Saturday, December 24, 2016

अध्याय-9, श्लोक-11

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌ ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌ ॥ ११
जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।
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जब-जब मेरा मनुष्य रूप में इस
धरा-धाम पर अवतरण होता है।
मूर्ख मनुष्यों को मेरा दिव्य शरीर
अपने तरह ही भौतिक  लगता है।

वे तब मेरा उपहास हैं उड़ाते और
अपनी भाँति मरणशील समझते।
मैं ही हूँ सारे जीवों का परमेश्वर
मेरा स्वभाव वे जान ही नहीं पाते।।

Friday, December 23, 2016

अध्याय-9, श्लोक-10

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥ १० ॥
हे कुंतीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी ही शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं।इसके शासन में यह जगत बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है।
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हे कुंतीपुत्र! चर-अचर से समाहित ये 
भौतिक प्रकृति मेरी ही एक शक्ति है।
मेरी द्वारा ही होती है संचालित और 
मेरी अध्यक्षता में ही ये कार्य करती है।।

मेरे अधीन है वह और उसके शासन में 
जगत बारबार उत्पन्न-विनष्ट होता है।
मेरा प्रत्यक्ष कोई लेना-देना नही होता 
प्रकृति से ही जग परिवर्तित होता है।।

अध्याय-9, श्लोक-9

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ ९ ॥
हे धनंजय! ये सारे कर्म मुझे नहीं बाँध पाते। मैं उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ।
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हे धनंजय! ये जितने भी कर्म 
मेरे द्वारा सम्पन्न किए जाते।।
उनमें से कोई भी मुझे अपने 
कर्म बंधन में बाँध नहीं पाते।।

क्योंकि मैं उन्हें किसी फल 
की इच्छा से नहीं करता हूँ।
मैं तो कर्म व फल दोनों से 
हमेशा ही विरक्त रहता हूँ।।

अध्याय-9, श्लोक-8

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्‌ ॥ ८ ॥
सम्पूर्ण विराट जगत मेरे अधीन है। यह मेरी इच्छा से बारम्बार स्वतः प्रकट होता रहता है और मेरी ही इच्छा से अंत में विनष्ट होता है।
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ये विशाल जगत, ये सम्पूर्ण सृष्टि 
मेरे अधीन रहकर ही कार्य करती।
जीवों की चौरासी लाख योनियाँ 
अपनी इच्छाएँ मुझसे पूरी करती।।

मेरी इच्छा से ही तो बारबार स्वयं 
यह जगत प्रकट होता ही रहता है।
प्रकट होकर फिर सृष्टि के अंत में 
मेरी ही इच्छा से विनष्ट होता है।।

अध्याय-9, श्लोक-7

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्‌ ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्‌ ॥ ७ ॥
हे कुंतीपुत्र! कल्प का अंत होने पर सारे प्राणी मेरी प्रकृति में प्रवेश करते हैं और अन्य कल्प के आरम्भ होने पर मैं उन्हें अपनी शक्ति से पुनः उत्पन्न करता हूँ।
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हे कुंतीपुत्र!! मेरी ही शक्ति से 
जीवों के जीवन चक्र चलते है।
कल्प का जब अंत होता तब 
सब मुझमें ही प्रवेश करते हैं।।

अन्य कल्प के आरम्भ होने पर 
मेरी शक्ति से ही उत्पन्न होते।
मुझसे ही सृजन,मुझसे संहार 
मुझसे ही सारे प्राणी हैं पलते।।

Thursday, December 22, 2016

अध्याय-9, श्लोक-6

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥ ६ ॥
जिस प्रकार सर्वत्र प्रवहमान प्रबल वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार समस्त उत्पन्न प्राणियों को मुझसे उत्पन्न जानो।
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सब जगह बहने वाली वायु
अत्यंत प्रबल और है महान ।
लेकिन उसका सदा ही रहता
आकाश के भीतर ही स्थान।।

वैसे ही जितने भी प्राणी हुए
उत्पन्न इस विशाल सृष्टि में।
सब मुझमें ही स्थित है रहते
सबका स्थान है मेरी दृष्टि में।।

Wednesday, December 21, 2016

अध्याय-9, श्लोक-5

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥ ५ ॥
तथापि मेरे द्वारा उत्पन्न सारी वस्तुएँ मुझमें स्थित नहीं रहती। ज़रा मेरे योग-ऐश्वर्य को देखो! यद्यपि मैं समस्त जीवों का पालक (भर्ता) हूँ और सर्वत्र व्याप्त हूँ, लेकिन मैं इस विराट अभिव्यक्ति का अंश नहीं हूँ क्योंकि मैं सृष्टि का कारणस्वरूप हूँ।
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मेरे द्वारा उत्पन्न हुई सारी वस्तुएँ
सदा मुझमें स्थित नहीं भी रहती।
फिर भी मेरा योग ऐश्वर्य देखो कि
सारी सृष्टि मेरे बल ही है पलती।।

सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त हूँ फिर भी
इस विराट सृष्टि का अंश नहीं हूँ।
क्योंकि जो भी यहाँ दृश्य-अदृश्य
इन सबका परम कारण मैं ही हूँ।।

