Wednesday, November 30, 2016

अध्याय-7, श्लोक-8

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥ ८ ॥
हे कुंतिपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चंद्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मंत्रों में ओंकार हूँ। आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ।
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हे कुंतिपुत्र! मैं ही हूँ 
स्वाद जल का।
मैं ही हूँ ध्वनि 
विस्तृत नभ का।।

सूरज और चाँद का
मैं ही हूँ प्रकाश।
मैं ही वो पुरुषार्थ 
जो है मनुष्यों के पास।।

अध्याय-7, श्लोक-7

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ ७ ॥
हे धनंजय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है।
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मुझपर आश्रित है जग सारा
मुझसे अलग कुछ भी नहीं।
सब कुछ है मुझसे ही उत्पन्न
जो भी दिखता है जहाँ कहीं।।

जैसे माला के मोतियों का
एकमात्र सहारा धागा होता।
वैसे ही इस जग में सब कुछ
मुझ पर ही बस टिका रहता।।

Tuesday, November 29, 2016

अध्याय-7, श्लोक-6

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ ६ ॥
सारे प्राणियों का उद्गगम इन दोनों शक्तियों में है। इस जगत में जो कुछ भी भौतिक तथा आध्यात्मिक है, उसकी उत्पत्ति तथा प्रलय मुझे ही जानो।
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ये जड़ और चेतन मेरी
जो दोनों प्रकृतियाँ हैं।
इन्होंने ही मिल सारे
जग का सृजन किया है।।

मैं ही होता कारण इस
जगत की उत्पत्ति का।
और मैं ही बनता कारण
इस जग के प्रलय का।।

अध्याय-7, श्लोक-5

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्‌ ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌ ॥ ५ ॥ 
हे महाबाहु अर्जुन! इनके अतिरिक्त मेरी एक अन्य परा शक्ति है जो उन जीवों से युक्त है, जो इस भौतिक अपरा प्रकृति के साधनों का विदोहन कर रहे हैं।
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हे अर्जुन! इसके सिवा 
एक और प्रकृति है मेरी।
परंतु वह जड़ नहीं है वरन
वो तो है चेतना से भरी।।

वह चेतन प्रकृति ही तो 
संसार का भोग करती है।
वही है  दिव्य  आत्मा जो 
सबके शरीर में रहती है।।

अध्याय-7, श्लोक-4

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्‍कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ ४ ॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार - ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपरा) प्रकृतियाँ हैं।
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पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और 
आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार।
ये ही हैं इस भौतिक सृष्टि के 
प्राकट्य के मूल आठ प्रकार।।

जड़ हैं ये आठों तत्त्व फिर भी 
कोई भी मुझसे अलग नहीं हैं।
ये भी मेरी ही प्रकृतियाँ है पर 
भौतिक है सब, दिव्य नहीं है।।

अध्याय-7, श्लोक-3

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥ ३ ॥
कई हज़ार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करनेवालों में से विरला ही कोई एक मुझे वास्तव में जान पाता है।
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हज़ारों मनुष्यों में से कोई 
एक कभी ऐसा होता है।
जो जीवन में अपने सिद्धि 
पाने का प्रयास करता है।।

ऐसे सिद्धि पाने वालों में से 
विरला ही कोई निकलता है।
जो मुझे वास्तविक रूप में 
सही-सही से जान पाता है।।

अध्याय-7, श्लोक-2

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥ २ ॥
अब मैं तुमसे पूर्णरूप से व्यावहारिक तथा दिव्य ज्ञान कहूँगा। इस जान लेने पर तुम्हें जानने के लिए और कुछ भी शेष नहीं रहेगा।
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अब मैं तुम्हें जो ज्ञान बताऊँगा 
वह पूरी तरह से व्यावहारिक है।
यह सिर्फ़ पुस्तक का ज्ञान नहीं 
यह तो अनुभव पर आधारित है।।

इस ज्ञान को तुम जीवन में अपने
अगर पूरी तरह से जो उतार लो।
फिर कुछ शेष नहीं इस जग में
जिसे जानने का तुम प्रयास करो।।

अध्याय-7, श्लोक-1

श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥ १ ॥
श्रीभगवान ने कहा-हे पृथापुत्र! अब सुनो कि तुम किस तरह मेरी भावना से पूर्ण होकर और मन को मुझमें आसक्त करके योगाभ्यास करते हुए मुझे पूर्णतया संशयरहित जान सकते हो।
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भगवान ने कहा कि हे पृथापुत्र 
अब सुनो उस योग के विषय में।
जिस योग का अभ्यास कर तुम 
फिर रहोगे न किसी संशय में।।

मुझमें मन अपना लगाकर तुम 
जब उस योग पथ पर चलोगे।
मेरी शरण को अपनाकर तुम 
मुझे पूरी तरह से जान सकोगे।।

Monday, November 28, 2016

अध्याय-6, श्लोक-47

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥ ४७ ॥
और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यंत श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अंतःकरण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अंतरंग रूप से युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है। यही मेरा मत है।
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सभी प्रकार के योगियों में जो 
मुझमें पूरी तरह श्रद्धा रखता है।
मुझ पर ही आश्रित रहता और 
सदा मेरा ही चिंतन करता है।।

मुझसे प्रेम और मेरी भक्ति में ही 
जिसका सारा जीवन बितता है।
मेरी दृष्टि में ऐसा योगी ही सारे 
योगियों में परम योगी होता है।।

******ध्यानयोग नाम का छठा अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-6, श्लोक-46

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ ४६ ॥
योगी पुरुष तपस्वी से, ज्ञानी से तथा सकामकर्मी से बढ़कर होता है। अतः हे अर्जुन! तुम सभी प्रकार से योगी बनो।
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योग के पथ पर चलने वाला 
तपस्वियों से बेहतर है होता।
शास्त्र ज्ञान में लगा जो ज्ञानी 
वह भी योगी से पीछे ही होता।।

सकाम कर्म में फँसे मनुष्य तो 
योगी से श्रेष्ठ हो ही नहीं सकते।
इसलिए हे अर्जुन! तुम भी इस  
योग के पथ पर क्यूँ नहीं चलते।।

अध्याय-6, श्लोक-45

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌ ॥ ४५ ॥
और जब योगी समस्त कल्मष से शुद्ध होकर सच्ची निष्ठा से आगे प्रगति करने का प्रयास करता है, तो अंततोगत्वा अनेकानेक जन्मों के अभ्यास के पश्चात सिद्धि-लाभ करके वह परम गंतव्य को प्राप्त करता है।
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व्यर्थ नहीं जाता कभी भी उसके 
अनेकों जन्मों का किया अभ्यास।
और पाप कर्मों से शुद्ध कर देता 
इस जन्म में किया गया प्रयास।।

अभ्यास और प्रयास से वह योगी 
अंततः परम सिद्धि पा ही जाता है।
पथ उसका आख़िरकार उसे फिर 
गंतव्य तक अवश्य ही पहुँचाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-44

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ ४४ ॥
अपने पूर्व जन्म की दैवी चेतना से वह न चाहते हुए भी स्वतः योग के नियमों की ओर आकर्षित होता है। ऐसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों के अनुष्ठानों से परे स्थित होता है।
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पुराने सत्कर्मों का असर उसके 
इस जन्म में भी दिख जाता है।
सहज स्वभाविक रूप से ही वह 
योग की तरफ़ आकृष्ट होता है।।

विभिन्न प्रकार के अनुष्ठानों से 
ऐसा जिज्ञासु बँध नहीं पाता है।
शास्रों के दायरे से आगे निकल 
वह तो योग में स्थित हो जाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-43

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌ ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥ ४३ ॥
हे कुरूनंदन ! ऐसा जन्म पाकर वह अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना को पुनः प्राप्त करता है और पूर्ण सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से वह आगे उन्नति करने का प्रयास करता है।
************************************
हे कुरूनंदन! जब वह संस्कारी 
कुल में जन्म लेकर जब आता है।
तो उसके पूर्वजन्म का संस्कार 
उसे फिर से प्राप्त हो जाता है।।

पिछले संस्कारों के प्रभाव और 
इस जन्म में सुसंगति जब पाता।
अधूरे रहे गये लक्ष्य को पाने का
फिर से इसबार प्रयास है करता।।

अध्याय-6, श्लोक-42

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌ ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌ ॥ ४२ ॥
अथवा (अगर दीर्घकाल तक योग करने के बाद असफल रहे तो) वह ऐसे योगियों के कुल में जन्म लेता है जो अति बुद्धिमान हैं। निश्चय ही इस संसार में ऐसा जन्म दुर्लभ है।
********************************
अगर उस योगी ने अपना पथ 
बहुत आगे तक तय किया था।
लक्ष्य प्राप्त करने से बस कुछ 
पहले ही उसने पथ बदला था।।

तो ऐसा मनुष्य विद्वान योगियों 
के उच्च कुल में जन्म पाता  है।
लेकिन ऐसा जन्म इस संसार में 
निस्सन्देह बहुत दुर्लभ होता है।।

अध्याय-6, श्लोक-41

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ ४१ ॥
असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या धनवानों के कुल में जन्म लेता है।
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असफल योगी पहले उत्तम लोक 
में जा उन इच्छाओं को भोगता है।
जिन इच्छाओं के पीछे पड़कर ही  
वह योगपथ से च्यूत हुआ होता है।।

अनेकों वर्षों के भोग के बाद उसे 
फिर से एक अवसर दिया जाता है।
किसी सम्पन्न परिवार में या किसी 
सदाचारी के घर वह जन्म पाता है।।

Sunday, November 27, 2016

अध्याय-6, श्लोक-40

श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥ ४० ॥
भगवान ने कहा-हे पृथापुत्र! कल्याण-कार्यों में निरत योगी का न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है। हे मित्र! भलाई करनेवाला कभी बुराई से पराजित नहीं होता।
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भगवान ने कहा कि असफल योगी
का पूर्व कर्म कभी बेकार न होता।
न ही इस जन्म में,न अगले जन्म में
कभी भी उसका विनाश न होता।।

हे पार्थ! कल्याण-कार्य में था कल
और आज अगर पथ से भटक गया।
फिर भी उसका कल्याण होगा मित्र
क्या हुआ आधे रास्ते वह रह गया।।

अध्याय-6, श्लोक-39

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥ ३९ ॥
हे कृष्ण! यही मेरा संदेह है और मैं आपसे पूर्णतया दूर करने की प्रार्थना कर रहा हूँ। आपके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो इस संदेह को नष्ट कर सके।
********************************
हे कृष्ण! यही मेरी संदेह है
जिससे मैं भ्रमित हो रहा हूँ।
इसे दूर करने की कृपा करें
आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ।।

आपके सिवा कोई और नहीं
जो मुझे सह-सही बता सके।
अपने ज्ञान से मेरे संशयों को
सदा के लिए ही मिटा सके।।

अध्याय-6, श्लोक-38

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ ३८ ॥
हे महाबाहु कृष्ण! क्या ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग से भ्रष्ट व्यक्ति आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही सफलताओं से च्यूत नहीं होता और छिन्नभिन्न बादल की भाँति विनष्ट नहीं हो जाता जिसके फलस्वरूप उसके लिए किसी लोक में कोई स्थान नहीं रहता?
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हे कृष्ण! परमात्मा- प्राप्ति के 
मार्ग से जो बीच में ही भटका।
वह न सांसारिक भोग ही पाया 
न ही आपको प्राप्त कर सका।।

ऐसे मार्ग से विचलित मनुष्य को
प्रभु कौन-सा स्थान मिल पाता है?
क्या छिन्नभिन्न बादल की भाँति 
वह दोनों ओर से नष्ट हो जाता है?

