Saturday, December 24, 2016

अध्याय-9, श्लोक-11

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌ ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌ ॥ ११
जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।
**********************************
जब-जब मेरा मनुष्य रूप में इस
धरा-धाम पर अवतरण होता है।
मूर्ख मनुष्यों को मेरा दिव्य शरीर
अपने तरह ही भौतिक  लगता है।

वे तब मेरा उपहास हैं उड़ाते और
अपनी भाँति मरणशील समझते।
मैं ही हूँ सारे जीवों का परमेश्वर
मेरा स्वभाव वे जान ही नहीं पाते।।

Friday, December 23, 2016

अध्याय-9, श्लोक-10

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥ १० ॥
हे कुंतीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी ही शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं।इसके शासन में यह जगत बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है।
**********************************
हे कुंतीपुत्र! चर-अचर से समाहित ये 
भौतिक प्रकृति मेरी ही एक शक्ति है।
मेरी द्वारा ही होती है संचालित और 
मेरी अध्यक्षता में ही ये कार्य करती है।।

मेरे अधीन है वह और उसके शासन में 
जगत बारबार उत्पन्न-विनष्ट होता है।
मेरा प्रत्यक्ष कोई लेना-देना नही होता 
प्रकृति से ही जग परिवर्तित होता है।।

अध्याय-9, श्लोक-9

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ ९ ॥
हे धनंजय! ये सारे कर्म मुझे नहीं बाँध पाते। मैं उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ।
************************************
हे धनंजय! ये जितने भी कर्म 
मेरे द्वारा सम्पन्न किए जाते।।
उनमें से कोई भी मुझे अपने 
कर्म बंधन में बाँध नहीं पाते।।

क्योंकि मैं उन्हें किसी फल 
की इच्छा से नहीं करता हूँ।
मैं तो कर्म व फल दोनों से 
हमेशा ही विरक्त रहता हूँ।।

अध्याय-9, श्लोक-8

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्‌ ॥ ८ ॥
सम्पूर्ण विराट जगत मेरे अधीन है। यह मेरी इच्छा से बारम्बार स्वतः प्रकट होता रहता है और मेरी ही इच्छा से अंत में विनष्ट होता है।
*******************************
ये विशाल जगत, ये सम्पूर्ण सृष्टि 
मेरे अधीन रहकर ही कार्य करती।
जीवों की चौरासी लाख योनियाँ 
अपनी इच्छाएँ मुझसे पूरी करती।।

मेरी इच्छा से ही तो बारबार स्वयं 
यह जगत प्रकट होता ही रहता है।
प्रकट होकर फिर सृष्टि के अंत में 
मेरी ही इच्छा से विनष्ट होता है।।

अध्याय-9, श्लोक-7

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्‌ ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्‌ ॥ ७ ॥
हे कुंतीपुत्र! कल्प का अंत होने पर सारे प्राणी मेरी प्रकृति में प्रवेश करते हैं और अन्य कल्प के आरम्भ होने पर मैं उन्हें अपनी शक्ति से पुनः उत्पन्न करता हूँ।
**********************************
हे कुंतीपुत्र!! मेरी ही शक्ति से 
जीवों के जीवन चक्र चलते है।
कल्प का जब अंत होता तब 
सब मुझमें ही प्रवेश करते हैं।।

अन्य कल्प के आरम्भ होने पर 
मेरी शक्ति से ही उत्पन्न होते।
मुझसे ही सृजन,मुझसे संहार 
मुझसे ही सारे प्राणी हैं पलते।।

Thursday, December 22, 2016

अध्याय-9, श्लोक-6

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥ ६ ॥
जिस प्रकार सर्वत्र प्रवहमान प्रबल वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार समस्त उत्पन्न प्राणियों को मुझसे उत्पन्न जानो।
*********************************
सब जगह बहने वाली वायु
अत्यंत प्रबल और है महान ।
लेकिन उसका सदा ही रहता
आकाश के भीतर ही स्थान।।

वैसे ही जितने भी प्राणी हुए
उत्पन्न इस विशाल सृष्टि में।
सब मुझमें ही स्थित है रहते
सबका स्थान है मेरी दृष्टि में।।

Wednesday, December 21, 2016

अध्याय-9, श्लोक-5

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥ ५ ॥
तथापि मेरे द्वारा उत्पन्न सारी वस्तुएँ मुझमें स्थित नहीं रहती। ज़रा मेरे योग-ऐश्वर्य को देखो! यद्यपि मैं समस्त जीवों का पालक (भर्ता) हूँ और सर्वत्र व्याप्त हूँ, लेकिन मैं इस विराट अभिव्यक्ति का अंश नहीं हूँ क्योंकि मैं सृष्टि का कारणस्वरूप हूँ।
******************************
मेरे द्वारा उत्पन्न हुई सारी वस्तुएँ
सदा मुझमें स्थित नहीं भी रहती।
फिर भी मेरा योग ऐश्वर्य देखो कि
सारी सृष्टि मेरे बल ही है पलती।।

सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त हूँ फिर भी
इस विराट सृष्टि का अंश नहीं हूँ।
क्योंकि जो भी यहाँ दृश्य-अदृश्य
इन सबका परम कारण मैं ही हूँ।।

Tuesday, December 20, 2016

अध्याय-9, श्लोक-4

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः ॥ ४ ॥
यह सम्पूर्ण जगत मेरे अव्यक्त रूप द्वारा व्याप्त है। समस्त जीव मुझमें है, किंतु मैं उनमें नहीं हूँ।
********************************
दिखाई देता यह सारा संसार 
मेरे अव्यक्त रूप के कारण।
सम्पूर्ण जगत को मैंने ही तो 
कर रखा है स्वयं में धारण।।

सारे जीव जगत के मुझमें हैं 
सम्पूर्ण जगत में मैं स्थित हूँ।
सब हैं मेरे ही भीतर लेकिन 
मैं नहीं  उनमें  अवस्थित हूँ।।

अध्याय-9, श्लोक-3

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥ ३ ॥
हे परन्तप! जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते। अतः वे इस भौतिक जगत् में जन्म-मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं।
********************************
हे परन्तप! जग के जो लोग 
भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते हैं।
वे जीवन में अपने कभी भी 
मुझे प्राप्त नहीं कर सकते हैं।।

मुझे प्राप्त न करने का अर्थ  
यही संसार रहेगा ठिकाना।
जन्म लेकर बारम्बार आना 
मृत्यु के संग फिर से जाना।।

अध्याय-9, श्लोक-2

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्‌ ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्‌ ॥ २ ॥
यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है। यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा के प्रत्यक्ष अनुभूति करानेवाला है, अतः यह धर्म का सिद्धांत है। यह अविनाशी है और अत्यंत सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है।
***********************************
यह ज्ञान सारे विद्याओं का राजा 
गोपनीयता में सबसे गोपनीय है।
यह ज्ञान परम शुद्ध ,परम श्रेष्ठ है 
यह जीव के लिए अनुसरणीय है।।

आत्मा की अनुभूति कराता है यह 
यह ज्ञान धर्म का यह सिद्धांत है।
सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है 
इसका कभी भी नही कोई अंत है।।

