Friday, September 30, 2016

अध्याय-1,श्लोक-39

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥ ३९ ॥
कुल का नाश होने पर सनातन कुल-परम्परा नष्ट हो जाती है और इस तरह शेष कुल भी अधर्म में प्रवृत्त हो जाता है।
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हमारी सनातन कुल-परम्पराएँ भी
इस युद्ध के बाद नष्ट हो जाएँगी।
जब कुल ही नही रहेगा तो फिर
प्रभु, ये परम्पराएँ कहाँ से आएँगी।

घर के वयोवृद्धों का यूँ निधन तो
संस्कारों-परम्पराओं पर प्रहार होगा।
शेष कुल का अधर्म में प्रवृत्त होना
संस्कारों की कमी का उपहार होगा।

अध्याय-1,श्लोक-37-38

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्‌ ॥ ३८॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌ ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ३९॥

हे जनार्दन! यद्यपि लोभ से अभिभूत चित्त वाले ये लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रों से द्रोह करने में कोई दोष नही देखते किंतु हम लोग, जो परिवार के विनष्ट करने में अपराध देख सकते हैं, ऐसे पापकर्मों में क्यों प्रवृत्त हों?
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हे जनार्दन! अंतर है हममें और उनमें 
हम उनकी तरह तो लोभी नही है।
हमें देख सकते हैं परिणाम युद्ध का 
हमें पता क्या ग़लत, क्या सही है।

वे नही देख सकते मित्र द्रोह के दोष 
पर ये अपराध है, हम तो जानते हैं।
परिवार के विनाश पर तुले भले वे 
पर ये पापकर्म है, हम तो जानते हैं।

अध्याय-1,श्लोक-36

पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ हत्वैतानाततायिनः ।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌ ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ ३६॥

अगर हम ऐसे आततायियों का वध करते हैं तो हम पर पाप चढ़ेगा, अतः यह उचित नही होगा कि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा उनके मित्रों का वध करें। हे लक्ष्मीपति कृष्ण ! इससे हमें क्या लाभ होगा ? और अपने ही कुटुम्बियों को मार कर हम किस प्रकार सुखी हो सकते हैं?
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जिन आततायियों के वध की
अनुमति हमारा शास्त्र भी देता है।
जिनका कार्य धर्म और समाज
दोनों को ही  व्यथित करता है।

उनके पक्ष व हित की बातें आज
अर्जुन मोहवश कृष्ण से कर रहे।
अपने सुख औ संबंधियों की बातें
क्षत्रीय धर्म से ऊपर भी रख रहे।

पूछ रहे हैं लक्ष्मीपति से मार इन्हें
हमें क्या सुख और लाभ मिलेगा?
धृतराष्ट्र के पुत्रों को गर मारा तो
प्रभु हम पर भी तो पाप चढ़ेगा।

Wednesday, September 21, 2016

अध्याय-1,श्लोक-32-35

किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ।
येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥ ३२॥
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥ ३३॥
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ॥ ३४॥
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ॥ ३५॥


हे गोविंद ! हमें राज्य, सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ ! क्योंकि जिन सारे लोगों के लिए हम उन्हें चाहते हैं वे ही इस युद्धभूमि में खड़े हैं। हे मधुसूदन ! जब गुरुजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, सालें तथा अन्य सारे सम्बन्धी अपना - अपना धन एवं प्राण देने के लिए तत्पर हैं और मेरे समक्ष खड़े हैं तो फिर मैं इन सबको क्यों मारना चाहूँगा, भले ही वे मुझे क्यों न मार डाले? हे जीवों के पालक ! मैं इन सबों से लड़ने को तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीनों लोक क्यों न मिलते हो, इस पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें। भला धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन -सी प्रसन्नता मिलेगी?

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करुणा व दया के कारण
और ममता के अतिरेक में।
भूलकर सारे प्रण व प्रतिज्ञा
डूबें रहे अर्जुन अब शोक में।।


राज्य, सुख और ये जीवन तो
अपनों के संग ही भला लगे।
पाकर भी इनको क्या करूँगा
जब पाने में छूट जाएँगे सगे।।


गुरु, पिता, पुत्र और पितामह
ससुर, पौत्र, साले सारे संबंधी।
ऐसा पड़ा है मोह का पर्दा कि
विवेक की आँखें हो रही अँधी।।


पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें
मिल जाए चाहे मुझे तीनों लोक।
मैं नही लड़ूँगा अपनों से क्योंकि
मिलेनवाला है मुझे सिर्फ़ शोक।।