Tuesday, December 20, 2016

अध्याय-9, श्लोक-4

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः ॥ ४ ॥
यह सम्पूर्ण जगत मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त है। समस्त जीव मुझमें है, किंतु मैं उनमें नहीं हूँ।
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दिखाई देता यह सारा संसार 
मेरे अव्यक्त रूप के कारण।
सम्पूर्ण जगत को मैंने ही तो 
कर रखा है स्वयं में धारण।।

सारे जीव जगत के मुझमें हैं 
सम्पूर्ण जगत में मैं स्थित हूँ।
सब हैं मेरे ही भीतर लेकिन 
मैं नहीं  उनमें  अवस्थित हूँ।।

अध्याय-9, श्लोक-3

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥ ३ ॥
हे परन्तप! जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते। अतः वे इस भौतिक जगत् में जन्म-मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं।
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हे परन्तप! जग के जो लोग 
भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते हैं।
वे जीवन में अपने कभी भी 
मुझे प्राप्त नहीं कर सकते हैं।।

मुझे प्राप्त न करने का अर्थ  
यही संसार रहेगा ठिकाना।
जन्म लेकर बारम्बार आना 
मृत्यु के संग फिर से जाना।।

अध्याय-9, श्लोक-2

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्‌ ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्‌ ॥ २ ॥
यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है। यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा के प्रत्यक्ष अनुभूति करानेवाला है, अतः यह धर्म का सिद्धांत है। यह अविनाशी है और अत्यंत सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है।
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यह ज्ञान सारे विद्याओं का राजा 
गोपनीयता में सबसे गोपनीय है।
यह ज्ञान परम शुद्ध ,परम श्रेष्ठ है 
यह जीव के लिए अनुसरणीय है।।

आत्मा की अनुभूति कराता है यह 
यह ज्ञान धर्म का यह सिद्धांत है।
सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है 
इसका कभी भी नही कोई अंत है।।

अध्याय-9, श्लोक-1

श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌ ॥ १ ॥
श्रीभगवान ने कहा-हे अर्जुन! चूँकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते,इसलिए मैं तुम्हें यह परम गुह्यज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम संसार के क्लेशों से मुक्त हो जाओगे।
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भगवान ने कहा कि हे अर्जुन! तुम 
मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते हो।
इसलिए तुम मुझसे परम गोपनीय 
ज्ञान प्राप्ति के अधिकारी बनते हो।।

मैं तुम्हें वह ज्ञान तो बताऊँगा ही 
साथ ही उसका अनुभव भी सुनोगे।
इस ज्ञान-विज्ञान को जानकर तुम 
संसार के दुःख से मुक्त हो जाओगे।।

Monday, December 19, 2016

अध्याय-8, श्लोक-28

वेदेषु यज्ञेषु तपः सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्‌ ।
अत्येत तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्‌ ॥ २८ ॥
जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है,वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होनेवाले फलों से वंचित नहीं होता। वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अंत में परम नित्य धाम को प्राप्त होता है।
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जो व्यक्ति भक्ति के पथ पे जाता
वह किसी फल से वंचित न रहता।
वेदाध्ययन, तपस्या, दान  का फल 
उसे बिना प्रयास सहज ही मिलता।।

दार्शनिक और सकाम कर्म के पुण्य 
वह मात्र भक्ति से प्राप्त कर लेता।
समस्त पुण्य फलों को भोगता हुआ 
अंत में मेरे परम धाम को आ जाता।

****** भगवद्प्राप्ति नाम का आठवाँ  अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-8, श्लोक-27

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥ २७ ॥ 
हे अर्जुन! यद्यपि भक्तगण इन दोनों मार्गों को जानते हैं, किंतु वे मोहग्रस्त नहीं होते। अतः तुम भक्ति में सदैव स्थित रहो।
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हे पृथापुत्र! मेरे भक्तों को 
दोनों पथ का पता होता है।
पर कोई भी पथ उन्हें कभी 
मोहग्रस्त नहीं कर पाता है।।

इसलिए हे अर्जुन! तुम भी 
उनकी तरह अनासक्त रहो।
हर समय मेरी भक्ति में ही 
मन को अपने स्थिर रखो।।

अध्याय-8, श्लोक-26

शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ॥ २६ ॥
वैदिक मतानुसार इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग हैं-एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार का। जब मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाता है तो वह वापस नहीं आता, किंतु अंधकार के मार्ग से जानेवाला पुनः लौटकर आता है।
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वेदों के अनुसार इस संसार से दो 
मार्गों से ही जाया जा सकता है।
कोई प्रकाश के मार्ग से जाता तो 
कोई अंधकार का पथ पकड़ता है।।

जो मनुष्य प्रकाश के पथ से जाता 
वह कभी यहाँ वापस नहीं आता है।
पर  जो अंधकार के मार्ग से जाता 
वह यहाँ लौटकर अवश्य आता है।।

अध्याय-8, श्लोक-25

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्‌ ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥ २५ ॥
जो योगी धुएँ, रात्रि, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है, वह चंद्रलोक को जाता है, किंतु वहाँ से पुनः (पृथ्वी पर) चला आता है।
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जब अग्नि का धुआँ फैला हो 
या रात्रि का अंधकार घना हो।
कृष्णपक्ष का घटता चंद्रमा हो 
और सूर्य  दक्षिणायन बना हो।।

उन छह महीनों में जो भी योगी  
भौतिक शरीर का त्याग करता है।
पहले तो स्वर्ग जा सुख भोगता  
पर बाद में वापस यहीं गिरता है।।