अध्याय-9, श्लोक-1

श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌ ॥ १ ॥
श्रीभगवान ने कहा-हे अर्जुन! चूँकि तुम मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते,इसलिए मैं तुम्हें यह परम गुह्यज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम संसार के क्लेशों से मुक्त हो जाओगे।
************************************
भगवान ने कहा कि हे अर्जुन! तुम 
मुझसे कभी ईर्ष्या नहीं करते हो।
इसलिए तुम मुझसे परम गोपनीय 
ज्ञान प्राप्ति के अधिकारी बनते हो।।

मैं तुम्हें वह ज्ञान तो बताऊँगा ही 
साथ ही उसका अनुभव भी सुनोगे।
इस ज्ञान-विज्ञान को जानकर तुम 
संसार के दुःख से मुक्त हो जाओगे।।

Monday, December 19, 2016

अध्याय-8, श्लोक-28

वेदेषु यज्ञेषु तपः सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्‌ ।
अत्येत तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्‌ ॥ २८ ॥
जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है,वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होनेवाले फलों से वंचित नहीं होता। वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अंत में परम नित्य धाम को प्राप्त होता है।
*************************************
जो व्यक्ति भक्ति के पथ पे जाता
वह किसी फल से वंचित न रहता।
वेदाध्ययन, तपस्या, दान  का फल 
उसे बिना प्रयास सहज ही मिलता।।

दार्शनिक और सकाम कर्म के पुण्य 
वह मात्र भक्ति से प्राप्त कर लेता।
समस्त पुण्य फलों को भोगता हुआ 
अंत में मेरे परम धाम को आ जाता।

****** भगवद्प्राप्ति नाम का आठवाँ  अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-8, श्लोक-27

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥ २७ ॥ 
हे अर्जुन! यद्यपि भक्तगण इन दोनों मार्गों को जानते हैं, किंतु वे मोहग्रस्त नहीं होते। अतः तुम भक्ति में सदैव स्थित रहो।
*********************************
हे पृथापुत्र! मेरे भक्तों को 
दोनों पथ का पता होता है।
पर कोई भी पथ उन्हें कभी 
मोहग्रस्त नहीं कर पाता है।।

इसलिए हे अर्जुन! तुम भी 
उनकी तरह अनासक्त रहो।
हर समय मेरी भक्ति में ही 
मन को अपने स्थिर रखो।।

अध्याय-8, श्लोक-26

शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ॥ २६ ॥
वैदिक मतानुसार इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग हैं-एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार का। जब मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाता है तो वह वापस नहीं आता, किंतु अंधकार के मार्ग से जानेवाला पुनः लौटकर आता है।
********************************
वेदों के अनुसार इस संसार से दो 
मार्गों से ही जाया जा सकता है।
कोई प्रकाश के मार्ग से जाता तो 
कोई अंधकार का पथ पकड़ता है।।

जो मनुष्य प्रकाश के पथ से जाता 
वह कभी यहाँ वापस नहीं आता है।
पर  जो अंधकार के मार्ग से जाता 
वह यहाँ लौटकर अवश्य आता है।।

अध्याय-8, श्लोक-25

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्‌ ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥ २५ ॥
जो योगी धुएँ, रात्रि, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है, वह चंद्रलोक को जाता है, किंतु वहाँ से पुनः (पृथ्वी पर) चला आता है।
**********************************
जब अग्नि का धुआँ फैला हो 
या रात्रि का अंधकार घना हो।
कृष्णपक्ष का घटता चंद्रमा हो 
और सूर्य  दक्षिणायन बना हो।।

उन छह महीनों में जो भी योगी  
भौतिक शरीर का त्याग करता है।
पहले तो स्वर्ग जा सुख भोगता  
पर बाद में वापस यहीं गिरता है।।

अध्याय-8, श्लोक-24

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ २४ ॥
जो परमब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे अग्निदेव के प्रभाव में, प्रकाश में, दिन के शुभक्षण में, शुक्लपक्ष में या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है, उन छह मासों में इस संसार से शरीर त्याग करने पर उस परमब्रह्म को प्राप्त करते हैं।
********************************
जिस समय अग्नि जल रही हो 
दिन का समय सूर्य प्रकाश हो।
शुक्ल पक्ष का समय हो और 
उत्तरायण में सूर्य का वास हो।।

उन छह महीनों में जो भी योगी  
भौतिक शरीर का त्याग करता।
वह फिर कभी वापस नहीं आता 
वह तो परमब्रह्म को पा जाता।।

अध्याय-8, श्लोक-23

यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥ २३ ॥
हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें उन विभिन्न कालों को बताऊँगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुनः आता है अथवा नहीं आता।
************************************
हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें बताऊँ  
उन विभिन्न कालों के विषय में।
किस काल का क्या प्रभाव होता  
हमारे  जीवन के अंतिम समय में।।

किस काल में शरीर त्यागने पर 
योगी वापस नहीं आते हैं फिर से।
और किस काल शरीर छूटे अगर  
तो पुनर्जन्म निश्चित होता जिनसे।।

अध्याय-8, श्लोक-22

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्‌ ॥ २२ ॥
भगवान, जो सबसे महान हैं, अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किए जा सकते हैं। यद्यपि वे अपने परम धाम में विराजमान रहते हैं, तो भी वे सर्वव्यापी हैं और उनमें सब कुछ स्थित है।
***********************************
हे पृथपुत्र! परम पुरुष भगवान 
जिनसे बढ़कर कोई भी नहीं है।
उसको प्राप्त करने के रास्तों में 
अनन्य भक्ति ही सबसे सही है।।

वैसे तो वे अपने परम धाम में 
सदा सर्वदा विराजमान रहते हैं।
सब कुछ उनमें स्थित होता है 
और वे सबके भीतर भी होते हैं।।

अध्याय-8, श्लोक-21

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्‌ ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ २१ ॥
जिसे वेदान्ती अप्रकट और अविनाशी बताते हैं, जो परम गंतव्य है, जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई वापस नहीं आता वही मेरा परमधाम है।
***************************
वेदों में जिसे अविनाशी और
अप्रकट नाम से कहा गया है।
जो जीवों के लिए सदा से ही
परम गंतव्य का स्थान रहा है।।

जहाँ पहुँचकर कोई भी जीव
कभी वापस यहाँ नहीं आता।
यही पावन आंदनमय स्थान
मेरा परम धाम कहलाता है।।

Sunday, December 18, 2016

अध्याय-8, श्लोक-20

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥ २० ॥
इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यक्त प्रकृति है, जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है। यह परा (श्रेष्ठ) और कभी नाश न होनेवाली है। जब इस संसार का सबकुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता।
***********************************
इसके अतिरिक्त एक और भी 
परम अव्यक्त प्रकृति होती है।
जो इस व्यक्त अव्यक्त से परे 
और शाश्वत तथा परम होती है।।

यह श्रेष्ठ और अविनाशी प्रकृति 
अनादि से अनंत काल तक रहती।
संसार का सबकुछ नष्ट हो जाता 
फिर भी ये कभी नष्ट नहीं होती।।