अध्याय-6, श्लोक-37

अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ ३७ ॥
अर्जुन ने कहा- हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म-साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है, किंतु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है और योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता?
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अर्जुन ने कहा भगवान से कि 
कुछ लोग प्रभु ऐसे भी होते हैं।
शुरुआत करते श्रद्धापूर्वक पर 
बाद में पथ से भटक जाते हैं।।

मार्ग से भटके योगी जीवन में 
आख़िर किस गति को पाते हैं?
आत्म-साक्षात्कार से भटक कर 
किस पथ और लक्ष्य वे जाते हैं?

अध्याय-6, श्लोक-36

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ ३६ ॥
जिसका मन उच्छृंखल है उसके लिए आत्म-साक्षात्कार कठिन कार्य होता है, किंतु जिसका मन संयमित है और जो समुचित उपाय करता है उसकी सफलता ध्रुव है। ऐसा मेरा मत है।
***************************************
जो मनुष्य अपने मन को 
वश में नहीं कर पाता है।
वह आत्म-साक्षात्कार से 
फिर वंचित रह जाता है।।

लेकिन जो मन को वश में 
करने का प्रयास करता है।
मेरे विचार से परमात्मा को 
वह मनुष्य सहज पाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-35

श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ ३५ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-हे महाबाहु कुंतीपुत्र! निस्सन्देह चंचल मन को वश में करना अत्यंत कठिन है, किंतु उपयुक्त अभ्यास तथा विरक्ति द्वारा यह सम्भव है।
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श्री कृष्ण भगवान ने कहा कि 
कुंतिपुत्र सत्य है तुम्हारा संशय।
इतना आसान भी नहीं है होता 
इस चंचल मन पे पाना विजय।।

कठिन है यह काम निश्चित ही  
पर इसका भी हल है मेरे पास।
जग की इच्छाओं को त्यागकर 
और निरंतर हो इसका अभ्यास।।

अध्याय-6, श्लोक-34

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌ ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ॥ ३४ ॥
हे कृष्ण! चूँकि मेरा मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यंत बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है।
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हे कृष्ण! मन मेरा बड़ा चंचल
एक तो है हठी उसपे बलवान।
यहाँ-वहाँ भागता रहता है सदा
उच्छृंखल मनमौजी के समान।।

कैसे वश में करूँ ऐसे मन को
जो वायु से अधिक वेगवान है।
मन और वायु दोनों में वायु को
वश में करना थोड़ा आसान है।।

Thursday, November 24, 2016

अध्याय-6, श्लोक-33

अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ॥ ३३ ॥
अर्जुन ने कहा-हे मधुसूदन! आपने जिस योगपद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है वह मेरे लिए अव्यवहारिक तथा असहनीय है, क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है।
*************************************
अर्जुन बोले मधुसूदन से कि मुझे
जिस योग को आपने समझाया।
संयम और समभाव का जो  मार्ग
आपने अभी है मुझको बतलाया।।

मेरे लिए तो उस मार्ग पर चलना
प्रभु मुझे सम्भव-सा नहीं लगता है।
क्योंकि मेरा चंचल मन कभी भी
अधिक समय स्थिर नहीं रहता है।।

अध्याय-6, श्लोक-32

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ ३२ ॥
हे अर्जुन! वह पूर्णयोगी है जो अपनी तुलना से समस्त प्राणियों को उनके सुखों तथा दुखों में वास्तविक समानता का दर्शन करता है।
**************************************
हे अर्जुन! जो मनुष्य दूसरों की
भावनाओं को भी समझता है।
सबकी पीड़ा और सबके दुःख
जिसे अपने समान ही लगता है।।

समस्त प्राणियों के सुख-दुःख
जिसके लिए होता एक समान।
यही सब गुण ही कराते हैं उसके
एक पूर्ण योगी होने की पहचान।।

Wednesday, November 23, 2016

अध्याय-6, श्लोक-31

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ ३१ ॥
जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए परमात्मा की भक्तिपूर्वक सेवा करता है, वह हर प्रकार से मुझमें स्थित रहता है।
************************************
योग में स्थित मनुष्य सबको
मुझसे ही संबंधित देखता है।
समस्त प्राणियों के हृदय में 
वह मेरा ही दर्शन करता है।।

भक्ति भाव में स्थित हो जो 
वो सदा मुझको ही भजता है। 
वह योगी तो सभी प्रकार से
सदैव मुझमें स्थित रहता है।।

Tuesday, November 22, 2016

अध्याय-6, श्लोक-30

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ३० ॥
जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है।
*******************************
जो मनुष्य हर जगह ही 
मुझको  देख पाता है।
हर चीज़ को मुझमें ही 
समाहित जो देखता है।

उसकी आँखों से कभी भी 
मैं ओझल नहीं हूँ होता।
न ही वह व्यक्ति भी कभी 
मेरी दृष्टि से दूर है जाता।।

अध्याय-6, श्लोक-29

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ २९ ॥
वास्तविक योगी समस्त जीवों में मुझको तथा मुझमें समस्त जीवों को देखता है। निस्सन्देह स्वरूपसिद्ध व्यक्ति मुझ परमेश्वर को सर्वत्र देखता है।
********************************
योग में पूरी तरह स्थित मनुष्य की 
देखने की प्रकृति ही बदल जाती है।
उसकी दृष्टि सबमें में परमात्मा और 
परमात्मा में सबके दर्शन कराती है।।

यही होती है पहचान उस योगी की 
जिसने आत्म तत्त्व को जान लिया है।
संसार के सभी  प्राणियों में जिसने 
एक ही परमात्मा का दर्शन किया है।।

अध्याय-6, श्लोक-28

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ २८ ॥
इस प्रकार योगाभ्यास में निरंतर लगा रहकर आत्मसंयमी योगी समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है और भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में परम सुख प्राप्त करता है।
**********************************
इस तरह जो योगी सदा ही 
योगाभ्यास में लगा रहता है।
मन, इंद्रियों को वश में कर 
वह आत्मसंयमी हो जाता है।।

भौतिक क्लेशों से मुक्त होकर 
परमात्मा से संबंध वो बनाता है।
इस संबंध के बाद दिव्य प्रेम 
स्वरूप परम आनंद को पाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-27

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ॥ २७ ॥
जिस योगी का मन मुझमें स्थिर रहता है, वह निश्चय ही दिव्यसुख की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करता है। वह रजोगुण से परे हो जाता है, वह परमात्मा के साथ अपनी गुणात्मक एकता को समझता है और इस प्रकार अपने समस्त विगत कर्मों के फल से निवृत्त हो जाता है।
***************************************
स्थित हो जाता परमात्मा में 
जब मनुष्य का चंचल मन।
कामनाएँ हो जाती है शांत 
जो होती रजोगुण से उत्पन्न।।

पिछले सारे पाप कर्मों से वह 
पूरी तरह मुक्त हो जाता है।
ऐसे योगी तो जीवन में अपने  
परम-आनंद अवश्य पाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-26

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ॥ २६ ॥
मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए।
*******************************
मन का स्वभाव ही ऐसा है क़ि 
वह अक्सर यहाँ-वहाँ भागता है।
चंचलता उसमें सहज ही होती 
वह कभी स्थिर नहीं रह पाता है।।

पर मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह 
भागते मन को खींच कर लाए।
यहाँ-वहाँ भटकने के बदले उसे 
अपनी आत्मा में ही स्थिर कराए।।

Monday, November 21, 2016

अध्याय-6, श्लोक-25

शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ॥ २५ ॥
धीरे-धीरे, क्रमशः पूर्ण विश्वासपूर्वक बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए और इसप्रकार मन को आत्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए।
***********************************
मनुष्य को चाहिए कि धीरे-धीरे 
चलते हुए बुद्धि द्वारा अभ्यास करे।
अभ्यास इतना दृढ़ हो उसका कि  
मन सिर्फ़ आत्मा का ही ध्यान धरे।।

समाधि की इस अवस्था में आकर 
जग का कोई भी चिंतन शेष न रहे। 
चिंतन हो तो बस परमात्मा का अब 
वस्तुओं के चिंतन में मन और न बहे।।

अध्याय-6, श्लोक-24

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।
सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ २४ ॥ 
मनुष्य को चाहिए कि संकल्प तथा श्रद्धा के साथ योगाभ्यास में लगे और पथ से विचलित न हो। उसे चाहिए क़ि मनोधर्म से उत्पन्न समस्त इच्छाओं को निरपवाद रूप से त्याग दे और इस प्रकार मन के द्वारा सभी ओर से इंद्रियों को वश में करें।
***************************************
मनुष्य को दृढ़ विश्वास के साथ 
योग का अभ्यास करना चाहिए।
संसार से मिलने वाले दुखों से 
उसे विचलित नहीं होना चाहिए।।

मन में उठनेवाली सभी सांसारिक 
इच्छाओं को पूरी तरह त्याग करे।
योगी का कर्त्तव्य है कि वह अपने 
मन द्वारा इंद्रियों को वश में रखे।।