अध्याय-8, श्लोक-24

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ २४ ॥
जो परमब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे अग्निदेव के प्रभाव में, प्रकाश में, दिन के शुभक्षण में, शुक्लपक्ष में या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है, उन छह मासों में इस संसार से शरीर त्याग करने पर उस परमब्रह्म को प्राप्त करते हैं।
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जिस समय अग्नि जल रही हो 
दिन का समय सूर्य प्रकाश हो।
शुक्ल पक्ष का समय हो और 
उत्तरायण में सूर्य का वास हो।।

उन छह महीनों में जो भी योगी  
भौतिक शरीर का त्याग करता।
वह फिर कभी वापस नहीं आता 
वह तो परमब्रह्म को पा जाता।।

अध्याय-8, श्लोक-23

यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥ २३ ॥
हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें उन विभिन्न कालों को बताऊँगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुनः आता है अथवा नहीं आता।
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हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें बताऊँ  
उन विभिन्न कालों के विषय में।
किस काल का क्या प्रभाव होता  
हमारे  जीवन के अंतिम समय में।।

किस काल में शरीर त्यागने पर 
योगी वापस नहीं आते हैं फिर से।
और किस काल शरीर छूटे अगर  
तो पुनर्जन्म निश्चित होता जिनसे।।

अध्याय-8, श्लोक-22

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्‌ ॥ २२ ॥
भगवान, जो सबसे महान हैं, अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किए जा सकते हैं। यद्यपि वे अपने परम धाम में विराजमान रहते हैं, तो भी वे सर्वव्यापी हैं और उनमें सब कुछ स्थित है।
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हे पृथपुत्र! परम पुरुष भगवान 
जिनसे बढ़कर कोई भी नहीं है।
उसको प्राप्त करने के रास्तों में 
अनन्य भक्ति ही सबसे सही है।।

वैसे तो वे अपने परम धाम में 
सदा सर्वदा विराजमान रहते हैं।
सब कुछ उनमें स्थित होता है 
और वे सबके भीतर भी होते हैं।।

अध्याय-8, श्लोक-21

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्‌ ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ २१ ॥
जिसे वेदान्ती अप्रकट और अविनाशी बताते हैं, जो परम गंतव्य है, जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई वापस नहीं आता वही मेरा परमधाम है।
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वेदों में जिसे अविनाशी और
अप्रकट नाम से कहा गया है।
जो जीवों के लिए सदा से ही
परम गंतव्य का स्थान रहा है।।

जहाँ पहुँचकर कोई भी जीव
कभी वापस यहाँ नहीं आता।
यही पावन आंदनमय स्थान
मेरा परम धाम कहलाता है।।

Sunday, December 18, 2016

अध्याय-8, श्लोक-20

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥ २० ॥
इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यक्त प्रकृति है, जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है। यह परा (श्रेष्ठ) और कभी नाश न होनेवाली है। जब इस संसार का सबकुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता।
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इसके अतिरिक्त एक और भी 
परम अव्यक्त प्रकृति होती है।
जो इस व्यक्त अव्यक्त से परे 
और शाश्वत तथा परम होती है।।

यह श्रेष्ठ और अविनाशी प्रकृति 
अनादि से अनंत काल तक रहती।
संसार का सबकुछ नष्ट हो जाता 
फिर भी ये कभी नष्ट नहीं होती।।

अध्याय-8, श्लोक-19

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥ १९ ॥
जब-जब ब्रह्मा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत विलीन हो जाते हैं।
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हे पृथापुत्र! ये जो जितने जीव है 
वे सब ही बारबार प्रकट होते हैं ।
और बारबार प्रकट होकर उतनी  
ही बार फिर विलीन भी होते हैं।।

जब-जब ब्रह्मा की रात्रि आती है 
समस्त जीव अव्यक्त हो जाते हैं।
और जब ब्रह्मा का दिन आता है 
वे सब फिर से व्यक्त हो आते हैं।।

अध्याय-8, श्लोक-18

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥ १८ ॥
ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुनः अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं।
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ब्रह्मा के दिन की शुरुआत होती  
सारे जीवों को वह प्रकट करती है।
पहले जो जीव होते हैं अव्यक्त 
उन सब जीवों को व्यक्त करती है।।

जब ब्रह्मा की रात्रि आती है तब 
सब पुनः अव्यक्त में समा जाते है।
वह अव्यक्त जिसमें जीव समाते 
उसको हम ब्रह्म नाम से जानते हैं।।

अध्याय-8, श्लोक-17

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ (१७)
मानवीय गणना के अनुसार एक हज़ार युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन बनता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है।
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सतयुग,त्रेता,द्वापर औ कलियुग
चारों मिल एक चतुर्युग बनते हैं।
ऐसे हजार चतुर्युग मिलते तो उसे  
उसे ब्रह्मा का एकदिन कहते हैं।।

ऐसी ही बड़ी हजार चतुर्युगों की
ब्रह्मा की एक रात्रि भी होती है।
समय के तत्त्व को जान पाते हैं
जिन्हें इसकी जानकारी होती है।।