अध्याय-8, श्लोक-19

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥ १९ ॥
जब-जब ब्रह्मा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत विलीन हो जाते हैं।
***********************************
हे पृथापुत्र! ये जो जितने जीव है 
वे सब ही बारबार प्रकट होते हैं ।
और बारबार प्रकट होकर उतनी  
ही बार फिर विलीन भी होते हैं।।

जब-जब ब्रह्मा की रात्रि आती है 
समस्त जीव अव्यक्त हो जाते हैं।
और जब ब्रह्मा का दिन आता है 
वे सब फिर से व्यक्त हो आते हैं।।

अध्याय-8, श्लोक-18

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥ १८ ॥
ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुनः अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं।
**********************************
ब्रह्मा के दिन की शुरुआत होती  
सारे जीवों को वह प्रकट करती है।
पहले जो जीव होते हैं अव्यक्त 
उन सब जीवों को व्यक्त करती है।।

जब ब्रह्मा की रात्रि आती है तब 
सब पुनः अव्यक्त में समा जाते है।
वह अव्यक्त जिसमें जीव समाते 
उसको हम ब्रह्म नाम से जानते हैं।।

अध्याय-8, श्लोक-17

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ (१७)
मानवीय गणना के अनुसार एक हज़ार युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन बनता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है।
***************************************
सतयुग,त्रेता,द्वापर औ कलियुग
चारों मिल एक चतुर्युग बनते हैं।
ऐसे हजार चतुर्युग मिलते तो उसे  
उसे ब्रह्मा का एकदिन कहते हैं।।

ऐसी ही बड़ी हजार चतुर्युगों की
ब्रह्मा की एक रात्रि भी होती है।
समय के तत्त्व को जान पाते हैं
जिन्हें इसकी जानकारी होती है।।

Friday, December 16, 2016

अध्याय-8, श्लोक-16

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १६ ॥
इस जगत में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतर सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है। किंतु हे कुंतीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता।
************************************
हे अर्जुन!इस ब्रह्मांड में निम्नलोक 
से ले ब्रह्मा जी के ब्रह्मलोक तक।
हर लोक के निवासी हैं मरणशील
 लगा रहता जन्म-मृत्यु का चक्कर।।

किंतु कुन्तीपुत्र! मेरा लोक है भिन्न 
वहाँ जा कभी कोई नहीं आता है।
जो पा लेता मेरे लोक को उसके 
पुनर्जन्म का चक्कर छूट जाता है।।

अध्याय-8, श्लोक-15

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्‌ ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥ १५ ॥
मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है।
*********************************
मुझे प्राप्त कर लेने के बाद इस 
संसार में फिर आना नहीं पड़ता।
दुःख भरे इस क्षणिक जगत में 
फिर आ कष्ट उठाना नहीं पड़ता।।

नहीं लौटते मेरे भक्त यहाँ दुबारा 
एक़बार जो वे मुझे पा जाते हैं।
परम सिद्धि को प्राप्त करके जो 
वे एक़बार मेरे धाम आ जाते हैं।।

अध्याय-8, श्लोक-14

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः ॥ १४ ॥
हे अर्जुन! जो अनन्य भाव से मेरा स्मरण करता है उसके लिए मैं सुलभ हूँ, क्योंकि वह मेरी शक्ति में प्रवृत्त रहता है।
************************************
हे पृथापुत्र! जो मनुष्य मेरे सिवा 
कहीं और मन को नहीं लगाता।
सदैव मेरे ही चिंतन में रहता और 
नियमित रूप से स्मरण है करता।।

ऐसी नियमित आराधना जो करे 
उन लोगों के लिए सदा सुलभ हूँ।
मेरी भक्ति में लगे भक्तों के लिए 
मैं तनिक भी नहीं कभी दुर्लभ हूँ।।

अध्याय-8, श्लोक-13

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌ ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌ ॥ १३ ॥
इस योगाभ्यास में स्थित होकर तथा अक्षरों के परम संयोग यानी ओंकार का उच्चारण करते हुए यदि कोई भगवान का चिंतन करता है और अपने शरीर का त्याग करता है, तो वह निश्चित रूप से आध्यात्मिक लोकों को जाता है।
*****************************************
शरीर त्यागने के समय का भाव
निर्धारित करता है आगे का पथ।
ॐ का उच्चारण करते हुए अगर
रहता कोई मेरे ही चिंतन में रत।।

ऐसे दिव्य भाव में शरीर को त्याग
वह मनुष्य परम पद को पाता है।
इस जगत को छोड़ने के उपरांत
वह अवश्य ही मेरे धाम जाता है।।

Thursday, December 15, 2016

अध्याय-8, श्लोक-12

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्‌ ॥ १२ ॥
समस्त इन्द्रिय क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति (योगधारणा) कहा जाता है। इंद्रियों के समस्त द्वारों को बंद करके तथा मन को हृदय में और प्राणवायु को सिर पर केंद्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है।
*********************************
शरीर के सभी द्वारों को 
वश में कर बंद करता है।
मन को स्थिर करके उसे 
बस हृदय में लगाता है।।

प्राणवायु को समेट जब 
उसे वो सिर में रोकता है।
इसतरह मनुष्य स्वयं को 
योग में स्थापित करता है।।

अध्याय-8, श्लोक-11

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ ११ ॥
जो वेदों का ज्ञाता है, जो ओंकार का उच्चारण करते हैं और जो संन्यास आश्रम के बड़े-बड़े मुनि हैं, वे ब्रह्म में प्रवेश करते हैं, ऐसी सिद्धि की इच्छा करनेवाले ब्रह्मचर्यव्रत का अभ्यास करते हैं। अब मैं तुम्हें वह विधि बताऊँगा, जिससे कोई भी व्यक्ति मुक्ति-लाभ कर सकता है।
*************************************
वेदों का ज्ञान रखनेवाले जिसे 
अविनाशी कह कर पुकारते हैं।
संन्यास आश्रम के बड़े-बड़े मुनि 
जिस ब्रह्म के भीतर प्रवेश पाते हैं।।

उस परम पद को पाने हेतु व्यक्ति
ब्रह्मचर्य व्रत का पालन  है करता।
मैं तुम्हें विधि बतलाता हूँ जिससे
व्यक्ति मुक्ति लाभ है कर सकता।।

अध्याय-8, श्लोक-10

प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्‌- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्‌ ॥ १० ॥
मृत्यु के समय जो व्यक्ति अपने प्राण को भौंहों के मध्य स्थित कर लेता है और योगशक्ति के द्वारा अविचलित मन से पूर्णभक्ति के साथ परमेश्वर के स्मरण में अपने को लगाता है, वह निश्चित रूप से भगवान को प्राप्त होता है।
***********************************
मृत्यु के समय जिस मनुष्य का
मन पूर्णरूप से भक्ति में रहता है।
योग शक्ति द्वारा प्राण को जो
भौंहौं के बीच स्थिर कर लेता है।।

भगवान को ऐसे याद करनेवाला
हर तरह के बंधन से छूट जाता है।
इस नश्वर शरीर को छोड़ कर वह
भगवान के परम धाम को पाता है।।

