Thursday, February 16, 2017

अध्याय-9, श्लोक-34

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ॥ ३४ ॥
अपने मन को मेरे नित्य चिंतन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो। इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर निश्चित रूप से मुझको प्राप्त होगे।
**********************************
मन को मेरे चिंतन में लगाओ 
मेरे नाम,रूप का भजन करो।
नित स्मरण, नमन, पूजन, वंदन 
हर तरह से मन को मुझमें धरो।।

ऐसे करते जब मन पूरी तरह से 
मेरे में तल्लीन हो जाएगा तेरा।
पूर्ण शरणागति की उस स्थिति में 
प्राप्त होगा फिर तुझे संग मेरा।।

****** परम गुह्य ज्ञान नाम का नवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-9, श्लोक-33

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्‌ ॥३३॥
फिर धर्मात्मा ब्राह्मणों, भक्तों तथा राजर्षियों के लिए तो कहना ही क्या है! अतः इस क्षणिक दुखमय संसार में आ जाने पर मेरी प्रेमाभक्ति में अपने आप को लगाओ।
************************************
फिर वे कितने प्रिय हैं क्या बताऊँ 
जो सदा ही मझमें ही डूबे है रहते।
वो धर्मात्मा ब्राह्मण, वो मेरा भक्त 
और राजर्षि जो सदा मुझे हैं भजते।।


इसलिए इस संसार में समय न गँवा 
ये सब क्षण भर में नष्ट होनेवाला है।
दुःख भरे इस संसार से निकल शीघ्र 
तू हर पल निरंतर मेरा ही स्मरण कर।।

अध्याय-9, श्लोक-32

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्‌ ॥ ३२ ॥ 
हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही निन्मजन्मा स्त्री, वैश्य (व्यापारी) तथा शूद्र (श्रमिक) क्यों न हो, वे परमधाम को प्राप्त करते हैं।
**************************************
हे पार्थ!भक्ति में भेदभाव नहीं 
हर भक्त समान है मेरे लिए।
कोई भी शरण में आ जाए मेरे 
बस मन में भक्ति भाव लिए।।

मैं न देखता कुल,जन्म व धर्म 
मैं तो सबको अपना लेता हूँ।
भक्त स्त्री, वैश्य या शूद्र हो 
सबको ही परम धाम देता हूँ।।

अध्याय-9, श्लोक-31

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ ३१ ॥
वह तुरंत धर्मात्मा बन जाता है और स्थायी शांति प्राप्त करता है। हे कुंतिपुत्र! निडर होकर घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता है।
************************************
जल्दी ही वो पथ पर लौटेगा 
शुद्धता का हर आचरण करेगा।
परम शांति प्राप्त होगी उसको 
भक्ति से कभी न वो भटकेगा।।


हे अर्जुन! आज तुम बता दो सबको 
कर दो घोषणा मेरी तरफ़ से आज।
मेरे भक्त का कभी विनाश न होता
मैं आने नहीं देता उनपर कभी आँच।।

मैं रखूँ सदा उसकी भक्ति का लाज 
सम्भाल लूँगा मैं स्वयं,उसे जो गिरा।
लड़खाएँगे कदम तो भी क्या हुआ 
गिरने न दूँगा,नाता उसका मुझसे जुड़ा।।

अध्याय-9, श्लोक-30

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्‌ ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ ३० ॥
यदि कोई जघन्य से जघन्य कर्म करता है, किंतु यदि वह भक्ति में रत रहता है तो उसे साधु मानना चाहिए क्योंकि वह अपने संकल्प में अडिग रहता है।
**************************************
मेरी भक्ति में जो है लगा 
क्षणभर को अगर वह डिगा।
दुराचार हो गया उससे अगर 
पर मन भक्ति से ही है भीगा।।

ऐसे को साधु ही समझो तुम 
क्योंकि भक्ति उसने छोड़ी नहीं।
ग़लती से ग़लती हो गयी उससे 
मैं स्वयं करूँगा उसको सही।।

अध्याय-9, श्लोक-29

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्‌ ॥ २९ ॥ 
मैं न तो किसी से द्वेष करता हूँ, न ही किसी के साथ पक्षपात करता हूँ। मैं सबों के लिए समभाव हूँ। किंतु जो भी भक्तिपूर्वक मेरी सेवा करता है, वह मेरा मित्र है, मुझमें स्थित रहता है और मैं भी उसका मित्र हूँ।
***********************************************
न मैं किसी से द्वेष करूँ
न ही किसी से पक्षपात।
मेरे लिए तो सब हैं समान 
सब ही अपने संगी साथ।।

हाँ,जो मुझसे प्रेम करे और 
दिन रात मुझे ही जो भजे।
उसके हृदय में नित मैं बसूँ   
मेरा हृदय भी उसे न तजे।।

अध्याय-9, श्लोक-28

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबंधनैः ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥ २८ ॥
इसतरह तुम कर्म के बंधन तथा इसके शुभाशुभ फलों से मुक्त हो सकोगे। इस संन्यास योग में अपने चित्त को स्थिर करके तुम मुक्त होकर मेरे पास आ सकोगे।
***************************************
इसतरह अपने सारे कर्म जब
तुम मुझमें समर्पित कर दोगे ।
तब कर्म व उसके शुभ-अशुभ
सारे फलों से तुम मुक्त होगे।।

सांसारिक भोगों से विरक्ति
और मन मुझमें ही लगाएगा।
तब हर बंधन से छूटकर जीव
मेरे पास वापस आ जाएगा।।