Friday, December 16, 2016

अध्याय-8, श्लोक-16

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १६ ॥
इस जगत में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतर सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है। किंतु हे कुंतीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता।
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हे अर्जुन!इस ब्रह्मांड में निम्नलोक 
से ले ब्रह्मा जी के ब्रह्मलोक तक।
हर लोक के निवासी हैं मरणशील
 लगा रहता जन्म-मृत्यु का चक्कर।।

किंतु कुन्तीपुत्र! मेरा लोक है भिन्न 
वहाँ जा कभी कोई नहीं आता है।
जो पा लेता मेरे लोक को उसके 
पुनर्जन्म का चक्कर छूट जाता है।।

अध्याय-8, श्लोक-15

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्‌ ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥ १५ ॥
मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है।
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मुझे प्राप्त कर लेने के बाद इस 
संसार में फिर आना नहीं पड़ता।
दुःख भरे इस क्षणिक जगत में 
फिर आ कष्ट उठाना नहीं पड़ता।।

नहीं लौटते मेरे भक्त यहाँ दुबारा 
एक़बार जो वे मुझे पा जाते हैं।
परम सिद्धि को प्राप्त करके जो 
वे एक़बार मेरे धाम आ जाते हैं।।

अध्याय-8, श्लोक-14

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः ॥ १४ ॥
हे अर्जुन! जो अनन्य भाव से मेरा स्मरण करता है उसके लिए मैं सुलभ हूँ, क्योंकि वह मेरी शक्ति में प्रवृत्त रहता है।
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हे पृथापुत्र! जो मनुष्य मेरे सिवा 
कहीं और मन को नहीं लगाता।
सदैव मेरे ही चिंतन में रहता और 
नियमित रूप से स्मरण है करता।।

ऐसी नियमित आराधना जो करे 
उन लोगों के लिए सदा सुलभ हूँ।
मेरी भक्ति में लगे भक्तों के लिए 
मैं तनिक भी नहीं कभी दुर्लभ हूँ।।

अध्याय-8, श्लोक-13

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌ ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌ ॥ १३ ॥
इस योगाभ्यास में स्थित होकर तथा अक्षरों के परम संयोग यानी ओंकार का उच्चारण करते हुए यदि कोई भगवान का चिंतन करता है और अपने शरीर का त्याग करता है, तो वह निश्चित रूप से आध्यात्मिक लोकों को जाता है।
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शरीर त्यागने के समय का भाव
निर्धारित करता है आगे का पथ।
ॐ का उच्चारण करते हुए अगर
रहता कोई मेरे ही चिंतन में रत।।

ऐसे दिव्य भाव में शरीर को त्याग
वह मनुष्य परम पद को पाता है।
इस जगत को छोड़ने के उपरांत
वह अवश्य ही मेरे धाम जाता है।।

Thursday, December 15, 2016

अध्याय-8, श्लोक-12

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्‌ ॥ १२ ॥
समस्त इन्द्रिय क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति (योगधारणा) कहा जाता है। इंद्रियों के समस्त द्वारों को बंद करके तथा मन को हृदय में और प्राणवायु को सिर पर केंद्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है।
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शरीर के सभी द्वारों को 
वश में कर बंद करता है।
मन को स्थिर करके उसे 
बस हृदय में लगाता है।।

प्राणवायु को समेट जब 
उसे वो सिर में रोकता है।
इसतरह मनुष्य स्वयं को 
योग में स्थापित करता है।।

अध्याय-8, श्लोक-11

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ ११ ॥
जो वेदों का ज्ञाता है, जो ओंकार का उच्चारण करते हैं और जो संन्यास आश्रम के बड़े-बड़े मुनि हैं, वे ब्रह्म में प्रवेश करते हैं, ऐसी सिद्धि की इच्छा करनेवाले ब्रह्मचर्यव्रत का अभ्यास करते हैं। अब मैं तुम्हें वह विधि बताऊँगा, जिससे कोई भी व्यक्ति मुक्ति-लाभ कर सकता है।
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वेदों का ज्ञान रखनेवाले जिसे 
अविनाशी कह कर पुकारते हैं।
संन्यास आश्रम के बड़े-बड़े मुनि 
जिस ब्रह्म के भीतर प्रवेश पाते हैं।।

उस परम पद को पाने हेतु व्यक्ति
ब्रह्मचर्य व्रत का पालन  है करता।
मैं तुम्हें विधि बतलाता हूँ जिससे
व्यक्ति मुक्ति लाभ है कर सकता।।

अध्याय-8, श्लोक-10

प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्‌- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्‌ ॥ १० ॥
मृत्यु के समय जो व्यक्ति अपने प्राण को भौंहों के मध्य स्थित कर लेता है और योगशक्ति के द्वारा अविचलित मन से पूर्णभक्ति के साथ परमेश्वर के स्मरण में अपने को लगाता है, वह निश्चित रूप से भगवान को प्राप्त होता है।
***********************************
मृत्यु के समय जिस मनुष्य का
मन पूर्णरूप से भक्ति में रहता है।
योग शक्ति द्वारा प्राण को जो
भौंहौं के बीच स्थिर कर लेता है।।

भगवान को ऐसे याद करनेवाला
हर तरह के बंधन से छूट जाता है।
इस नश्वर शरीर को छोड़ कर वह
भगवान के परम धाम को पाता है।।