Wednesday, December 14, 2016

अध्याय-8, श्लोक-9

कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌ ॥ ९ ॥ 
मनुष्य को चाहिए कि वह परम पुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियंता,लघुतम से भी लघुतर, प्रत्येक का पालनकर्त्ता, समस्त भौतिकबुद्धि से परे, अचिंत्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे। वे सूर्य की भाँति तेजवान हैं और इस भौतिक प्रकृति से परे, दिव्य रूप हैं।
**************************************
सबके विषय में है वो जानता 
वह परम पुरुष जो पुरातन है।
यह जगत जिसके नियंत्रण में 
जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम है।।

सभी का पालन करनेवाला वह 
इस बुद्धि से परे स्वरूप उसका।
मनुष्य ध्यान करे नित्य पुरुष का 
सूर्य के समान ही तेज जिसका।।

अध्याय-8, श्लोक-8

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌ ॥ ८ ॥
हे पार्थ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरंतर लगाये रखकर अविचलित भाव से भगवान के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है।
*************************************
हे पार्थ! जो सदा मेरा स्मरण करता 
मन को मुझमें ही लगाए है रखता।
चेतना मेरे सिवा कहीं और न जाए 
निरंतर इसके लिए अभ्यास करता।।

ऐसा अविचल भाव होता जिसका  
सदा मेरा ही चिंतन करता रहता है।
मेरे विषय में चिंतन करते-करते वह 
एक दिन मुझे अवश्य पा जाता है।।

Tuesday, December 13, 2016

अध्याय-8, श्लोक-7

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌ ॥ ७ ॥
अतएव हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिंतन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्त्तव्य को भी पूरा करना चाहिए। अपने कर्मों को मुझ समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे।
***********************************
इसलिए हे अर्जुन! तुम सदा ही 
मेरे स्वरूप का चिंतन करते रहो।
पर मेरे स्मरण के साथ-साथ ही 
अपना युद्ध का कर्त्तव्य भी करो।।

कर्मों को मुझे अर्पित करके जब 
मन, बुद्धि को मुझमें लगाओगे।।
मेरी शरणागति लेने के बाद तुम 
अवश्य मुझे प्राप्त कर पाओगे।।

अध्याय-8, श्लोक-6

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्‌ ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ ६ ॥
हे कुंतिपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।
*******************************
हे कुंतिपुत्र! जीवन के अंत में 
जैसी होती है मनुष्य की मति।
उसी से निर्धारित होता है कि 
कैसी होगी आगे उसकी गति।।

मनुष्य उस समय जिस-जिस 
भाव का स्मरण करता रहता है।
उससे ही उसके अगले कलेवर 
या मुक्ति का निर्धारण होता है।।

अध्याय-8, श्लोक-5

अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌ ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ ५ ॥
और जीवन के अंत में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरंत मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है। इसमें रंचमात्र भी संदेह नहीं है।
*****************************************
अपने जीवन के अंतिम क्षण में 
मुझमें ही जिसका ध्यान रहता है।
मेरा ही स्मरण करते-करते जो 
अपने शरीर का त्याग करता है।।

ऐसे व्यक्ति मेरा ही स्वभाव यानि 
स्वयं मुझे ही प्राप्त कर जाते हैं।
इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि 
वे मेरे पास ही लौटकर आते है।।

अध्याय-8, श्लोक-4

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌ ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥ ४ ॥
हे देहधारियों में श्रेष्ठ! निरंतर परिवर्तनशील यह भौतिक प्रकृति अधिभूत (भौतिक अभिव्यक्ति) कहलाती है। भगवान का विराट रूप जिसमें सूर्य तथा चंद्र जैसे समस्त देवता सम्मिलित हैं, अधिदैव कहलाता है। तथा प्रत्येक देहधारी के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित मैं परमेश्वर अधियज्ञ (यज्ञ का स्वामी) कहलाता हूँ।
********************************************
हे देहधारियों मे श्रेष्ठ अर्जुन! सुनो
भौतिक प्रकृति जो बदलती रहती।
वह परिवर्तनशील स्वभाव वाली
प्रकृति ही अधिभूत कहलाती है।।

सूर्य, चंद्र समेत सारे देवी-देवता
जिसके भीतर समाहित रहते हैं।
मेरे उसी विशाल विराट रूप को 
शास्त्र,साधु  आधिदैव कहते हैं।।

प्रत्येक जीव के हृदय में रहता हूँ 
मैं अंतर्यामी परमात्मा के रूप में।
मैं ही हूँ वह परम यज्ञ भोक्ता 
सारे यज्ञ अर्पित होते हैं जिसमें।।

अध्याय-8, श्लोक-3

श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥ ३ ॥
भगवान ने कहा -अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म या आत्म कहलाता है। जीवों के भौतिक शरीर से सम्बंधित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है।
***********************************
भगवान ने बताया कि दिव्य और 
अविनाशी जीव ब्रह्म कहलाता है।
और उसका सहज स्थिर स्वभाव 
अध्यात्म के नाम से जाना जाता है।।

जीव अपने भौतिक शरीर के लिए 
जितने भी अच्छे-बुरे कार्य करते हैं।
उनके द्वारा किए गए इन कार्यों को 
शास्त्र सकाम कर्म का नाम देते हैं।।

अध्याय-8, श्लोक-2

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥ २ ॥
हे मधुसूदन! यज्ञ का स्वामी कौन है और वह शरीर में कैसे रहता है? और मृत्यु के समय भक्ति में लगे रहने वाले आपको कैसे जान पाते हैं?
**************************************
हे मधुसूदन! मुझे बताए कि 
कौन यज्ञ का स्वामी होता है?
यह भी मुझे समझाए प्रभु कि 
कैसे वह इस शरीर में रहता है?

अंतिम क्षण कैसी होता उनका 
जो आपकी भक्ति में होते हैं?
कैसे ऐसे आत्म-संयमी मनुष्य 
आत्म समय में आपको जानते हैं?

अध्याय-8, श्लोक-1

अर्जुन उवाच
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ १ ॥
अर्जुन ने कहा-हे भगवान! हे पुरुषोत्तम! ब्रह्म क्या है? आत्मा क्या है?सकाम कर्म क्या है? यह भौतिक जगत क्या है? तथा देवता क्या है? कृपा करके यह सब मुझे बतायिये।
*********************************
अर्जुन ने कहा कि हे भगवन! 
मन उठ रही कुछ जिज्ञासा है।
ब्रह्म का अर्थ क्या होता और 
अध्यात्म की क्या परिभाषा है?

कर्म क्या होता है प्रभु और 
भौतिक जगत किसे कहते हैं?
मुझे बतायिये हे पुरुषोत्तम!
देवता कहाँ रहते क्या करते हैं?