अध्याय-6, श्लोक-20-23

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ २०॥
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌ ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ २१॥
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ २२॥
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्॥ २३॥
सिद्धि की अवस्था में जिसे समाधि कहते हैं, मनुष्य का मन योगाभ्यास के द्वारा भौतिक मानसिक क्रियाओं से पूर्णतया संयमित हो जाता है। इस सिद्धि की विशेषता यह है कि मनुष्य शुद्ध मन से अपने को देख सकता है और अपने आपसे आनंद उठा सकता है। उस आनंदमयी स्थिति में वह दिव्य इंद्रियों द्वारा असीम दिव्यसुख में स्थित रहता है। इसप्रकार स्थापित मनुष्य कभी सत्य से विपथ नहीं होता और इस सुख की प्राप्ति हो जाने पर वह इससे बड़ा कोई दूसरा लाभ नहीं मानता। ऐसी स्थित को पाकर मनुष्य बड़ी से बड़ी कठिनाई से भी विचलित नहीं होता। यह निस्सन्देह भौतिक संसर्ग से उत्पन्न होने वाले समस्त दुखों से वास्तविक मुक्ति है।
********************************************
योग का अभ्यास करते-करते
जीवन में एक अवस्था आती है।
मन की गतिविधियाँ रूक जाती
वह अवस्था समाधि कहलाती है।।

जहाँ पहुँचकर मनुष्य आत्मा में
परमात्मा को देखने लगता है।
परमात्मा को जान लेने के बाद
वह स्वयं से पूर्ण संतुष्ट रहता है।।

इस शुद्ध चेतना में की स्थिति में
यह भली-भाँति जाना जाता है।
कि आनंद तो आत्मा का विषय
जो इस शरीर के अलग होता है।।

परम तत्त्व परमात्मा में स्थित वह
योगी कभी विचलित नहीं होता।
अंतर में ही इतना सुख है पाता कि
बाहरी सुख उसे लुभा नही पाता।।

भौतिक सुख का भ्रम जान गया
वह अब कभी सत्य से नहीं डिगता।
परमात्मा प्राप्ति के सुख के बढ़कर
अधिक लाभ कुछ नहीं वो मानता।

सिद्धि की इस अवस्था में आकर
वह पूरी तहा संयमित हो जाता है।
जीवन का कोई भी झंझवात उसे
कभी विचलित नही कर पाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-19

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ १९ ॥
जिसप्रकार वायुरहित स्थान में दीपक हिलता-डुलता नहीं, उसी तरह जिस योगी का मन वश में होता है, वह आत्मतत्त्व के ध्यान में सदैव स्थिर रहता है।
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हवा नहीं होती जिस जगह वहाँ  
दीपक हिलता-डुलता नहीं जैसे।
योग में ही स्थित रहता जो योगी 
उसका मन भी स्थिर होता है वैसे।।

दीपक की लौ कभी इधर-उधर 
नहीं हो सकती जैसे बिन हवा के।
योगी का मन भी स्थिर हो जाता 
आत्मा में बसे परमात्मा पर जाके।।

Sunday, November 20, 2016

अध्याय-6, श्लोक-18

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ १८ ॥
जब योगी योगाभ्यास द्वारा अपने मानसिक कार्यकलापों को वश में कर लेता है और अभ्यास में स्थित हो जाता है अर्थात समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हो जाता है, तब वह योग में सुस्थिर कहा जाता है।
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अपने योग के अभ्यास के द्वारा 
योगी मन को वश में कर लेता है।
जगत के भटकन से निकाल मन  
परमात्मा की ओर मोड़ देता है।।

जब संसार की सारी इच्छाओं से 
वह पूरी तरह मुक्त हो जाता है।
तब उसका अभ्यास सफल होता 
वह योग में सुस्थिर  कहलाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-17

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ १७ ॥
जो खाने-सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है।
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खाने, पीने, सोने हर काम में 
जो सदा ही नियमित रहता है।
आमोद-प्रमोद हो या कर्त्तव्य 
हर कार्य ही नियम से करता है।।

ऐसा अनुशासित व्यक्ति ही तो  
योग का अभ्यास कर पाता है।
योगाभ्यास द्वारा वह अपने सारे 
क्लेशों को दूर कर सकता है।।

अध्याय-6, श्लोक-16

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ १६ ॥
हे अर्जुन! जो अधिक खाता है या बहुत कम खाता है, जो अधिक सोता है अथवा जो पर्याप्त नहीं सोता उसके योगी बनने की सम्भावना नहीं है।
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हे अर्जुन! योगी बनने के लिए तो 
ज़रूरी है जीवन में संतुलित होना।
बहुत अधिक भोजन भी ठीक नहीं 
न ही ठीक ज़रूरत से कम खाना।।

मुश्किल है  योग उसके लिए जो 
आवश्यकता से अधिक सोता है।
और जो ज़रूरत की नींद भी न ले 
वह भी योगी नहीं बन सकता है।।

Saturday, November 19, 2016

अध्याय-6, श्लोक-15

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ १५ ॥
इसप्रकार शरीर, मन तथा कर्म में निरंतर संयम का अभ्यास करते हुए संयमित मन वाले योगी को इस भौतिक अस्तित्व की समाप्ति पर भगवद्धाम की प्राप्ति होती है।
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इसप्रकार शरीर से अपने जो 
निरंतर अभ्यास करता रहता।
मन को अपने हमेशा ही वह 
परमात्मा में ही स्थिर रखता।।

परम शांति को प्राप्त कर चुका 
ऐसा संयमित योगी जो होता।
सांसारिक बंधन से मुक्त होकर  
वह भगवद्धाम अवश्य ही जाता।।

अध्याय-6, श्लोक-13-14

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌ ॥ १३ ॥
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ १४ ॥
योगाभ्यास करनेवाले को चाहिए कि वह अपने शरीर, गर्दन तथा सिर को सीधा रखे और नाक के अगले सिरे पर दृष्टि लगाए। इसप्रकार वह अविचलित तथा दमित मन से, भयरहित, विषयीजीवन से पूर्णतया मुक्त होकर अपने हृदय में मेरा चिंतन करे और मुझे ही अपना चरमलक्ष्य बताए।
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योगाभ्यास के लिए आवश्यक 
कि योग्गी की मुद्रा संतुलित हो।
शरीर, गर्दन व सिर सीधा रखे 
और दृष्टि नाक के सिरे पर हो।।

यहाँ-वहाँ भटके न ध्यान उसका 
मन भी भय से सर्वथा मुक्त हो।
इन्द्रियविषयों के विचलन से दूर 
जीवन उसका ब्रह्मचर्य युक्त हो।।

मन को भली-भाँति शांत करके 
मुझे ही वो अपना लक्ष्य बनाये।
सारे मोह-ममता के बंधन छोड़ 
एकमात्र मेरे आश्रय में वो आये।।

मन को मुझ पर स्थित करके वो 
बस मुझ पर अपना ध्यान धरे ।
फिर अपने हृदय में हरपल वह 
सिर्फ़ मेरा ही चिंतन-मनन करे।।

अध्याय-6, श्लोक-11-12

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌ ॥ ११ ॥
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ १२ ॥
योगाभ्यास के लिए योगी एकांत स्थान में जाकर भूमि पर कुशा बिछा दे और फिर उसे मृगछाला से ढके तथा ऊपर से मुलायम वस्त्र बिछा दे। आसन न तो बहुत ऊँचा हो, न ही बहुत नीचा। यह पवित्र स्थान में स्थित हो। योगी को चाहिए कि इसपर दृढ़तापूर्वक बैठ जाए और मन, इंद्रियों तथा कर्मों को वश में करते हुए तथा मन को एक बिंदु पर स्थिर करके हृदय को शुद्ध करने के लिए योगाभ्यास करे।
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योगाभ्यास के लिए ज़रूरी है  
विशेष बातों का ध्यान रखना।
और सबसे पहले आवश्यक है 
योगी का एकांत स्थान ढूँढना।।

यह स्थान अगर पवित्र हो तो 
वहाँ वह कुशा से आसन बनाए।
मृगछाला व मुलायम वस्त्र को 
वह आसन के ऊपर बिछाए।।

ध्यान रहे कि आसन अपना वो 
बहुत ऊँचा या नीचा न लगाए।
जब आसन उपयुक्त तैयार हो 
तो दृढ़तापूर्वक उस पर बैठ जाए ।।

अपने मन, इंद्रियों और कर्मों की 
सारी क्रियाओं को वश में रखे।
मन को एक बिंदु पर स्थिर कर 
हृदय - शुद्धि हेतु योगाभ्यास करे।।

अध्याय-6, श्लोक-10

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ १० ॥
योगी को चाहिए कि वह सदैव अपने शरीर, मन तथा आत्मा को परमेश्वर में लगाए, एकांत स्थान में रहे और बड़ी सावधानी के साथ अपने मन को वश में करे। उसे समस्त आकांक्षाओं तथा संग्रहभाव की इच्छाओं से मुक्त होना चाहिए।
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योगी तो तन, मन और आत्मा से 
सदा परमेश्वर में ही ध्यान लगाए ।
एकांत में रहकर मन को यूँ साधे 
कि मन वही करे जो वो बताए।।

कुछ भी पाने की लालसा न हो 
जग का आकर्षण लुभा न पाए।
किसी वस्तु को संग्रह करने की 
इच्छा भी उसके मन में न आए।।

अध्याय-6, श्लोक-9

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ ९ ॥
जब मनुष्य निष्कपट हितैषियों, प्रिय मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईर्ष्यालुओं, शत्रुओं तथा मित्रों, पुण्यात्माओं एवं पापियों को समान भाव से देखता है, तो वह और भी उन्नत माना जाता है।
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कोई हित चाहे या अहित करे 
मित्रता करे या निभाये शत्रुता।
ईर्ष्या करे कोई तो भी उसके  
स्वभाव में अंतर नहीं पड़ता।।

सबके लिए एक समान भाव 
कभी किसी से वैर नहीं करता।
चाहे कोई तटस्थ हो या फिर 
कोई कर रहा हो मध्यस्थता।।

पापी, पुण्यात्मा सबको ही वो 
एक समान दृष्टि से ही देखता।
ऐसा निर्मल भाव वाला व्यक्ति 
जीवन में बहुत आगे बढ़ा होता।।

अध्याय-6, श्लोक-8

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥ ८ ॥
वह व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त तथा योगी कहलाता है जो अपने अर्जित ज्ञान तथा अनुभूति से पूर्णतया संतुष्ट रहता है। ऐसा व्यक्ति अध्यात्म को प्राप्त तथा जितेंद्रिय कहलाता है। वह सभी वस्तुओं को - चाहे वे कंकड़ हों, पत्थर हो या कि सोना एकसमान देखता है।
**************************************
जिसे परम तत्त्व का ज्ञान हुआ 
और अनुभव से भी जान लिया।
वही योगी कहलाता है जिसने 
चित्त को है अपने स्थिर किया।।