Wednesday, December 14, 2016

अध्याय-8, श्लोक-9

कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌ ॥ ९ ॥ 
मनुष्य को चाहिए कि वह परम पुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियंता,लघुतम से भी लघुतर, प्रत्येक का पालनकर्त्ता, समस्त भौतिकबुद्धि से परे, अचिंत्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे। वे सूर्य की भाँति तेजवान हैं और इस भौतिक प्रकृति से परे, दिव्य रूप हैं।
**************************************
सबके विषय में है वो जानता 
वह परम पुरुष जो पुरातन है।
यह जगत जिसके नियंत्रण में 
जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम है।।

सभी का पालन करनेवाला वह 
इस बुद्धि से परे स्वरूप उसका।
मनुष्य ध्यान करे नित्य पुरुष का 
सूर्य के समान ही तेज जिसका।।

अध्याय-8, श्लोक-8

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌ ॥ ८ ॥
हे पार्थ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरंतर लगाये रखकर अविचलित भाव से भगवान के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है।
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हे पार्थ! जो सदा मेरा स्मरण करता 
मन को मुझमें ही लगाए है रखता।
चेतना मेरे सिवा कहीं और न जाए 
निरंतर इसके लिए अभ्यास करता।।

ऐसा अविचल भाव होता जिसका  
सदा मेरा ही चिंतन करता रहता है।
मेरे विषय में चिंतन करते-करते वह 
एक दिन मुझे अवश्य पा जाता है।।

Tuesday, December 13, 2016

अध्याय-8, श्लोक-7

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌ ॥ ७ ॥
अतएव हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिंतन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्त्तव्य को भी पूरा करना चाहिए। अपने कर्मों को मुझ समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे।
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इसलिए हे अर्जुन! तुम सदा ही 
मेरे स्वरूप का चिंतन करते रहो।
पर मेरे स्मरण के साथ-साथ ही 
अपना युद्ध का कर्त्तव्य भी करो।।

कर्मों को मुझे अर्पित करके जब 
मन, बुद्धि को मुझमें लगाओगे।।
मेरी शरणागति लेने के बाद तुम 
अवश्य मुझे प्राप्त कर पाओगे।।

अध्याय-8, श्लोक-6

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्‌ ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ ६ ॥
हे कुंतिपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।
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हे कुंतिपुत्र! जीवन के अंत में 
जैसी होती है मनुष्य की मति।
उसी से निर्धारित होता है कि 
कैसी होगी आगे उसकी गति।।

मनुष्य उस समय जिस-जिस 
भाव का स्मरण करता रहता है।
उससे ही उसके अगले कलेवर 
या मुक्ति का निर्धारण होता है।।

अध्याय-8, श्लोक-5

अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌ ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ ५ ॥
और जीवन के अंत में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरंत मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है। इसमें रंचमात्र भी संदेह नहीं है।
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अपने जीवन के अंतिम क्षण में 
मुझमें ही जिसका ध्यान रहता है।
मेरा ही स्मरण करते-करते जो 
अपने शरीर का त्याग करता है।।

ऐसे व्यक्ति मेरा ही स्वभाव यानि 
स्वयं मुझे ही प्राप्त कर जाते हैं।
इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि 
वे मेरे पास ही लौटकर आते है।।

अध्याय-8, श्लोक-4

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌ ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥ ४ ॥
हे देहधारियों में श्रेष्ठ! निरंतर परिवर्तनशील यह भौतिक प्रकृति अधिभूत (भौतिक अभिव्यक्ति) कहलाती है। भगवान का विराट रूप जिसमें सूर्य तथा चंद्र जैसे समस्त देवता सम्मिलित हैं, अधिदैव कहलाता है। तथा प्रत्येक देहधारी के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित मैं परमेश्वर अधियज्ञ (यज्ञ का स्वामी) कहलाता हूँ।
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हे देहधारियों मे श्रेष्ठ अर्जुन! सुनो
भौतिक प्रकृति जो बदलती रहती।
वह परिवर्तनशील स्वभाव वाली
प्रकृति ही अधिभूत कहलाती है।।

सूर्य, चंद्र समेत सारे देवी-देवता
जिसके भीतर समाहित रहते हैं।
मेरे उसी विशाल विराट रूप को 
शास्त्र,साधु  आधिदैव कहते हैं।।

प्रत्येक जीव के हृदय में रहता हूँ 
मैं अंतर्यामी परमात्मा के रूप में।
मैं ही हूँ वह परम यज्ञ भोक्ता 
सारे यज्ञ अर्पित होते हैं जिसमें।।

अध्याय-8, श्लोक-3

श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥ ३ ॥
भगवान ने कहा -अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म या आत्म कहलाता है। जीवों के भौतिक शरीर से सम्बंधित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है।
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भगवान ने बताया कि दिव्य और 
अविनाशी जीव ब्रह्म कहलाता है।
और उसका सहज स्थिर स्वभाव 
अध्यात्म के नाम से जाना जाता है।।

जीव अपने भौतिक शरीर के लिए 
जितने भी अच्छे-बुरे कार्य करते हैं।
उनके द्वारा किए गए इन कार्यों को 
शास्त्र सकाम कर्म का नाम देते हैं।।

अध्याय-8, श्लोक-2

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥ २ ॥
हे मधुसूदन! यज्ञ का स्वामी कौन है और वह शरीर में कैसे रहता है? और मृत्यु के समय भक्ति में लगे रहने वाले आपको कैसे जान पाते हैं?
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हे मधुसूदन! मुझे बताए कि 
कौन यज्ञ का स्वामी होता है?
यह भी मुझे समझाए प्रभु कि 
कैसे वह इस शरीर में रहता है?