Friday, December 9, 2016

अध्याय-7, श्लोक-30

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥ ३० ॥
जो मुझ परमेश्वर को मेरी पूर्ण चेतना में रहकर मुझे जगत का, देवताओं का तथा समस्त यज्ञविधियों का नियामक जानते हैं, वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान को जान और समझ सकते हैं।
************************************
जो मनुष्य यह जानता है कि 
मैं ही हूँ इस जगत का कर्त्ता।
सारे देवता हैं मेरे नियंत्रण में
मैं ही सारे यज्ञों का भोक्ता।।

इस ज्ञान से अभिभूत मनुष्य 
सदा मेरा ही चिंतन करता है।
ऐसा व्यक्ति अंत समय में भी 
मुझे जानता और समझता है।।

****** भगवद्ज्ञान नाम का सातवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-7, श्लोक-29

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्‌ ॥ २९ ॥
जो जरा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, वे बुद्धिमान व्यक्ति मेरी भक्ति की शरण ग्रहण करते हैं। वे वास्तव में ब्रह्म हैं क्योंकि वे दिव्य कर्मों के विषय में पूरी तरह से जानते हैं।
*********************************************
बुढ़ापा और मृत्यु के बंधन से 
जो मुक्ति का प्रयास करते हैं।
ऐसे लोग ही होते हैं बुद्धिमान 
और मेरी शरण में ही आते हैं।।

ब्रह्म पद पर आसीन हैं ये लोग 
दिव्य कर्मों को भी ये जानते हैं।
मुझसे ही मिल सकती है मुक्ति 
ये सत्य भी भलीभाँति मानते हैं।।

अध्याय-7, श्लोक-28

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्‌ ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥ २८ ॥
जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किए हैं और जिनके पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन हो चुका होता है, वे मोह के द्वंद्वों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्पपूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं।
****************************************
इस जन्म या पूर्व के जन्मों में
पुण्य ही कमाया है जिसने।
पाप जिसके शेष बचे नहीं 
इसे समूल मिटाया है जिसने।।

उनका मन मोह के द्वंद्वों में 
उलझकर नहीं रह जाता है।
मन तो दृढ़ संकल्प के साथ 
मेरी भक्ति में लग जाता है।।

Thursday, December 8, 2016

अध्याय-7, श्लोक-27

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥ २७ ॥
हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वंद्वों से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते हैं।
*****************************************
हे भरतवंशी! हे शत्रुविजेता!
सुनो जीव के जन्म की गाथा।
अपने मोह के कारण ही वह
इस जग में बारम्बार है आता।।

इस  संसार के सारे प्राणी ही
इच्छा-द्वेष के द्वंद्व में ही रहते।
द्वंद्वों से उपजे मोह के कारण
जन्म ले फिर से मोहित होते।।


अध्याय-7, श्लोक-26

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥ २६ ॥
हे अर्जुन! भगवान होने के नाते मैं जो भूतकाल में घटित हो चुका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ। मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ पर मुझे कोई नहीं जानता।
**************************************
हे अर्जुन! भूत,वर्तमान,भविष्य
सबकुछ मैं जानता हूँ सबका।
मुझसे कुछ भी छुपा न  रहता
जो भी कभी कहीं है घटता।।

कोई भी मुझसे अनजान नहीं
जो भी जग में आता,जाता है।
मैं तो हरकिसी को जानता पर
मुझे कोई नहीं जान पाता है।।

Wednesday, December 7, 2016

अध्याय-7, श्लोक-25

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्‌ ॥ २५ ॥
मैं मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूँ। उनके लिए तो मैं अपनी अंतरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूँ, अतः वे यह नहीं जान पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ।
**************************************
अपनी अंतरंगा शक्ति द्वारा 
मैं जग में आच्छादित रहता।
अपने वास्तविक स्वरूप में 
सबके लिए प्रकट नहीं होता।

इसलिए मूर्ख,अज्ञानी मनुष्य
सदा संशय में ही घिरे रहते हैं। 
मैं हूँ अविनाशी और अजन्मा 
इस तथ्य को नहीं समझते हैं।।

अध्याय-7, श्लोक-24

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्‌ ॥ २४ ॥
बुद्धिहीन मनुष्य मुझको ठीक से न जानने के कारण सोचते हैं कि मैं (भगवान कृष्ण) पहले निराकार था और अब मैंने इस स्वरूप को धारण किया है। वे अपने अल्पज्ञान के कारण मेरी अविनाशी तथा सर्वोच्च प्रकृति को नहीं जान पाते।
**********************************
बुद्धिहीन व्यक्ति मुझे ठीक से 
जब जान-समझ ही नहीं पाते हैं।
तो मुझ अजन्मा परमेश्वर को भी
मनुष्य की भाँति जन्मा बताते हैं।।

अपनी अज्ञानता के कारण मेरा 
अविनाशी रूप नहीं वे जान पाते।
और मेरी प्रकृति का परम प्रभाव 
समझने से वे वंचित ही रह जाते।।

अध्याय-7, श्लोक-23

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ २३ ॥
अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होते हैं। देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किंतु मेरे भक्त अंततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं।
**************************************
कम बुद्धि होती है जिनकी वही
देवी-देवताओं की पूजा करते हैं।
तभी चिर सुख को छोड़ कर वे
क्षणिक सुख के पीछे दौड़ते हैं।।

समाप्त होने वाला सुख मिलता
बहुत तो देवलोक तक वे जाते।
पर मेरे भक्त तो मेरा धाम पाते
जहाँ से वे कभी वापस न आते।।

Tuesday, December 6, 2016

अध्याय-7, श्लोक-22

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्‌ ॥ २२ ॥
ऐसी श्रद्धा से समन्वित वह देवता विशेष की पूजा करने का यत्न करता है और अपनी इच्छा की पूर्ति करता है। किंतु वास्तविकता तो यह है कि ये सारे लाभ केवल मेरे द्वारा प्रदत्त हैं।
******************************************
वह भक्त सुख के लिए श्रद्धा से 
युक्त हो देवताओं को पूजता है।
जिन कामनाओं की इच्छा होती 
उन सबको वह प्राप्त करता है।।

लगता तो ऐसा कि देवताओं ने 
पूजा के बदले पूर्ण की कामना।
पर वास्तव में मैं देता सारे लाभ
चाहे किसी की करे आराधना।।

अध्याय-7, श्लोक-21

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌ ॥ २१ ॥
मैं प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित हूँ। जैसे ही कोई किसी देवता की पूजा करने की इच्छा करता है, मैं उसकी श्रद्धा को स्थिर करता हूँ, जिससे वह उसी विशेष देवता की भक्ति कर सके।
****************************************
देवी देवताओं के पूजा की इच्छा 
जब किसी भक्त के मन में होती।
उसकी यह कामना जैसे ही मुझ 
अंतर्यामी परमात्मा तक पहुँचती।।

तो देवी-देवताओं के जिन स्वरूप 
को पूजने की वह इच्छा है करता।
उन्हीं  देवी-देवताओं के  प्रति मैं 
उसकी श्रद्धा को स्थिर कर देता।।

Monday, December 5, 2016

अध्याय-7, श्लोक-20

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥ २० ॥
जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गई है, वे देवताओं की शरण में जाते हैं और वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूजा के विशेष विधि-विधानों का पालन करते हैं।
***************************************
इस जग की कामनाओं ने 
जिनकी बुद्धि नष्ट कर दी है।
उन्होंने ही उसकी पूर्ति हेतु 
देवताओं की शरण ली है।।

अपने स्वार्थ के अनुसार वे 
देवताओं का चयन करते हैं।
जैसा होता स्वभाव जिनका 
वैसा विधि-विधानों चुनते हैं।।