इंद्रियों को अपने वश में रखता 
प्रभु को पाकर संतुष्ट वो रहता है।
कंकड़ हो, पत्थर हो या हो सोना 
उसे सब एक समान ही लगता है।।

अध्याय-6, श्लोक-7

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥ ७ ॥
जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है क्योंकि उसने शांति प्राप्त कर ली है। ऐसे पुरुष के लिए सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी एवं मान-अपमान एक ही है।
*******************************
मन को जिसने जीत लिया है 
उसने प्रभु को प्राप्त किया है।
प्रभु को पा लेने का मतलब है 
परम शांति को पा लिया है ।।

फिर तो वह व्यक्ति के जग के 
सुख-दुःख से ऊपर उठ जाता।
सर्दी-गर्मी हो या मान -अपमान 
सब उसके लिए एक ही होता।।

अध्याय-6, श्लोक-6

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌ ॥ ६ ॥
जिसने मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है, किंतु जो ऐसा नहीं कर पाया उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा।
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मन को अपने वश में रखकर 
जिसने उसको जीत लिया है।
उसके लिए तो मन से बेहतर 
जग में न कोई मित्र हुआ है।।

लेकिन जो मन से हार गया 
जिसे मन ने हैं वश में किया।
उसके लिए तो मन से बढ़कर 
जग में नहीं कोई शत्रु हुआ।।

Friday, November 18, 2016

अध्याय-6, श्लोक-5

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ ५ ॥
मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे गिरने न दे। यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी।
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मनुष्य को चाहिए मन के द्वारा
अपने उद्धार का वो प्रयास करे।
इस जन्म-मृत्यु के बंधन को काटे  
निम्न योनियों में और वो न गिरे।।

इस संसार में फँसे जीवों के लिए
अनुकूल मन होता उसका मित्र है।
और वही मन बन जाता है शत्रु
जब होती स्थितियाँ  विपरीत है।।

Thursday, November 17, 2016

अध्याय-6, श्लोक-4

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥ ४ ॥
जब कोई पुरुष समस्त भौतिक इच्छाओं का त्याग करके न तो इन्द्रियतृप्ति के लिए कार्य करता है और न सकामकर्मों में प्रवृत्त होता है तो वह योगारूढ़ कहलाता है।
************************************
जब मन में सांसारिक सुख की 
कोई इच्छा शेष नहीं रहती है।
इंद्रियाँ विषयों के पीछे -पीछे 
तृप्ति के लिए नहीं भटकती हैं।।

न फल की कोई कामना होती 
न सुख के लिए कार्य करता है।
ऐसी स्थिति में पहुँचकर पुरुष 
योग में स्थित हुआ कहलाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-3

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ ३ ॥
अष्टांगयोग के नवसाधक के लिए कर्म साधन कहलाता है और योगसिद्ध पुरुष के लिए समस्त भौतिक कार्यकलापों का परित्याग ही साधन कहलाता है।
***********************************
मन को वश में करने के लिए 
कोई अष्टांगयोग शुरू करता है।
योग प्राप्ति के लिए कर्म करना 
यही उसके लिए साधन होता है।।

जो इस पथ पर आगे बढ़े हुए हैं 
जिनके नियंत्रण में उनका मन है।
उन सिद्ध योगियों के लिए फिर  
भौतिक कर्मों का त्याग साधन है।।

अध्याय-6, श्लोक-2

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ॥ २ ॥
हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं उसे ही तुम योग अर्थात परब्रह्म से युक्त होना जानो क्योंकि इन्द्रियतृप्ति की इच्छा को त्यागे बिना कोई कभी योगी नहीं हो सकता।
**********************************
हे पाण्डुपुत्र ! संन्यास और योग 
दोनों एक-दूसरे से भिन्न नहीं है।
परब्रह्म से मिलानेवाला योग हो  
या हो संन्यास, दोनों एक ही है।।

क्योंकि जब तक इन्द्रिय-सुख की 
कामना का त्याग नहीं कर लेता।
तब तक कोई भी मनुष्य कभी भी 
परमात्मा को पा नहीं है  सकता।।

अध्याय-6, श्लोक-1

श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥ १ ॥
श्रीभगवान ने कहा- जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है और जो अपने कर्त्तव्य का पालन करता है, वही संन्यासी और असली योगी है। वह नहीं, जो न तो अग्नि जलाता है और न ही कर्म करता है।
*****************************************
श्रीभगवान योगी व संन्यासी का 
वास्तविक अर्थ यहाँ बताते हैं।
फल की इच्छा बिना कर्म करे 
वही संन्यासी, योगी कहलाते हैं।।

अग्नि का त्याग कर देने भर से 
कोई संन्यासी नहीं बन जाता है।
कर्मों से मुख मोड़ लेने मात्र से 
कोई भी योगी नहीं कहलाता है।।

Wednesday, November 16, 2016

अध्याय-5, श्लोक-29

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ २९ ॥
मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावमृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शांति लाभ करता है।
******************************************
सारे यज्ञों और तपस्याओं का 
मुझे परम भोक्ता जो जानता है। 
सभी लोकों और देवताओं, इन  
सबका मुझे स्वामी मानता है।।

पता है जिसे मेरी प्रकृति का कि 
मैं सबका ही सदा हितैषी रहता।
मेरी दयालुता को समझनेवाला  
परम शांति अवश्य प्राप्त करता।।

******कर्मयोग-कृष्णभावनाभावित कर्म नाम का पाँचवा अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-5, श्लोक-27-28

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ २७ ॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ २८ ॥
समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौहों के मध्य केंद्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इंद्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है। जो निरंतर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है।
*************************************
इन्द्रियविषयों का चिंतन 
बाहर ही त्यागकर।
दृष्टि को भौहों के
मध्य में केंद्रित कर।।

प्राण - अपान वायु को 
नथुनों के भीतर रोककर।
इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि 
तीनों अपने वश में कर।।

चलता है जीवन में बस
मोक्ष को लक्ष्य बनाकर।
वह होता योगी इच्छा 
भय और क्रोध त्यागकर।।

जो जीता है निरंतर 
इसी अवस्था में रहकर।
वो तो होता है मुक्त 
इसी संसार में ही होकर।।

अध्याय-5, श्लोक-26

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌ ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌ ॥ २६ ॥
जो क्रोध तथा समस्त इच्छाओं से रहित है, जो स्वरूपसिद्ध, आत्मसंयमी हैं और संसिद्धि के लिए निरंतर प्रयास करते हैं उनकी मुक्ति निकट भविष्य में सुनिश्चित है।
************************************
भौतिक इच्छाओं का मोह नहीं 
क्रोध से भी पूरी तरह मुक्त है।
आत्म-ज्ञान प्राप्त कर चुका है  
जो आत्म-संयम से भी युक्त है।

ऐसा स्वरूप सिद्ध व्यक्ति ही  
जीवन में परम शांति पाता है।
जब भी जाता इस जग से वो 
परमात्मा के पास ही जाता है।।

अध्याय-5, श्लोक-25

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥ २५ ॥
जो लोग संशय से उत्पन्न होनेवाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म-साक्षात्कार में रत है, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं।
**************************************
जग के सारे जंजालों से परे हैं जो 
सारी दुविधाएँ मिट चुकी जिनकी।
पाप का लेश मात्र भी नहीं होता 
आत्म-ज्ञान में रत है बुद्धि उनकी।।

प्राणियों के कल्याण के लिए ही  
जिनके समस्त कार्य हुआ करते हैं।
ऐसे ब्रह्म ज्ञानी मनुष्य एकदिन 
अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-24

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ २४ ॥
जो अंतःकरण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अंतःकरण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अंतर्मुखी होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है। वह परब्रह्म में मुक्ति पाता है और अंततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है।
***************************************
जो अपने अंतर में आनंद पाता  
आत्मा में ही ज्ञान प्राप्त करता।
मन को स्थिर कर आत्मा में जो  
हर पल सुख का अनुभव करता।।

वही मनुष्य वास्तव में योगी है 
और परब्रह्म में मुक्ति पाता है।
स्वरूपसिद्ध वह मानव निश्चित 
फिर परब्रह्म को प्राप्त होता है।।

Tuesday, November 15, 2016

अध्याय-5, श्लोक-23

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्‌ ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥ २३ ॥
यदि इस शरीर को त्यागने के पूर्व कोई मनुष्य इंद्रियों के वेगों को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होता है, तो वह संसार में सुखी रह सकता है।
******************************************
शरीर का अंत हो इससे पहले 
संयमित रहना सीख लिया है।
काम-क्रोध के वगों को जिसने 
पूरी तरह अपने वश में किया है।।

ऐसा व्यक्ति जग में रहकर भी 
योगी की तरह निर्लिप्त होता है।
दुःख से भरी इस दुनिया में भी 
वह सुख-शांति से रह सकता है।।

अध्याय-5, श्लोक-22

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ २२ ॥ 
बुद्धिमान मनुष्य दुःख के कारणों में भाग नही लेता जो कि भौतिक इंद्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं। हे कुंतिपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अंत होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनंद नही लेता।
****************************
इंद्रियों और उसके विषयों से उपजा  
सुख, दुःख का ही कारण होता है।
प्रारम्भ में कितना भी सुखकर लगे 
पर अंत में सदा वह दुःख ही देता है।।

इंद्रियों से मिलने वाले इन भोगों का 
मिलना और छूटना लगा ही रहता।
हे कुंतिपुत्र! बुद्धिमान वही जो कभी 
क्षणिक भोगों में आनंद नहीं लेता।।

Monday, November 14, 2016

अध्याय-5, श्लोक-21

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌ ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ २१ ॥
ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रिय सुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अंतर में आनंद का अनुभव करता है। इसप्रकार स्वरूपसिद्ध व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्रचित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है।
********************************
दुनिया में फैला ये भौतिक सुख 
मुक्त पुरुष को कहाँ भाता है।
वो तो सदा ही समाधि में रहते     
उनको उसी में आनंद आता है।।

वे अपने आत्मा में ही रमण करते  
और परमात्मा पर ध्यान लगाते हैं।
बाहरी सुख उन्हें लुभा नहीं पाते  
अपने अंतर में इतना सुख पाते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-20

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌ ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ २० ॥
जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित है और भगवद्विद्या को जाननेवाला है वह पहले से ही ब्रह्म में स्थित रहता है।
*****************************************
प्रिय वस्तु का आना हर्षित न करे 
अप्रिय भी विचलित न कर पाए।
सुख और दुःख दोनों का ही समय  
बिना हर्ष-विषाद के निकल जाए।।