अंतिम क्षण कैसी होता उनका 
जो आपकी भक्ति में होते हैं?
कैसे ऐसे आत्म-संयमी मनुष्य 
आत्म समय में आपको जानते हैं?

अध्याय-8, श्लोक-1

अर्जुन उवाच
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ १ ॥
अर्जुन ने कहा-हे भगवान! हे पुरुषोत्तम! ब्रह्म क्या है? आत्मा क्या है?सकाम कर्म क्या है? यह भौतिक जगत क्या है? तथा देवता क्या है? कृपा करके यह सब मुझे बतायिये।
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अर्जुन ने कहा कि हे भगवन! 
मन उठ रही कुछ जिज्ञासा है।
ब्रह्म का अर्थ क्या होता और 
अध्यात्म की क्या परिभाषा है?

कर्म क्या होता है प्रभु और 
भौतिक जगत किसे कहते हैं?
मुझे बतायिये हे पुरुषोत्तम!
देवता कहाँ रहते क्या करते हैं?

Friday, December 9, 2016

अध्याय-7, श्लोक-30

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥ ३० ॥
जो मुझ परमेश्वर को मेरी पूर्ण चेतना में रहकर मुझे जगत का, देवताओं का तथा समस्त यज्ञविधियों का नियामक जानते हैं, वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान को जान और समझ सकते हैं।
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जो मनुष्य यह जानता है कि 
मैं ही हूँ इस जगत का कर्त्ता।
सारे देवता हैं मेरे नियंत्रण में
मैं ही सारे यज्ञों का भोक्ता।।

इस ज्ञान से अभिभूत मनुष्य 
सदा मेरा ही चिंतन करता है।
ऐसा व्यक्ति अंत समय में भी 
मुझे जानता और समझता है।।

****** भगवद्ज्ञान नाम का सातवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-7, श्लोक-29

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्‌ ॥ २९ ॥
जो जरा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, वे बुद्धिमान व्यक्ति मेरी भक्ति की शरण ग्रहण करते हैं। वे वास्तव में ब्रह्म हैं क्योंकि वे दिव्य कर्मों के विषय में पूरी तरह से जानते हैं।
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बुढ़ापा और मृत्यु के बंधन से 
जो मुक्ति का प्रयास करते हैं।
ऐसे लोग ही होते हैं बुद्धिमान 
और मेरी शरण में ही आते हैं।।

ब्रह्म पद पर आसीन हैं ये लोग 
दिव्य कर्मों को भी ये जानते हैं।
मुझसे ही मिल सकती है मुक्ति 
ये सत्य भी भलीभाँति मानते हैं।।

अध्याय-7, श्लोक-28

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्‌ ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥ २८ ॥
जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किए हैं और जिनके पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन हो चुका होता है, वे मोह के द्वंद्वों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्पपूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं।
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इस जन्म या पूर्व के जन्मों में
पुण्य ही कमाया है जिसने।
पाप जिसके शेष बचे नहीं 
इसे समूल मिटाया है जिसने।।

उनका मन मोह के द्वंद्वों में 
उलझकर नहीं रह जाता है।
मन तो दृढ़ संकल्प के साथ 
मेरी भक्ति में लग जाता है।।

Thursday, December 8, 2016

अध्याय-7, श्लोक-27

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥ २७ ॥
हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वंद्वों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते हैं।
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हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता!
सुनो जीव के जन्म की गाथा।
अपने मोह के कारण ही वह
इस जग में बारम्बार है आता।।

इस  संसार के सारे प्राणी ही
इच्छा-द्वेष के द्वंद्व में ही रहते।
द्वंद्वों से उपजे मोह के कारण
जन्म ले फिर से मोहित होते।।


अध्याय-7, श्लोक-26

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥ २६ ॥
हे अर्जुन! भगवान होने के नाते मैं जो भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ। मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ पर मुझे कोई नहीं जानता।
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हे अर्जुन! भूत,वर्तमान,भविष्य
सबकुछ मैं जानता हूँ सबका।
मुझसे कुछ भी छुपा न  रहता
जो भी कभी कहीं है घटता।।

कोई भी मुझसे अनजान नहीं
जो भी जग में आता,जाता है।
मैं तो हरकिसी को जानता पर
मुझे कोई नहीं जान पाता है।।

Wednesday, December 7, 2016

अध्याय-7, श्लोक-25

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्‌ ॥ २५ ॥
मैं मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूँ। उनके लिए तो मैं अपनी अंतरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूँ, अतः वे यह नहीं जान पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ।
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अपनी अंतरंगा शक्ति द्वारा 
मैं जग में आच्छादित रहता।
अपने वास्तविक स्वरूप में 
सबके लिए प्रकट नहीं होता।

इसलिए मूर्ख,अज्ञानी मनुष्य
सदा संशय में ही घिरे रहते हैं। 
मैं हूँ अविनाशी और अजन्मा 
इस तथ्य को नहीं समझते हैं।।