अध्याय-7, श्लोक-19

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ १९ ॥
अनेक जन्म-जन्मांतर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है। ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ होता है।
**********************************
अनेकों जन्म लेने बाद जब  
अंतिम जन्म उसका आता है।
तब उस जन्म में वह ज्ञानी 
मेरी शरण में पहुँच पाता है।।

मैं ही सबमें और सब मुझमें 
मुझ ही सबका कारण माने।
बड़े दुर्लभ होते ऐसे महात्मा 
जो मुझे जैसा हूँ वैसा जाने।।

अध्याय-7, श्लोक-18

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌ ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्‌ ॥ १८ ॥
निस्सन्देह ये सब उदारचेता व्यक्ति हैं, किंतु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त हैं, उसे मैं अपने ही समान मानता हूँ। वह मेरी दिव्यसेवा में तत्पर रहकर मुझ सर्वोच्च उद्देश्य को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।
*****************************************
चारों ही प्रकार के भक्त 
सबके प्रति उदार रहते हैं।
लेकिन उनमें जो ज्ञानी हैं 
वे मेरा स्वरूप ही होते हैं।।

सदा ही मेरी सेवा में तत्पर  
मुझमें ही रहता मन उनका।
मैं ही होता सर्वोच्च लक्ष्य 
ज्ञानी भक्तों के जीवन का।।

अध्याय-7, श्लोक-17

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥ १७ ॥
इनमे से जो परमज्ञानी है और शुद्धभक्ति में लगा रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यंत प्रिय हूँ और वह मुझे प्रिय है।
************************************
इन चारों में से जो ज्ञानी है 
वही सबमें सर्वश्रेष्ठ होता।
सदा ही मेरी शुद्धभक्ति में 
अनन्य भाव से लगा रहता।।

क्योंकि इन ज्ञानी भक्तों को 
मैं अत्यंत ही प्रिय होता हूँ।
मुझको भी ये प्रिय होते हैं 
मैं भी इनसे प्रीति रखता हूँ।।

अध्याय-7, श्लोक-16

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥ १६ ॥
हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं-आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी।
**********************************
हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! चार तरह के 
लोग हैं जो मेरी शरण में आते हैं।
पुण्यात्मा होते हैं ये सब-के-सब 
तभी ये मुझ तक पहुँच पाते हैं।।

पहला प्रकार होता है उनका जो 
दुःख से निवृत्ति मुझसे चाहते हैं।
दूसरे होते हैं वे लोग जो मुझसे 
जीवन में धन, सम्पदा माँगते हैं।।

तीसरा प्रकार है जिज्ञासुओं का 
जो मुझसे कुछ जानना चाहते हैं।
चौथे होते हैं ज्ञानी जन जो सब 
जानते हुए मुझे अपना बनाते हैं।।

अध्याय-7, श्लोक-15

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥ १५ ॥
जो निपट मूर्ख हैं, मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करनेवाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते।
*****************************************
अधर्मी, दुष्ट स्वभाव का व्यक्ति 
जिसका ज्ञान माया ने हर लिया।
वह निपट मूर्ख जिसने असुरों का 
नास्तिक स्वभाव धारण किया।।

वह तो मनुष्यों में अधम है होता 
और मेरी शरण में कभी न आता।
मेरी माया उसे यहाँ-वहाँ नचाती 
और वह व्यर्थ के दंभ में है रहता।।

Sunday, December 4, 2016

अध्याय-7, श्लोक-14

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ १४ ॥
प्रकृति के तीन गुणों वाली मेरी इस दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है। किंतु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से उसे पार कर जाते हैं।
**************************************
प्रकृति के जो तीन गुण है वे 
मेरी दैवी शक्ति का हिस्सा है।
मनुष्य के लिए इन्हें पार करना
बड़ा ही कठिन, असंभव-सा है।।

लेकिन जो मेरी शरण ले लेते 
वे इन गुणों में उलझ नहीं पाते।
बड़ी ही सरलता से जीवन में वे 
इस माया को है पार कर जाते।।

अध्याय-7, श्लोक-13

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥ १३ ॥
तीनों गुणों (सतो, रजो तथा तमो) के द्वारा मोहग्रस्त यह सारा संसार मुझ गुणातीत तथा अविनाशी को नहीं जानता।
**************************************
यह सारा संसार प्रकृति के 
तीन गुणों से मोहित रहता।
गुणों की लहरों के बीच ही 
भवसागर में डूबता-उतरता।।

गुणों में फँसे लोग जगत के 
मुझे कभी समझ नहीं पाते।
मैं हूँ अविनाशी, गुणों से परे 
ये सत्य कहाँ वे जान पाते।।

अध्याय-7, श्लोक-12

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥ १२ ॥
तुम जान लो कि मेरी शक्ति द्वारा सारे गुण प्रकट होते हैं, चाहे वे सतोगुण हो, रजोगुण हो या तमोगुण हो। इसप्रकार मैं सब कुछ हूँ, किंतु हूँ स्वतंत्र। मैं प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूँ, अपितु वे मेरे अधीन हैं।
*********************************
सतो, रजो और तमोगुण जो 
ये प्रकृति तीन गुण होते हैं।
तुम जान लो कि ये सारे गुण 
मेरी शक्ति से प्रकट होते हैं।।

मैं सब कुछ हूँ, सब मुझसे है 
किंतु मैं सदा स्वतंत्र रहता हूँ।
प्रकृति के गुण मेरे अधीन है 
मैं इनके अधीन नहीं होता हूँ।।

अध्याय-7, श्लोक-11

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥ ११ ॥
मैं ही बलवानों का कामनाओं तथा इच्छा से रहित बल हूँ। हे भरतश्रेष्ठ! (अर्जुन)! मैं वह काम हूँ जो धर्म के विरूद्ध नहीं है।
***************************************
जिसमें कोई कामना नहीं है 
और न ही कोई आसक्ति है।
हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! मैं ही हूँ 
बलवानों में जो शक्ति है।।

मैं वह विषयी जीवन भी हूँ 
जो शास्त्र अनुसार होता है।
हर ही कार्य मुझसे जुड़ा है  
जो धर्म के अधीन रहता है।।

अध्याय-7, श्लोक-10

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्‌ ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ ॥ १० ॥
हे पृथापुत्र! यह जान लो कि मैं ही समस्त जीवों का आदि बीज हूँ, बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज़ हूँ।
********************************************
हे पार्थ! मुझको ही तुम इस 
सारी सृष्टि का कारण मानो।
मुझसे अलग यहाँ कुछ नहीं
सबको मुझसे उत्पन्न जानो।।

मैं ही तो समस्त प्राणियों का   
आदि और शाश्वत बीज हूँ।।
बुद्धिमानों की बुद्धि भी मैं औ 
मैं ही तेजस्वियों का तेज़ हूँ।।

अध्याय-7, श्लोक-9

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥ ९ ॥
मैं ही पृथ्वी की आद्य सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूँ। मैं समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ।
*************************************
पृथ्वी से आती
पवित्र सुगंध मैं।
अग्नि में उपस्थित
ऊष्मा भी मैं।।