ऐसे स्थिर बुद्धिवाले मनुष्य कभी भी 
किसी प्रकार के मोह में नही फँसते।
ब्रह्म ज्ञान को जानने वाले ये लोग 
स्वयं भी सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते।।

अध्याय-5, श्लोक-19

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ १९ ॥
जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बंधनों को पहले ही जीत लिया है। वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।
*************************************
देखें सबको एक समान और 
हर जीव में जाने परमात्मा को।
जन्म-मृत्यु का बंधन भी फिर 
बाँध न पाए उन आत्माओं को।।

संसार के दोषों से कोशों दूर वे 
ब्रह्म के समान  निर्दोष होते हैं।
सांसारिक परपंचों से ऊपर उठे 
वे सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-18

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ १८ ॥
विनम्र साधु पुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता व चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।
*******************************************
वास्तविक ज्ञान को जिनसे साध लिया
वह हर जगह परमात्मा को देख पाता।
वस्तु, प्राणी, ऊँच-नीच, अपना-पराया 
सबके ही प्रति सहज समभाव हो जाता।।

वह तो सबको ही समान देखता है चाहे 
सामने उसके ब्राह्मण हो या चाण्डाल।
गाय, कुत्ता जैसे छोटे पशु हो समक्ष या 
सामने खड़ा हो हाथी जैसा पशु विशाल।।

अध्याय-5, श्लोक-17

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥ १७ ॥
जब मनुष्य की बुद्धि, मन, श्रद्धा तथा शरण सब कुछ भगवान में स्थिर हो जाते हैं, तभी वह पूर्णज्ञान द्वारा समस्त कल्मष से शुद्ध होता है और मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है।
****************************************
जब बना ले मनुष्य परमात्मा को 
अपनी बुद्धि और मन का विषय।
शरणागति और श्रद्धा हो हृदय में 
कहीं भी बचा रह न जाए संशय ।।

तब सारे पापों से शुद्ध हो जाता
तत्व ज्ञान के स्तर पर वो आकर।
फिर छोड़ संसार का आना-जाना 
बढ़ चलता वह मुक्ति के पथपर।।

अध्याय-5, श्लोक-16

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌ ॥ १६ ॥
किंतु जब कोई उस ज्ञान से प्रबुद्ध होता है, जिससे अविद्या का विनाश होता है, तो उसके ज्ञान से सब कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे दिन में सूर्य से सारी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं।
************************************
लेकिन जब जीव का अज्ञान 
उच्च ज्ञान से मिट जाता है।
अविद्या समाप्त हो जाती है 
वास्तविकता देख पाता है।।

सारे भ्रम मिट जाते हैं उसके 
फिर सत्य समक्ष ऐसे आता है।
जैसे सूर्य के उदित हो जाने पर 
हर पदार्थ प्रकट हो जाता है।।

अध्याय-5, श्लोक-15

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ १५ ॥
परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को। किंतु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो कि वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किए रहता है।
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सबके शरीर में रहने वाले परमात्मा 
जीव के कर्मों से अलग ही है रहता।
न वह पाप कर्मों को ग्रहण करता हैं 
न ही पुण्य कर्मों में शामिल है होता।।

किंतु जीवात्मा तो अज्ञान के कारण 
सदा ही मोह जाल में फँसा रहता है।
और मोह इन्हीं परदों के कारण ही  
वास्तविक ज्ञान उससे ढँका रहता है।।

अध्याय-5, श्लोक-14

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ १४ ॥
शरीर रूपी नगर का स्वामी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है। यह सब तो प्रकृति के गुणों के द्वारा ही किया जाता है।
************************************
देह में रहता है जीवात्मा पर 
वह देह का कर्त्ता नहीं होता।
न ही कोई कर्म उत्पन्न करता 
न ही वह कर्मफल को रचता।

ये जितने भी कर्म होते हैं यहाँ 
और जो भी परिणाम दिखते हैं।
वे सब-के-सब प्रकृति के तीन 
गुणों द्वारा संचालित होते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-13

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥ १३ ॥
जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किए कराये सुखपूर्वक रहता है।
************************************
जब शरीर में रहनेवाला जीवात्मा
मन से कर्मों का त्याग कर देता है।
न कुछ करता और न ही करवाता
अपनी प्रकृति को वश में रखता है।।

ऐसी स्थिति में वह जीव सदा अपने
आत्म-स्वरूप में ही आनंद लेता है।
और इस नौ द्वार वाले नगर, देह में
बिना कुछ किए सुखपूर्वक रहता है।।

Sunday, November 13, 2016

अध्याय-5, श्लोक-12

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ १२ ॥
निश्चल भक्त शुद्ध शांति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है, किंतु जो व्यक्ति भगवान से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बँध जाता है।
*****************************************
कर्म योगी बिना किसी कामना के 
कर्त्तव्य समझ सारे कर्म करते हैं।
कर्म फलों का त्याग कर देने से  
वे सदा ही परम शांति में रहते हैं।।

लेकिन फलों को भोगने की इच्छा 
रख जो अपने कर्मों को करता है।
कर्म फल से आसक्ति के कारण 
वह कर्म के बंधन में बँध जाता है।।

अध्याय-5, श्लोक-11

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ ११ ॥
योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इंद्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।
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कर्म तो हर कोई ही करता यहाँ 
पर अंतर होता है भाव में सबके।
योगी लोग जो कर्म करते हैं तो  
आसक्ति न होती मन में उनके।।

शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों से 
वे जो भी कर्म यहाँ पर करते हैं।
लक्ष्य आत्मा की शुद्धि भर होती 
और कुछ भी इच्छा नही रखते हैं।।

Saturday, November 12, 2016

अध्याय-5, श्लोक-10

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ १० ॥
जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिसप्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है।
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जिस व्यक्ति ने कर्म फलों को 
परमेश्वर को देना सीख लिया है ।
जिसने जीवन के सारे ही कर्म को 
मोह ममता त्याग कर किया है।।

उसे संसार में रहते हुए भी कभी 
पाप प्रभावित नहीं कर सकता।
जैसे जल में रहता कमल सदा
पर पत्तों तक जल नहीं पहुँचता।।

अध्याय-5, श्लोक-8-9

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥ ८ ॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥ ९ ॥
दिव्य भावनामृत युक्त पुरुष देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते-फिरते, सोते तथा श्वास लेते हुए भी अपने अंतर में सदैव यही जानता रहता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता।बोलते, त्यागते, ग्रहण करते या आँखें खोलते-बंद करते हुए भी वह यह जानता रहता है कि भौतिक इंद्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त हैं और वह इन सबसे पृथक है।
***************************************
जो व्यक्ति सत्य की अनुभूति करता 
वह दिव्य चेतना के स्तर पर होता है।
देखता, सुनता, छूता, सूँधता, चलता 
भोजन करता, सोता श्वास लेता है।।

पर यह सारे काम करते हुए भी वह 
प्रभु के विषय में ही सोचता रहता है।
वह यही मानता है कि इनमें से कोई 
काम भी वास्तव में वह नहीं करता है।।

बोलते, त्यागते,  ग्रहण करते हुए या 
आँखें खोलते बंद करते वह जानता है।
इंद्रियाँ अपने-अपने विषयों में लगी हैं 
पर वह ख़ुद को इनसे अलग मानता है।।

अध्याय-5, श्लोक-7

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ ७ ॥
जो भक्तिभाव से कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इंद्रियों को वश में रखता है, वह सबों को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं। ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बँधता।
*********************************************
शुद्ध आत्मा होते हैं, वे इंद्रियों को 
सदा ही अपने नियंत्रण में रखते हैं।
उनका मन उन्हें नहीं चलाता कभी 
वे मन को अपने अनुसार चलाते हैं।।

भक्ति भाव में मन स्थित रहता उनका  
सबका प्रिय वो,सब उनके प्रिय होते।
इस तरह अपने सारे कार्यों को करते  
फिर भी किसी कर्म में नहीं वे बँधते।।

अध्याय-5, श्लोक-6

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥ ६ ॥
भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता। परंतु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।
************************************
हे महाबाहु! मन में भक्ति भाव न हो 
तो कर्मों का त्याग दुःख ही देता है।
ऐसा सूखा त्याग जीवन में कभी भी 
सुख की अनुभूति नही दे सकता है।।

लेकिन कोई अगर भक्ति में लगा है 
भगवान का उसे रहे स्मरण हर पल।
उसका तो निश्चित है प्रभु को पाना 
चाहे आज पाए या पाए वो कल।।

Friday, November 11, 2016

अध्याय-5, श्लोक-5

यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ ५ ॥
जो यह जानता है कि विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एक समान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप देखता है।
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निष्काम कर्म योग भक्ति से भी 
हम वो सब प्राप्त कर सकते हैं।
जो ज्ञान और स्थान सांख्य योग 
से ज्ञानी हासिल किया करते हैं।।

सांख्य और निष्काम दोनों को जो 
समान फल की दृष्टि से देखता है।
वही होता है वास्तविक ज्ञानी और
सत्य का समुचित ज्ञान रखता है।। 

अध्याय-5, श्लोक-4

सांख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्‌ ॥ ४ ॥ 
अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत के विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं। जो वस्तुतः ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है।
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भक्तियुक्त कर्म योग और सांख्य 
को जो अलग-अलग है समझता।
वास्तव में उसे समुचित ज्ञान नहीं 
तभी वह इसतरह की बातें करता।।

विद्वान पुरुषों ने तो बताया है कि 
कोई एक पथ पर भी दृढ़ रहता है।
तो उस पथ के सही अनुसरण से 
दोनों के फल प्राप्त कर लेता है।।

अध्याय-5, श्लोक-3

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥ ३ ॥
जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है। हे महाबाहु अर्जुन! ऐसा मनुष्य समस्त द्वंदों से रहित होकर भवबंधन को पार कर पूर्णतया मुक्त हो जाता है।
******************************************
हे माहबाहु! जो व्यक्ति किसी से 
कभी भी कोई इच्छा नहीं करता।
न ही किसी से घृणा होती है उसे 
वह व्यक्ति नित्य संन्यासी होता।।

सांसारिक राग-द्वेषों के द्वंद्व उसे 
कभी भी विचलित नही कर पाते।
ऐसे लोग तो बड़ी ही सहजता से 
संसार के बंधन से मुक्त हो जाते।।