अध्याय-7, श्लोक-24

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्‌ ॥ २४ ॥
बुद्धिहीन मनुष्य मुझको ठीक से न जानने के कारण सोचते हैं कि मैं (भगवान कृष्ण) पहले निराकार था और अब मैंने इस स्वरूप को धारण किया है। वे अपने अल्पज्ञान के कारण मेरी अविनाशी तथा सर्वोच्च प्रकृति को नहीं जान पाते।
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बुद्धिहीन व्यक्ति मुझे ठीक से 
जब जान-समझ ही नहीं पाते हैं।
तो मुझ अजन्मा परमेश्वर को भी
मनुष्य की भाँति जन्मा बताते हैं।।

अपनी अज्ञानता के कारण मेरा 
अविनाशी रूप नहीं वे जान पाते।
और मेरी प्रकृति का परम प्रभाव 
समझने से वे वंचित ही रह जाते।।

अध्याय-7, श्लोक-23

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ २३ ॥
अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं। देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किंतु मेरे भक्त अंततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं।
**************************************
कम बुद्धि होती है जिनकी वही
देवी-देवताओं की पूजा करते हैं।
तभी चिर सुख को छोड़ कर वे
क्षणिक सुख के पीछे दौड़ते हैं।।

समाप्त होने वाला सुख मिलता
बहुत तो देवलोक तक वे जाते।
पर मेरे भक्त तो मेरा धाम पाते
जहाँ से वे कभी वापस न आते।।

Tuesday, December 6, 2016

अध्याय-7, श्लोक-22

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्‌ ॥ २२ ॥
ऐसी श्रद्धा से समन्वित वह देवता विशेष की पूजा करने का यत्न करता है और अपनी इच्छा की पूर्ति करता है। किंतु वास्तविकता तो यह है कि ये सारे लाभ केवल मेरे द्वारा प्रदत्त हैं।
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वह भक्त सुख के लिए श्रद्धा से 
युक्त हो देवताओं को पूजता है।
जिन कामनाओं की इच्छा होती 
उन सबको वह प्राप्त करता है।।

लगता तो ऐसा कि देवताओं ने 
पूजा के बदले पूर्ण की कामना।
पर वास्तव में मैं देता सारे लाभ
चाहे किसी की करे आराधना।।

अध्याय-7, श्लोक-21

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌ ॥ २१ ॥
मैं प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित हूँ। जैसे ही कोई किसी देवता की पूजा करने की इच्छा करता है, मैं उसकी श्रद्धा को स्थिर करता हूँ, जिससे वह उसी विशेष देवता की भक्ति कर सके।
****************************************
देवी देवताओं के पूजा की इच्छा 
जब किसी भक्त के मन में होती।
उसकी यह कामना जैसे ही मुझ 
अंतर्यामी परमात्मा तक पहुँचती।।

तो देवी-देवताओं के जिन स्वरूप 
को पूजने की वह इच्छा है करता।
उन्हीं  देवी-देवताओं के  प्रति मैं 
उसकी श्रद्धा को स्थिर कर देता।।

Monday, December 5, 2016

अध्याय-7, श्लोक-20

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ २० ॥
जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा के विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं।
***************************************
इस जग की कामनाओं ने 
जिनकी बुद्धि नष्ट कर दी है।
उन्होंने ही उसकी पूर्ति हेतु 
देवताओं की शरण ली है।।

अपने स्वार्थ के अनुसार वे 
देवताओं का चयन करते हैं।
जैसा होता स्वभाव जिनका 
वैसा विधि-विधानों चुनते हैं।।

अध्याय-7, श्लोक-19

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ १९ ॥
अनेक जन्म-जन्मांतर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है। ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ होता है।
**********************************
अनेकों जन्म लेने बाद जब  
अंतिम जन्म उसका आता है।
तब उस जन्म में वह ज्ञानी 
मेरी शरण में पहुँच पाता है।।

मैं ही सबमें और सब मुझमें 
मुझ ही सबका कारण माने।
बड़े दुर्लभ होते ऐसे महात्मा 
जो मुझे जैसा हूँ वैसा जाने।।

अध्याय-7, श्लोक-18

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌ ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्‌ ॥ १८ ॥
निस्सन्देह ये सब उदारचेता व्यक्ति हैं, किंतु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त हैं, उसे मैं अपने ही समान मानता हूँ। वह मेरी दिव्यसेवा में तत्पर रहकर मुझ सर्वोच्च उद्देश्य को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।
*****************************************
चारों ही प्रकार के भक्त 
सबके प्रति उदार रहते हैं।
लेकिन उनमें जो ज्ञानी हैं 
वे मेरा स्वरूप ही होते हैं।।

सदा ही मेरी सेवा में तत्पर  
मुझमें ही रहता मन उनका।
मैं ही होता सर्वोच्च लक्ष्य 
ज्ञानी भक्तों के जीवन का।।

अध्याय-7, श्लोक-17

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥ १७ ॥
इनमे से जो परमज्ञानी है और शुद्धभक्ति में लगा रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यंत प्रिय हूँ और वह मुझे प्रिय है।
************************************
इन चारों में से जो ज्ञानी है 
वही सबमें सर्वश्रेष्ठ होता।
सदा ही मेरी शुद्धभक्ति में 
अनन्य भाव से लगा रहता।।

क्योंकि इन ज्ञानी भक्तों को 
मैं अत्यंत ही प्रिय होता हूँ।
मुझको भी ये प्रिय होते हैं 
मैं भी इनसे प्रीति रखता हूँ।।