समस्त जीवों का
मैं ही जीवन हूँ।
तपस्वियों का मैं
तप साधन हूँ।।

Wednesday, November 30, 2016

अध्याय-7, श्लोक-8

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥ ८ ॥
हे कुंतिपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चंद्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मंत्रों में ओंकार हूँ। आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ।
*****************************************
हे कुंतिपुत्र! मैं ही हूँ 
स्वाद जल का।
मैं ही हूँ ध्वनि 
विस्तृत नभ का।।

सूरज और चाँद का
मैं ही हूँ प्रकाश।
मैं ही वो पुरुषार्थ 
जो है मनुष्यों के पास।।

अध्याय-7, श्लोक-7

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ ७ ॥
हे धनंजय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है।
*************************************
मुझपर आश्रित है जग सारा
मुझसे अलग कुछ भी नहीं।
सब कुछ है मुझसे ही उत्पन्न
जो भी दिखता है जहाँ कहीं।।

जैसे माला के मोतियों का
एकमात्र सहारा धागा होता।
वैसे ही इस जग में सब कुछ
मुझ पर ही बस टिका रहता।।

Tuesday, November 29, 2016

अध्याय-7, श्लोक-6

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ ६ ॥
सारे प्राणियों का उद्गगम इन दोनों शक्तियों में है। इस जगत में जो कुछ भी भौतिक तथा आध्यात्मिक है, उसकी उत्पत्ति तथा प्रलय मुझे ही जानो।
*************************************
ये जड़ और चेतन मेरी
जो दोनों प्रकृतियाँ हैं।
इन्होंने ही मिल सारे
जग का सृजन किया है।।

मैं ही होता कारण इस
जगत की उत्पत्ति का।
और मैं ही बनता कारण
इस जग के प्रलय का।।

अध्याय-7, श्लोक-5

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्‌ ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌ ॥ ५ ॥ 
हे महाबाहु अर्जुन! इनके अतिरिक्त मेरी एक अन्य परा शक्ति है जो उन जीवों से युक्त है, जो इस भौतिक अपरा प्रकृति के साधनों का विदोहन कर रहे हैं।
***************************************
हे अर्जुन! इसके सिवा 
एक और प्रकृति है मेरी।
परंतु वह जड़ नहीं है वरन
वो तो है चेतना से भरी।।

वह चेतन प्रकृति ही तो 
संसार का भोग करती है।
वही है  दिव्य  आत्मा जो 
सबके शरीर में रहती है।।

अध्याय-7, श्लोक-4

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्‍कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ ४ ॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार - ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना (अपरा) प्रकृतियाँ हैं।
**************************************
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और 
आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार।
ये ही हैं इस भौतिक सृष्टि के 
प्राकट्य के मूल आठ प्रकार।।

जड़ हैं ये आठों तत्त्व फिर भी 
कोई भी मुझसे अलग नहीं हैं।
ये भी मेरी ही प्रकृतियाँ है पर 
भौतिक है सब, दिव्य नहीं है।।

अध्याय-7, श्लोक-3

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥ ३ ॥
कई हज़ार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करनेवालों में से विरला ही कोई एक मुझे वास्तव में जान पाता है।
**************************************
हज़ारों मनुष्यों में से कोई 
एक कभी ऐसा होता है।
जो जीवन में अपने सिद्धि 
पाने का प्रयास करता है।।

ऐसे सिद्धि पाने वालों में से 
विरला ही कोई निकलता है।
जो मुझे वास्तविक रूप में 
सही-सही से जान पाता है।।

अध्याय-7, श्लोक-2

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥ २ ॥
अब मैं तुमसे पूर्णरूप से व्यावहारिक तथा दिव्य ज्ञान कहूँगा। इस जान लेने पर तुम्हें जानने के लिए और कुछ भी शेष नहीं रहेगा।
****************************************
अब मैं तुम्हें जो ज्ञान बताऊँगा 
वह पूरी तरह से व्यावहारिक है।
यह सिर्फ़ पुस्तक का ज्ञान नहीं 
यह तो अनुभव पर आधारित है।।

इस ज्ञान को तुम जीवन में अपने
अगर पूरी तरह से जो उतार लो।
फिर कुछ शेष नहीं इस जग में
जिसे जानने का तुम प्रयास करो।।

अध्याय-7, श्लोक-1

श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥ १ ॥
श्रीभगवान ने कहा-हे पृथापुत्र! अब सुनो कि तुम किस तरह मेरी भावना से पूर्ण होकर और मन को मुझमें आसक्त करके योगाभ्यास करते हुए मुझे पूर्णतया संशयरहित जान सकते हो।
*************************************
भगवान ने कहा कि हे पृथापुत्र 
अब सुनो उस योग के विषय में।
जिस योग का अभ्यास कर तुम 
फिर रहोगे न किसी संशय में।।

मुझमें मन अपना लगाकर तुम 
जब उस योग पथ पर चलोगे।
मेरी शरण को अपनाकर तुम 
मुझे पूरी तरह से जान सकोगे।।

Monday, November 28, 2016

अध्याय-6, श्लोक-47

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥ ४७ ॥
और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यंत श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अंतःकरण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अंतरंग रूप से युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है। यही मेरा मत है।
***********************************
सभी प्रकार के योगियों में जो 
मुझमें पूरी तरह श्रद्धा रखता है।
मुझ पर ही आश्रित रहता और 
सदा मेरा ही चिंतन करता है।।

मुझसे प्रेम और मेरी भक्ति में ही 
जिसका सारा जीवन बितता है।
मेरी दृष्टि में ऐसा योगी ही सारे 
योगियों में परम योगी होता है।।

******ध्यानयोग नाम का छठा अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-6, श्लोक-46

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ ४६ ॥
योगी पुरुष तपस्वी से, ज्ञानी से तथा सकामकर्मी से बढ़कर होता है। अतः हे अर्जुन! तुम सभी प्रकार से योगी बनो।
************************************
योग के पथ पर चलने वाला 
तपस्वियों से बेहतर है होता।
शास्त्र ज्ञान में लगा जो ज्ञानी 
वह भी योगी से पीछे ही होता।।

सकाम कर्म में फँसे मनुष्य तो 
योगी से श्रेष्ठ हो ही नहीं सकते।
इसलिए हे अर्जुन! तुम भी इस  
योग के पथ पर क्यूँ नहीं चलते।।

अध्याय-6, श्लोक-45

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌ ॥ ४५ ॥
और जब योगी समस्त कल्मष से शुद्ध होकर सच्ची निष्ठा से आगे प्रगति करने का प्रयास करता है, तो अंततोगत्वा अनेकानेक जन्मों के अभ्यास के पश्चात सिद्धि-लाभ करके वह परम गंतव्य को प्राप्त करता है।
*****************************************
व्यर्थ नहीं जाता कभी भी उसके 
अनेकों जन्मों का किया अभ्यास।
और पाप कर्मों से शुद्ध कर देता 
इस जन्म में किया गया प्रयास।।

अभ्यास और प्रयास से वह योगी 
अंततः परम सिद्धि पा ही जाता है।
पथ उसका आख़िरकार उसे फिर 
गंतव्य तक अवश्य ही पहुँचाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-44