अध्याय-5, श्लोक-2

श्रीभगवानुवाच
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥ २ ॥
श्रीभगवान ने उत्तर दिया-मुक्ति के लिए कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं। किंतु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है।
***************************************
श्रीभगवान ने बताया अर्जुन को कि 
दोनों ही पथ श्रेष्ठ व मुक्तिदायक हैं।
कर्म का त्याग हो या भक्तिमय कर्म 
दोनों ही मार्ग परम श्रेय प्रदायक है।।

वैसे दोनों ही पथ अपने पथिक को 
लक्ष्य तक पहुँचाने में सर्वथा समर्थ है।
फिर भी इन दोनों मार्गों में भक्तिमय 
कर्म योग का मार्ग ही अधिक श्रेष्ठ है।।

अध्याय-5, श्लोक-1

अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्‌ ॥ १ ॥
अर्जुन ने कहा-हे कृष्ण! पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं। क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बतायेंगे कि इन दोनों में से कौन अधिक लाभप्रद है?
****************************************
अर्जुन पूछते प्रभु से कि पहले आप 
कर्म के त्याग को बेहतर कहते हैं।
फिर हे कृष्ण! आप ही भक्तिपूर्वक 
किए गए कर्म की प्रशंसा करते हैं।।

दोनों मार्ग आपके द्वारा अनुमोदित
फिर किस मार्ग का मनुष्य चयन करे।
इनमें कौन है अधिक कल्याणप्रद  
कृपा कर आप मेरा मार्गदर्शन करें।।

Thursday, November 10, 2016

अध्याय-4, श्लोक-42

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥ ४२ ॥
अतएव तुम्हारे हृदय में अज्ञान के कारण जो संशय उठे हैं उन्हें ज्ञानरूपी शस्त्र से काट डालो। हे भारत! तुम योग से समन्वित होकर खड़े होओ और युद्द करो।
****************************
अज्ञान के कारण तुम्हारे हृदय में 
भाँति-भाँति के संशय उठे हैं जो।
ज्ञान की तलवार पकड़कर उन 
संशयों को तुम आज काट दो।।

ज्ञान से विभूषित होकर अब तुम 
किसी संशय को मन मन न धरो।
योग में स्थित हो खड़े हो जाओ  
हे भरतवंशी! बस तुम युद्ध करो।।

******दिव्य ज्ञान नाम का चौथा अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-4, श्लोक-41

योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌ ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥ ४१ ॥ 
जो व्यक्ति अपने कर्मफलों का परित्याग करते हुए भक्ति करता है और जिसके संशय दिव्यज्ञान द्वारा विनष्ट हो चुके होते हैं वही वास्तव में आत्मपरायण है। हे धनंजय! वह कर्मों के बंधन से नहीं बँधता।
************************************
हे धनंजय! जिस मनुष्य ने अपने 
कर्मों के फलों को है त्याग दिया।
दिव्य ज्ञान से जिसने अपने सारे 
भ्रम व संशयों को है मिटा लिया।।

ऐसे व्यक्ति ही इस जग में तो 
आत्मपरायण पुरुष कहलाते हैं।
कर्मों के फाँस भी इनको  फिर 
अपने बंधन में न बाँध पाते हैं।।

अध्याय-4, श्लोक-40

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ ४० ॥
किंतु जो अज्ञानी तथा श्रद्धाविहीन व्यक्ति शास्त्रों में संदेह करते हैं, वे भगवदभावनामृत नहीं प्राप्त करते, अपितु नीचे गिर जाते हैं। संशयात्मा के लिए न तो इस लोक में, न ही परलोक में कोई सुख है।
*************************************
जिसे न कोई ज्ञान शास्त्रों का
न ही उसकी श्रद्धा इन सबमें।
उल्टा शंका करता शास्त्रों में 
संशय नही उसके भ्रष्ट होने में।।

ऐसा भटका व्यक्ति सदा ही 
संशयग्रस्त ही रह जाता है।
न इस लोक में न परलोक में 
उसे सुख प्राप्त हो पाता है।।

अध्याय-4, श्लोक-39

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ ३९ ॥
जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इंद्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरंत आध्यात्मिक शांति को प्राप्त होता है।
********************************
ज्ञान के प्रति श्रद्धा होती है जिसकी 
जो होता इसके प्रति पूर्ण समर्पित।
जिसका अपने ऊपर रहता है संयम  
इंद्रियाँ भी होती जिसकी नियंत्रित।।

इस दिव्य ज्ञान को प्राप्त करने का 
वह व्यक्ति ही अधिकारी होता है।
ज्ञान के साथ-साथ तत्क्षण ही वह 
जीवन की परम शांति भी पाता है।।

अध्याय-4, श्लोक-38

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ ३८ ॥ 
इस संसार में दिव्य-ज्ञान के समान कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध नहीं है। ऐसा ज्ञान समस्त योग का परिपक्व फल है। जो व्यक्ति भक्ति में सिद्ध हो जाता है, वह यथासमय अपने अंतर में इस ज्ञान का आस्वादन करता है।
**************************************
इस संसार में सबसे  शुद्ध है वह    
योगों का परिपक्व फल है ज्ञान।
समूचे संसार को पवित्र करनेवाला 
और कुछ भी नही इसके  समान।।

जिस व्यक्ति ने भी इस ज्ञान को 
जीवन में आत्मसात कर लिया है।
समय के साथ उनसे अपने भीतर 
इस ज्ञान का आस्वादन किया है।।

अध्याय-4, श्लोक-37

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ ३७ ॥
जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, उसी तरह हे अर्जुन! ज्ञान रूपी अग्नि भौतिक कर्मों के समस्त फलों को जला डालती है।
*******************************
ईंधन कितना विशाल क्यों न हो 
पर अग्नि के समक्ष टिक न पाता।
अग्नि की लपटों में समाकर वह 
देखते-देखते ही ख़ाक बन जाता।।

उसीप्रकार हे अर्जुन! ज्ञान भी जब 
अग्नि जैसा प्रज्ज्वलित है होता।
समस्त सांसारिक कर्मफलों को
निश्चित जलाकर भस्म कर देता।।

अध्याय-4, श्लोक-36

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥ ३६ ॥ 
यदि तुम्हें समस्त पापियों से भी सर्वाधिक पापी समझा जाये तो भी तुम दिव्यज्ञान रूपी नाव में स्थित होकर दुःख-सागर को पार करने में समर्थ होगे।
**********************************
अगर तुम्हें समस्त पापियों में भी 
सबसे बड़ा पापी भ समझा जाए।
तो भी ज्ञान में होती इतनी शक्ति 
जो हर पाप से छुटकारा दिलाए।।

अगर तुम दिव्य-ज्ञान की नौका 
को अपने जीवन में अपनाओगे।
तो तुम निश्चित ही इस दुःख के 
भव सागर को पार कर जाओगे।।

अध्याय-4, श्लोक-35

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥ ३५ ॥
स्वरूपसिद्द व्यक्ति से वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर चुकने पर तुम पुनः कभी ऐसे मोह को प्राप्त नहीं होगे क्योंकि इस ज्ञान के द्वारा तुम देख सकोगे कि सभी जीव परमात्मा के अंशस्वरूप हैं, अर्थात् वे सब मेरे हैं।
***********************************
हे पाण्डुपुत्र! जब तुम गुरु से 
वास्तविक ज्ञान प्राप्त करोगे।
उसके बाद कभी भी तुम ऐसे 
मोह में फिर से नहीं फँसोगे।।

इस ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात 
संसार को सही से देख पाओगे।
हर प्राणी में परमात्मा का अंश 
सब मुझसे ही है जान जाओगे।।

अध्याय-4, श्लोक-34

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥ ३४ ॥
तुम गुरु के पास जाकर सत्य जानने का प्रयास करो। उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है।
**************************************
गुरु के पास जाकर इन यज्ञों के
विषय में जानने का प्रयास करो।
पूर्ण शरणागत हो, सेवा करके 
विनीत भाव से  जिज्ञासा करो।।

तुम्हारी हर जिज्ञासा का समाधान 
स्वरूपसिद्ध व्यक्ति कर सकते हैं।
जो तुम जानना चाहते हो आज वे 
पहले से उन सत्यों को जानते हैं।।

अध्याय-4, श्लोक-33

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ ३३ ॥
हे परंतप! द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है।हे पार्थ! अंततोगत्वा सारे कर्मयज्ञों का अवसान दिव्य ज्ञान में होता है।
**************************************
हे परंतप अर्जुन! धन-सम्पदा का 
दान भी यूँ तो यज्ञ कहलाता है।
लेकिन जो ज्ञान-यज्ञ होता है वो 
द्रव्ययज्ञ से श्रेष्ठ माना जाता है।।

कर्मों से उत्पन्न होनेवाले ये सब 
जिनते भी प्रकार के यज्ञ होते हैं।
हे पार्थ! अंततः वे सारे-के-सारे 
दिव्य-ज्ञान में ही समाप्त होते हैं।।

अध्याय-4, श्लोक-32

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥ ३२ ॥
ये विभिन्न प्रकार के यज्ञ वेद-सम्मत हैं और ये सभी विभिन्न प्रकार के कर्मों से उत्पन्न हैं। इन्हें इस रूप में जानने पर तुम मुक्त हो जाओगे।
*******************************
इन विभिन्न प्रकार के यज्ञों को 
हमारे शास्त्रों ने सही बताया है।
विभिन्न कर्मों से होते हैं उत्पन्न 
यह भी वेदों ने हमें समझाया है।।

यज्ञों और कर्मों के संबंध को जब 
तुम सही तरह से  समझ पाओगे।
तो फिर इस ज्ञान के कारण तुम 
कर्म-बंधन से मुक्त हो जाओगे।।

Wednesday, November 9, 2016

अध्याय-4, श्लोक-31


नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥ ३१ ॥
हे कुरुश्रेष्ठ! जब यज्ञ के बिना मनुष्य इस लोक में या इस जीवन में ही सुखपूर्वक नहीं रह सकता, तो फिर अगले जन्म में कैसे रह सकेगा?
******************************
हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! जो मनुष्य जीवन में 
कभी किसी प्रकार का यज्ञ नही करता।
उसके तो इस जीवन में ही सुख नही है  
फिर अगले जन्म में कैसे मिल सकता?

