पदार्थ।।

Tuesday, January 10, 2017

अध्याय-9, श्लोक-18

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्‌ ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्‌ ॥ १८ ॥
मैं ही लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा अत्यंत प्रिय मित्र हूँ। मैं सृष्टि तथा प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अविनाशी बीज भी हूँ।
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मैं ही प्राप्त करने योग्य परम लक्ष्य 
मैं ही करता हूँ सबका भरण-पोषण।
मुझसे सी सब जीव हुए हैं उत्पन्न 
मैं ही हूँ सबका अविनाशी कारण।।

मैं ही स्वामी व अच्छे-बुरे का साक्षी 
मैं ही सबका गंतव्य परम धाम हूँ।
जहाँ ले सकते हैं सारे जीव शरण 
मैं ही एकमात्र वह परम विश्राम हूँ।।

अटूट प्रेम करनेवाल मित्र हूँ सबका 
मैं सृष्टि करता, मैं ही प्रलय करता।
मैं ही आधार जग व  जगवालों का
मैं ही इन सबको आश्रय हूँ  देता।।

अध्याय-9, श्लोक-17

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ॥ १७ ॥
मैं इस ब्रह्मांड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूँ। मैं ही ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्त्ता तथा ओंकार हूँ। मैं ही ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद हूँ।
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मैं ही हूँ पालनकर्त्ता पिता 
मैं ही  सबकी जननी माता।
मैं ही वो मूल स्रोत पितामह 
मैं ही हूँ सबका आश्रयदाता।।

मैं ही हूँ जानने योग्य जग में 
मैं ही शुद्धिकर्त्ता व ओंकार हूँ।
मैं ही हूँ ऋग्वेद और सामवेद 
मैं ही यजुर्वेद का आधार हूँ।।

अध्याय-9, श्लोक-16

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ ।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥ १६ ॥
किंतु मैं ही कर्मकांड, मैं ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला तर्पण, औषधि, दिव्य ध्वनि (मंत्र), घी, अग्नि तथा आहुति हूँ।
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मैं ही हूँ कर्मकांड 
मैं यज्ञ कहलाता हूँ।
मैं ही औषधि, मैं ही 
पितरों का तर्पण होता हूँ।।

मैं ही हूँ मंत्र भी 
मैं ही घृत भी हूँ।
मैं ही हूँ अग्नि 
मैं ही आहुति हूँ।।

Monday, January 9, 2017

अध्याय-9, श्लोक-15

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥ १५ ॥
अन्य लोग जो ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यज्ञ में लगे रहते हैं, वे भगवान की पूजा उनके अद्वय रूप में, विविध रूपों में तथा विश्व रूप में करते हैं।
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ज्ञान के अनुशीलन द्वारा कुछ  
लोग यज्ञ कार्य में लगे रहते हैं।
कुछ मुझे एक ही तत्त्व जानकर 
अद्वय रूप में मुझको पूजते हैं।।

अलग-अलग तत्त्व मानकर कुछ 
मनुष्य द्वैतभाव से मुझे भजते हैं।
अनेक विधियाँ हैं पूजा की कुछ   
मेरे विश्व रूप की पूजा करते हैं।।

Saturday, January 7, 2017

अध्याय-9, श्लोक-14

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥ १४ ॥
ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढ़संकल्प के साथ प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरंतर मेरी पूजा करते हैं।
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ऐसे महात्माजन दृढ़ता पूर्वक  
मेरी महिमा का गान करते हैं।
ऐसे ही चलता रहे ये गुणगान  
निरंतर इसी प्रयास में रहते हैं।।

सदा मेरी भक्ति में स्थित होते   
बारम्बार मुझे नमस्कार करते।
भक्ति भाव से भरा होता ह्रदय 
निरंतर मेरी पूजा में लगे रहते।।

अध्याय-9, श्लोक-13

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यम्‌ ॥ १३ ॥
हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान के रूप में जानते हैं।
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हे पार्थ! मोह से हैं मुक्त महात्मा 
वे सब मेरी शरण ग्रहण करते हैं।
भौतिक प्रकृति के कष्ट से दूर वे 
दैवी प्रकृति से संरक्षित रहते हैं।।

पूरी तरह मेरी भक्ति में निमग्न 
अनन्य भाव से मुझे ही भजते हैं।
मैं ही हूँ सभी जीवों का उद्ग़म 
ये सत्य भलीभाँति वे जानते हैं।।

अध्याय-9, श्लोक-12

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥ १२ ॥
जो लोग इसप्रकार मोहग्रस्त होते हैं , वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं। इस मोहग्रस्त अवस्था में उनकी मुक्ति-आशा, उनके सकाम कर्म तथा ज्ञान का अनुशीलन सभी निष्फल हो जाते हैं।
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इसप्रकार मोहित होनेवाले लोग
किसी भी क्षेत्र में सफल न होते।
मुक्ति का पथ हो या सकाम कर्म
या ज्ञान, हर जगह निष्फल होते।।

भौतिक प्रकृति की माया में फँस
उसके जाल में ही उलझे रहते हैं।
आसुरी व्यवहार, नास्तिक विचार 
यही सब उन्हें आकर्षित करते हैं।।