अध्याय-7, श्लोक-16

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥ १६ ॥
हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं-आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी।
**********************************
हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! चार तरह के 
लोग हैं जो मेरी शरण में आते हैं।
पुण्यात्मा होते हैं ये सब-के-सब 
तभी ये मुझ तक पहुँच पाते हैं।।

पहला प्रकार होता है उनका जो 
दुःख से निवृत्ति मुझसे चाहते हैं।
दूसरे होते हैं वे लोग जो मुझसे 
जीवन में धन, सम्पदा माँगते हैं।।

तीसरा प्रकार है जिज्ञासुओं का 
जो मुझसे कुछ जानना चाहते हैं।
चौथे होते हैं ज्ञानी जन जो सब 
जानते हुए मुझे अपना बनाते हैं।।

अध्याय-7, श्लोक-15

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥ १५ ॥
जो निपट मूर्ख हैं, मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करनेवाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते।
*****************************************
अधर्मी, दुष्ट स्वभाव का व्यक्ति 
जिसका ज्ञान माया ने हर लिया।
वह निपट मूर्ख जिसने असुरों का 
नास्तिक स्वभाव धारण किया।।

वह तो मनुष्यों में अधम है होता 
और मेरी शरण में कभी न आता।
मेरी माया उसे यहाँ-वहाँ नचाती 
और वह व्यर्थ के दंभ में है रहता।।

Sunday, December 4, 2016

अध्याय-7, श्लोक-14

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ १४ ॥
प्रकृति के तीन गुणों वाली मेरी इस दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है। किंतु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से उसे पार कर जाते हैं।
**************************************
प्रकृति के जो तीन गुण है वे 
मेरी दैवी शक्ति का हिस्सा है।
मनुष्य के लिए इन्हें पार करना
बड़ा ही कठिन, असंभव-सा है।।

लेकिन जो मेरी शरण ले लेते 
वे इन गुणों में उलझ नहीं पाते।
बड़ी ही सरलता से जीवन में वे 
इस माया को है पार कर जाते।।

अध्याय-7, श्लोक-13

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥ १३ ॥
तीनों गुणों (सतो, रजो तथा तमो) के द्वारा मोहग्रस्त यह सारा संसार मुझ गुणातीत तथा अविनाशी को नहीं जानता।
**************************************
यह सारा संसार प्रकृति के 
तीन गुणों से मोहित रहता।
गुणों की लहरों के बीच ही 
भवसागर में डूबता-उतरता।।

गुणों में फँसे लोग जगत के 
मुझे कभी समझ नहीं पाते।
मैं हूँ अविनाशी, गुणों से परे 
ये सत्य कहाँ वे जान पाते।।

अध्याय-7, श्लोक-12

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥ १२ ॥
तुम जान लो कि मेरी शक्ति द्वारा सारे गुण प्रकट होते हैं, चाहे वे सतोगुण हो, रजोगुण हो या तमोगुण हो। इसप्रकार मैं सब कुछ हूँ, किंतु हूँ स्वतंत्र। मैं प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूँ, अपितु वे मेरे अधीन हैं।
*********************************
सतो, रजो और तमोगुण जो 
ये प्रकृति तीन गुण होते हैं।
तुम जान लो कि ये सारे गुण 
मेरी शक्ति से प्रकट होते हैं।।

मैं सब कुछ हूँ, सब मुझसे है 
किंतु मैं सदा स्वतंत्र रहता हूँ।
प्रकृति के गुण मेरे अधीन है 
मैं इनके अधीन नहीं होता हूँ।।

अध्याय-7, श्लोक-11

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥ ११ ॥
मैं ही बलवानों का कामनाओं तथा इच्छा से रहित बल हूँ। हे भरतश्रेष्ठ! (अर्जुन)! मैं वह काम हूँ जो धर्म के विरूद्ध नहीं है।
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जिसमें कोई कामना नहीं है 
और न ही कोई आसक्ति है।
हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! मैं ही हूँ 
बलवानों में जो शक्ति है।।

मैं वह विषयी जीवन भी हूँ 
जो शास्त्र अनुसार होता है।
हर ही कार्य मुझसे जुड़ा है  
जो धर्म के अधीन रहता है।।

अध्याय-7, श्लोक-10

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्‌ ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ ॥ १० ॥
हे पृथापुत्र! यह जान लो कि मैं ही समस्त जीवों का आदि बीज हूँ, बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज़ हूँ।
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हे पार्थ! मुझको ही तुम इस 
सारी सृष्टि का कारण मानो।
मुझसे अलग यहाँ कुछ नहीं
सबको मुझसे उत्पन्न जानो।।

मैं ही तो समस्त प्राणियों का   
आदि और शाश्वत बीज हूँ।।
बुद्धिमानों की बुद्धि भी मैं औ 
मैं ही तेजस्वियों का तेज़ हूँ।।

अध्याय-7, श्लोक-9

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥ ९ ॥
मैं ही पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूँ। मैं समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ।
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पृथ्वी से आती
पवित्र सुगंध मैं।
अग्नि में उपस्थित
ऊष्मा भी मैं।।

समस्त जीवों का
मैं ही जीवन हूँ।
तपस्वियों का मैं
तप साधन हूँ।।