अध्याय-4, श्लोक-30


सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌ ॥ ३० ॥
ये सभी यज्ञ करनेवाले यज्ञों का अर्थ जानने के कारण पापकर्मों से मुक्त हो जाते हैं और यज्ञों के फल रूपी अमृत को चखकर परम दिव्य आकाश की ओर बढ़ते जाते हैं।
**********************************
ये सभी प्रकार के यज्ञ करनेवाले 
यज्ञों के अर्थ भलीभाँति जानते हैं।
इस ज्ञान के करान वे सब लोग 
सभी पाप-कर्मों से बच जाते हैं।।

वो तो एक अमृत की तरह ही है
इन यज्ञों का फल जो है मिलता। 
जिसे चखनेवाला हर व्यक्ति ही 
सनातन ब्रह्म को प्राप्त करता है।।

अध्याय-4, श्लोक-29

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ।
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ॥ २९ ॥
अन्य लोग भी हैं जो समाधि में रहने के लिए श्वास को रोके रहते हैं (प्राणायाम)। वे अपान में प्राण को और प्राण में अपान को रोकने का अभ्यास करते हैं और अंत में प्राण-अपान को रोककर समाधि में रहते हैं। अन्य योगी काम भोजन करके प्राण की प्राण में ही आहुति देते हैं।
*****************************************
कुछ ऐसे भी मनुष्य होते  हैं जो 
प्राणायाम का अभ्यास करते हैं।
समाधि में रहने के लिए वे लोग 
श्वासों की गति नियमित रखते हैं।।

कुछ लोग अभ्यास करते हैं प्राण 
वायु में अपान वायु को रोकने का।
तो कुछ करते अभ्यास अपान वायु
में प्राण वायु को अर्पित करने का।।

कुछ लोग प्राण और अपान दोनों 
वायु को रोक समाधि में रहते हैं।
कुछ भोजन कम कर प्राण वायु 
को प्राण वायु में ही हवन करते हैं।।

अध्याय-4, श्लोक-28

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥ २८ ॥
कठोर व्रत अंगीकार करके कुछ लोग अपनी सम्पत्ति का त्याग करके, कुछ कठिन तपस्या द्वारा, कुछ अष्टांग योगपद्धति के अभ्यास द्वारा अथवा दिव्यज्ञान में उन्नति करने के लिए वेदों के अध्ययन द्वारा प्रबुद्ध बनते हैं।
***********************************
यज्ञ करने के भी हैं भिन्न-भिन्न मार्ग
जिसे अलग-अलग लोग अपनाते हैं।
कोई धन-सम्पत्ति का दान करके तो
कोई तप व अष्टांग योग से निभाते हैं।।

कुछ वेद-शास्त्रों का अध्ययन करके
उस निपुणता से यज्ञ निर्वाह करते हैं।
तो कुछ मनुष्य कठिन व्रत धारण कर
उसी से अपना यज्ञ सम्पन्न करते हैं।।

Tuesday, November 8, 2016

अध्याय-4, श्लोक-27

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥ २७ ॥
दूसरे, जो मन तथा इंद्रियों को वश में करके आत्म-साक्षात्कार करना चाहते हैं, सम्पूर्ण इंद्रियों तथा प्राणवायु के कार्यों को संयमित मन रूपी अग्नि में आहुति कर देते हैं।
***********************************
कुछ ऐसे मनुष्य होते हैं यहाँ  जो 
आत्म-साक्षात्कार करना चाहते हैं।
इसके लिए वे सर्वप्रथम अपनी 
इंद्रियों को अपने वश में करते हैं।।

फिर अपने संयमित मन के द्वारा वे  
आत्म-ज्ञान के पथ पर हैं बढ़ पाते।
प्राणवायु के कार्यों को आहुत बना
आत्म-योग रूपी अग्नि को चढ़ाते।।

अध्याय-4, श्लोक-26

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥ २६ ॥
इनमें से कुछ (विशुद्ध ब्रह्मचारी) श्रवणादि क्रियाओं तथा इंद्रियों को मन की नियंत्रण रूपी अग्नि में स्वाहा कर देते हैं तो दूसरे लोग (नियमित गृहस्थ) इन्द्रियविषयों को इंद्रियों की अग्नि में सवहा कर देते हैं।
************************************
जो लोग ब्रह्मचारी होते हैं वे तो  
मन को अपने नियंत्रित हैं रखते।
सभी ज्ञान इंद्रियों के विषयों को 
नियंत्रण की अग्नि में हवन करते।।

कुछ लोग जो होते हैं गृहस्थी में
वे भी नियमित जीवन ही जीते।
इन्द्रिय रूपी अग्नि में वे अपने 
इन्द्रिय विषयों को आहुत करते।।

अध्याय-4, श्लोक-25

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥ २५ ॥
कुछ योगी विभिन्न प्रकार के यज्ञों द्वारा देवताओं की भलीभाँति पूजा करते हैं और कुछ परब्रह्म रूपी अग्नि में आहुति डालते हैं।
***************************************
कुछ मनुष्य अनेक प्रकार से
देवताओं की पूजा करते हैं।
भिन्न-भिन्न यज्ञों के द्वारा वे
देवताओं को प्रसन्न रखते हैं।

पर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो
परब्रह्म का ही ध्यान करते हैं।
अपनी ध्यान रूपी आहुति से
वे यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं।।

अध्याय-4, श्लोक-24

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌ ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ २४ ॥
जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में पूरी तरह लीन रहता है, उसे अपने आध्यात्मिक कर्मों के योगदान के कारण अवश्य ही भगवद्धाम की प्राप्ति होती है, क्योंकि उसमें हवन आध्यात्मिक होता है और हवि भी आध्यात्मिक होता है।
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जो व्यक्ति ब्रह्म ज्ञान में है स्थित
उसका लक्ष्य तो ब्रह्म ही होता है।
अपने सारे ही कर्मों को वह अब  
बस ब्रह्म को ही समर्पित करता है।।

आध्यात्मिक चेतना के स्तर इस पर
हर कार्य ब्रह्म से ही जुड़ा होता है।
यज्ञ, अग्नि, कर्त्ता, हवन और फल
ब्रह्म से अलग कुछ नहीं होता है।।

Sunday, November 6, 2016

अध्याय-4, श्लोक-23

गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥ २३ ॥ 
जो पुरुष प्रकृति के गुणों के प्रति अनासक्त है और जो दिव्य ज्ञान में पूर्णतया स्थित है, उसके सारे कर्म ब्रह्म में लीन हो जाते हैं।
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जिसने प्रकृति के तीनों गुणों से 
अपने आपको मुक्त कर लिया है।
जो पूरी तरह से ही दिव्य ज्ञान में 
मन व बुद्धि सहित स्थित हुआ है।।

इसतरह जो मनुष्य अच्छी प्रकार 
अपने कर्म का आचरण करते हैं।
वे मनुष्य भौतिक फल नही भोगते 
उनके कर्म तो ब्रह्म में लीन होते हैं।

अध्याय-4, श्लोक-22

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ २२ ॥
जो स्वतः होनेवाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वंद्व से मुक्त है और ईर्ष्या नही करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नही।
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स्वतः जो मिल जाए लाभ उसी से 
जिस व्यक्ति को संतुष्ट होना आता।
समस्त द्वंद्वों से ऊपर उठा हुआ हो 
जो किसी से भी ईर्ष्या नही करता।।

सफलता हो या असफलता मिले 
वो सदा ही संतुलित चित्त है रहता।
ऐसा मनुष्य सारे कर्म करते हुए भी 
कर्म बंधन में कभी भी नही पड़ता।।

अध्याय-4, श्लोक-21

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌ ॥ २१ ॥
ऐसा ज्ञानी पुरुष पूर्णरूप से संयमित मन तथा बुद्धि से कार्य करता है, अपनी सम्पत्ति के सारे स्वामित्व को त्याग देता है और केवल शरीर-निर्वाह के लिए कर्म करता है। इस तरह कार्य करता हुआ वह पाप रूपी फलों से प्रभावित नहीं होता है।
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जिस मनुष्य को अपने कर्मफलों से 
किसी प्रकार का कोई राग नही है।
अपनी सम्पत्ति के स्वामित्व से जिसे 
किसी भी तरह का अनुराग नहीं है।।

ऐसा संयमित मन, शुद्ध बुद्धिवाला 
सिर्फ़ शरीरनिर्वाह हेतु कर्म करता है।
इस तरह कार्य करते हुए कभी वह  
पाप रूपी फलों में नहीं  फँसता है।।

अध्याय-4, श्लोक-20

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥ २० ॥
अपने कर्मफलों की सारी आसक्ति को त्याग कर सदैव संतुष्ट तथा स्वतंत्र रहकर वह सभी प्रकार के कार्यों में व्यस्त रहकर भी कोई सकाम कर्म नहीं करता।
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जो मनुष्य सभी कर्म फलों से  
अपनी आसक्ति को त्यागकर।
करता है जो अपने सारे ही कर्म 
सदा संतुष्ट और स्वतंत्र  होकर।।

सभी प्रकार के कर्म करते हुए 
ऐसे लोग इसी संसार में हैं रहते।
पर पूरी तरह व्यस्त होते हुए भी 
वे कोई सकाम कर्म नही करते।।

अध्याय-4, श्लोक-19

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥ १९ ॥
जिस व्यक्ति का प्रत्येक प्रयास इन्द्रियतृप्ति की कामना से रहित होता है, उसे पूर्णज्ञानी समझा जाता है। उसे ही साधु पुरुष ऐसा कर्त्ता कहते हैं, जिसने पूर्णज्ञान की अग्नि में कर्मफलों को भस्मसात कर दिया है।
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जिस व्यक्ति के सारे ही काम 
भोग वासना  से रहित  होते हैं।
फल की इच्छा किए बिना जो  
पूरी लगन से सारे कर्म करते हैं।।

जिनके समस्त कर्मों के फल 
ज्ञान अग्नि में भस्म हो गए हैं।
बुद्धिमान लोगों की दृष्टि में 
ऐसे मनुष्य पूर्ण ज्ञानी हुए हैं।।

अध्याय-4, श्लोक-18

कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌ ॥ १८ ॥
जो मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह सभी मनुष्यों में बुद्धिमान है और सब प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त रहकर भी दिव्य स्थिति में रहता है।
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बुद्धिमान है वह मनुष्य जो
कर्म में अकर्म देख पाता है।
अकर्म में भी कर्म देखते हुए
जो सारे कर्म किए जाता है।।

ऐसा मनुष्य ही वास्तव में
सारे मनुष्यों में बुद्धिमान है।
सारे कार्यों को करते हुए भी
वह मुक्त पुरुष के समान है।।

Saturday, November 5, 2016

अध्याय-4, श्लोक-17

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥ १७ ॥
कर्म की बारीकियों को समझना अत्यंत कठिन है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह यह ठीक से जानें कि कर्म क्या है और अकर्म क्या है?
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कर्मों की गति बड़ी ही गहन होती है 
इन्हें समझ पाना होता आसान नही।
इसकी सूक्ष्मता समझ नही आती  
अगर सही से हो इसका ज्ञान नही।।

इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह 
समझ ले आख़िर क्या होता है कर्म।
विकर्म के विषय में भी हो जानकारी 
और पता हो कि कैसे होता है अकर्म।।

अध्याय-4, श्लोक-16

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥ १६॥
कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इसे निश्चित करने में बुद्धिमान व्यक्ति भी मोहग्रस्त हो जाते हैं। अतएव मैं तुमको बताऊँगा कि कर्म क्या है, जिसे जानकर तुम सारे अशुभ से मुक्त हो जाओगे।
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क्या होती कर्म की परिभाषा
और क्या अकर्म कहलाता है।
बड़े-बड़े बुद्धिमान मनुष्यों को 
यह प्रश्न मोहग्रस्त कर जाता है।।

इसलिए कर्म क्या होता है ये 
आज तुम मुझसे जान जाओगे ।
जिसे जाना लेने के बाद तुम 
हर अशुभ से मुक्त हो पाओगे।।

Friday, November 4, 2016

अध्याय-4, श्लोक-15

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌ ॥ १५ ॥
प्राचीन काल में समस्त मुक्तात्माओं ने मेरी दिव्य प्रकृति को जान करके ही कर्म किया, अतः तुम्हें चाहिए कि उनके पदचिन्हों का  अनुसरण करते हुए अपने कर्त्तव्य का पालन करो।
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मुक्ति की कामना करनेवालों ने 
मेरी दिव्य प्रकृति को जाना है।
प्राप्त किया उन सबने मोक्ष को 
जिन्होंने मेरे सत्य को पहचाना है।।

तुम भी उन प्राचीन महापुरुषों के 
पदचिन्हों का ही अनुसरण करो।
मेरी दिव्य प्रकृति को जानकर 
अपने कर्त्तव्य कर्म का पालन करो।

अध्याय-4, श्लोक-14

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥ १४ ॥
मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता, न ही मैं कर्मफल की कामना करता हूँ। जो मेरे संबंध में इस सत्य को जानता है, वह भी कर्मों के फल के पाश में नहीं बँधता।
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किसी भी कर्म के फल से मुझे 
कभी भी कोई मोह नही रहता।
जब कोई आसक्ति ही नही फिर 
कर्म बंधन में भी नहीं मैं बँधता।।

इसप्रकार जो मनुष्य मेरे विषय में 
इस सत्य को भलीभाँति जान लेता।
वह भी हो जाता है बंधन से मुक्त
कर्म पाश उसे भी बाँध नही पाता।।

अध्याय-4, श्लोक-13

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ॥ १३ ॥
प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे संबद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये। यद्यपि मैं इस व्यवस्था का स्रष्टा हूँ, किंतु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ।
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मैंने ही रचे हैं मानव समाज के 
गुणों पर आधारित चार प्रकार।
कौन आए किस वर्ग में इसका 
प्रकृति के तीनों गुण हैं आधार।।

इसप्रकार इस समाज की सृष्टि 
संचालन पालन मैं ही करता हूँ।
सारे जगत को संभालकर भी मैं 
सदा ही रहता अव्यय अकर्ता हूँ।।

अध्याय-4, श्लोक-12

काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ १२ ॥
इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं, फलस्वरूप वे देवताओं की पूजा करते हैं। निस्सन्देह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता है।
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फल की इच्छा से ही संसार में
सारे मनुष्य अपना कर्म करते हैं।
इच्छित फल मिल जाए उन्हें
इसीलिए देवताओं को पूजते हैं।।

जैसी अभिलाषा होती है उसी
अनुसार इष्टदेव का चयन होता है।
सकाम कर्म का फल संसार में
निश्चित रूप से शीघ्र मिलता है।।

Thursday, November 3, 2016

अध्याय-4, श्लोक-11

ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌ ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ ११ ॥
जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है।
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जिस रूप में मुझको जिसने चाहा 
उसी रूप में मैं भी उससे मिला हूँ।
जिस भाव से शरण ली जिसने उसे 
उसी भाव से मैं स्वीकार किया हूँ।।

जैसी इच्छा वैसा ही फल उसका   
जिसने जो चाहा उसे वही मिला है।
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सबने सदा   
मेरे पथ का ही  अनुगमन किया है।।

अध्याय-4, श्लोक-10

वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥ १० ॥
आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें पूर्णतया तन्मय होकर और मेरी शरण में आकर बहुत से व्यक्ति भूत काल में मेरे ज्ञान से पवित्र हो चुके हैं। इस प्रकार से उन सबों ने मेरे प्रति दिव्यप्रेम को प्राप्त किया है।
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मोह, भय और क्रोध का त्याग 
जब पूरी तरह कोई कर देता है।
मुझमें पूर्ण रूप से तन्मय होके
मेरी अनन्य शरणागति लेता है।।

ऐसे कितने मनुष्यों को अब तक  
मेरे दिव्य ज्ञान ने पवित्र किया है।
तपस्या के द्वारा उन लोगों ने मेरे 
दिव्य प्रेम को भी प्राप्त किया है।।

अध्याय-4, श्लोक-9

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ९ ॥
हे अर्जुन! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नही लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
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हे अर्जुन! मेरा जन्म और मेरे कर्म 
दोनों ही दिव्य और अलौकिक है।
जो जानता मेरा वास्तविक स्वरूप 
कि कुछ भी नही मुझमें भौतिक है।।

ऐसा व्यक्ति शरीर त्याग कर फिर  
वापस इस लोक में नहीं है आता।
बल्कि उस महान आत्मा को तो 
मेरा सनातन धाम है मिल जाता।।

अध्याय-4, श्लोक-8

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ८ ॥
भक्तों कि उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
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भक्तों को अपने मान देने 
दुष्टों के विनाश के लिए।
अटल श्रद्धा रखनेवाले  
भक्तों के आस के लिए।

मैं प्रकट होता हूँ हर युग में 
धरती का बोझ हरता हूँ।
अधर्म का नाश कर धर्म की 
यहाँ पुनः स्थापना करता हूँ।।

अध्याय-4, श्लोक-7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥ ७ ॥
हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ।
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जब जब होती धर्म की हानि
होने लगे सज्जनों को परेशानी।
धर्म धरा से सिमटने लगे और
अधर्मी करे जब अपनी मनमानी।।

तब तब हे भारत! अपने धाम से
इस धरा पर मैं अवतरित होता।
धर्म की हानि व अधर्म की वृद्धि
ऐसा अधिक समय नहीं  रहता।।

Wednesday, November 2, 2016

अध्याय-4, श्लोक-6

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌ ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ ६ ॥
यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में में अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ।
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यद्यपि मेरा कभी जन्म नही होता 
न ही कभी मेरा विनाश होता है।
मैं ही समस्त जीवों का स्वामी हूँ 
मुझे कोई नियंत्रित नहीं करता है।।

इस सृष्टि का नियंता हूँ मैं फिर भी 
इसी सृष्टि में ही अवतरित होता हूँ।
हर युग में ही अपने आदि रूप को 
इस धरा धाम पर प्रकट करता हूँ।।

अध्याय-4, श्लोक-5

श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ५ ॥
श्रीभगवान ने कहा-तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं। मुझे तो उन सबका स्मरण है, किंतु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नही रह सकता।
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श्रीभगवान ने कहा अर्जुन से कि 
यह जन्म प्रथम जन्म नहीं हमारा।
इससे पहले भी कितनी ही  बार 
हो चुका जन्म मेरा और तुम्हारा।।

मुझे हर जन्म का स्मरण है रहता 
मेरी दृष्टि से कुछ भी नही छुपता।
हे परंतप! तुम्हारे लिए यह नया है 
क्योंकि तुम्हें सब याद नही रहता।।

अध्याय-4, श्लोक-4

अर्जुन उवाच
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥ ४ ॥
अर्जुन ने कहा-सूर्यदेव विवस्वान आप से पहले हो चुके (ज्येष्ठ) हैं, तो फिर मैं कैसे समझूँ कि प्रारम्भ में भी आपने उन्हें इस विद्या का उपदेश दिया था।
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अर्जुन कर रहे जिज्ञासा प्रभु से कि 
कैसे समझूँ मैं आपकी यह बात।
आप जो कह रहे हैं कि सर्वप्रथम 
यह उपदेश बाँटा सूर्यदेव के साथ।।

सूर्यदेव का जन्म तो आज का नही 
वे तो उत्पन्न सृष्टि के प्रारम्भ में हुए।
और आपका जन्म तो अभी हुआ है 
फिर आपने उपदेश उनसे कैसे कहे?

अध्याय-4, श्लोक-3

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌ ॥ ३ ॥
आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्वर के साथ अपने संबंध का विज्ञान तुमसे कहा जा रहा है क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो।
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आज वही दिव्य प्राचीन ज्ञान मैं
तुम्हें आज पुनः बताने जा रहा हूँ।
परमेश्वर और जीव के  संबंध का
विज्ञान फिर से तुम्हें समझा रहा हूँ।।

क्योंकि मेरे प्रिय सखा होने के साथ
भक्ति भी है तुम्हारे भीतर मेरे लिए।
इसलिए इस उत्तम ज्ञान का रहस्य
समझना सहज होगा  तुम्हारे लिए।।

Tuesday, November 1, 2016

अध्याय-4, श्लोक-2

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥ २ ॥ 
इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परंपरा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा। किंतु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है।
****************************************
हे अर्जुन! इसप्रकार यह परम विज्ञान
गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा लिया गया।
राज-ऋषियों ने दिव्य ज्ञान को इसी
पारम्परिक विधि से ही ग्रहण किया।।

किंतु समय के प्रभाव में यह परंपरा 
छिन्न-भिन्न होकर  नष्ट-सी हो गयी।
विज्ञान से युक्त परम  ज्ञान की बातें 
कालक्रम में मानो लुप्त ही हो गयी।।

अध्याय-4, श्लोक-1

श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥ १ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान को दिया और विवस्वान ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इस का उपदेश इक्ष्वाकु को दिया।
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भगवान कृष्ण बता रहे कि मैंने ही इस 
अमर योग विद्या को अवतरित किया।
सृष्टि के प्रारम्भ में इस दिव्य ज्ञान को 
सूर्य के पुत्र विवस्वान को मैंने दिया।।

विवस्वान ने इस अविनाशी विद्या को 
मनुष्यों के पिता मनु तक पहुँचाया।
महाराज मनु ने आगे इस उपदेश को 
अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को बताया।।