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ ४४ ॥
अपने पूर्व जन्म की दैवी चेतना से वह न चाहते हुए भी स्वतः योग के नियमों की ओर आकर्षित होता है। ऐसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों के अनुष्ठानों से परे स्थित होता है।
**********************************
पुराने सत्कर्मों का असर उसके 
इस जन्म में भी दिख जाता है।
सहज स्वभाविक रूप से ही वह 
योग की तरफ़ आकृष्ट होता है।।

विभिन्न प्रकार के अनुष्ठानों से 
ऐसा जिज्ञासु बँध नहीं पाता है।
शास्रों के दायरे से आगे निकल 
वह तो योग में स्थित हो जाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-43

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌ ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥ ४३ ॥
हे कुरूनंदन ! ऐसा जन्म पाकर वह अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना को पुनः प्राप्त करता है और पूर्ण सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से वह आगे उन्नति करने का प्रयास करता है।
************************************
हे कुरूनंदन! जब वह संस्कारी 
कुल में जन्म लेकर जब आता है।
तो उसके पूर्वजन्म का संस्कार 
उसे फिर से प्राप्त हो जाता है।।

पिछले संस्कारों के प्रभाव और 
इस जन्म में सुसंगति जब पाता।
अधूरे रहे गये लक्ष्य को पाने का
फिर से इसबार प्रयास है करता।।

अध्याय-6, श्लोक-42

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌ ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌ ॥ ४२ ॥
अथवा (अगर दीर्घकाल तक योग करने के बाद असफल रहे तो) वह ऐसे योगियों के कुल में जन्म लेता है जो अति बुद्धिमान हैं। निश्चय ही इस संसार में ऐसा जन्म दुर्लभ है।
********************************
अगर उस योगी ने अपना पथ 
बहुत आगे तक तय किया था।
लक्ष्य प्राप्त करने से बस कुछ 
पहले ही उसने पथ बदला था।।

तो ऐसा मनुष्य विद्वान योगियों 
के उच्च कुल में जन्म पाता  है।
लेकिन ऐसा जन्म इस संसार में 
निस्सन्देह बहुत दुर्लभ होता है।।

अध्याय-6, श्लोक-41

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ ४१ ॥
असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या धनवानों के कुल में जन्म लेता है।
*********************************
असफल योगी पहले उत्तम लोक 
में जा उन इच्छाओं को भोगता है।
जिन इच्छाओं के पीछे पड़कर ही  
वह योगपथ से च्यूत हुआ होता है।।

अनेकों वर्षों के भोग के बाद उसे 
फिर से एक अवसर दिया जाता है।
किसी सम्पन्न परिवार में या किसी 
सदाचारी के घर वह जन्म पाता है।।

Sunday, November 27, 2016

अध्याय-6, श्लोक-40

श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥ ४० ॥
भगवान ने कहा-हे पृथापुत्र! कल्याण-कार्यों में निरत योगी का न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है। हे मित्र! भलाई करनेवाला कभी बुराई से पराजित नहीं होता।
************************************
भगवान ने कहा कि असफल योगी
का पूर्व कर्म कभी बेकार न होता।
न ही इस जन्म में,न अगले जन्म में
कभी भी उसका विनाश न होता।।

हे पार्थ! कल्याण-कार्य में था कल
और आज अगर पथ से भटक गया।
फिर भी उसका कल्याण होगा मित्र
क्या हुआ आधे रास्ते वह रह गया।।

अध्याय-6, श्लोक-39

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥ ३९ ॥
हे कृष्ण! यही मेरा संदेह है और मैं आपसे पूर्णतया दूर करने की प्रार्थना कर रहा हूँ। आपके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो इस संदेह को नष्ट कर सके।
********************************
हे कृष्ण! यही मेरी संदेह है
जिससे मैं भ्रमित हो रहा हूँ।
इसे दूर करने की कृपा करें
आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ।।

आपके सिवा कोई और नहीं
जो मुझे सह-सही बता सके।
अपने ज्ञान से मेरे संशयों को
सदा के लिए ही मिटा सके।।

अध्याय-6, श्लोक-38

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ ३८ ॥
हे महाबाहु कृष्ण! क्या ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग से भ्रष्ट व्यक्ति आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही सफलताओं से च्यूत नहीं होता और छिन्नभिन्न बादल की भाँति विनष्ट नहीं हो जाता जिसके फलस्वरूप उसके लिए किसी लोक में कोई स्थान नहीं रहता?
*************************************
हे कृष्ण! परमात्मा- प्राप्ति के 
मार्ग से जो बीच में ही भटका।
वह न सांसारिक भोग ही पाया 
न ही आपको प्राप्त कर सका।।

ऐसे मार्ग से विचलित मनुष्य को
प्रभु कौन-सा स्थान मिल पाता है?
क्या छिन्नभिन्न बादल की भाँति 
वह दोनों ओर से नष्ट हो जाता है?

अध्याय-6, श्लोक-37

अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ ३७ ॥
अर्जुन ने कहा- हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म-साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है, किंतु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है और योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता?
**************************************

अर्जुन ने कहा भगवान से कि 
कुछ लोग प्रभु ऐसे भी होते हैं।
शुरुआत करते श्रद्धापूर्वक पर 
बाद में पथ से भटक जाते हैं।।

मार्ग से भटके योगी जीवन में 
आख़िर किस गति को पाते हैं?
आत्म-साक्षात्कार से भटक कर 
किस पथ और लक्ष्य वे जाते हैं?

अध्याय-6, श्लोक-36

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ ३६ ॥
जिसका मन उच्छृंखल है उसके लिए आत्म-साक्षात्कार कठिन कार्य होता है, किंतु जिसका मन संयमित है और जो समुचित उपाय करता है उसकी सफलता ध्रुव है। ऐसा मेरा मत है।
***************************************
जो मनुष्य अपने मन को 
वश में नहीं कर पाता है।
वह आत्म-साक्षात्कार से 
फिर वंचित रह जाता है।।

लेकिन जो मन को वश में 
करने का प्रयास करता है।
मेरे विचार से परमात्मा को 
वह मनुष्य सहज पाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-35

श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ ३५ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-हे महाबाहु कुंतीपुत्र! निस्सन्देह चंचल मन को वश में करना अत्यंत कठिन है, किंतु उपयुक्त अभ्यास तथा विरक्ति द्वारा यह सम्भव है।
***********************************
श्री कृष्ण भगवान ने कहा कि 
कुंतिपुत्र सत्य है तुम्हारा संशय।
इतना आसान भी नहीं है होता 
इस चंचल मन पे पाना विजय।।

कठिन है यह काम निश्चित ही  
पर इसका भी हल है मेरे पास।
जग की इच्छाओं को त्यागकर 
और निरंतर हो इसका अभ्यास।।

अध्याय-6, श्लोक-34

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌ ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ॥ ३४ ॥
हे कृष्ण! चूँकि मेरा मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यंत बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है।
*********************************
हे कृष्ण! मन मेरा बड़ा चंचल
एक तो है हठी उसपे बलवान।
यहाँ-वहाँ भागता रहता है सदा
उच्छृंखल मनमौजी के समान।।

कैसे वश में करूँ ऐसे मन को
जो वायु से अधिक वेगवान है।
मन और वायु दोनों में वायु को
वश में करना थोड़ा आसान है।।

Thursday, November 24, 2016

अध्याय-6, श्लोक-33

अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ॥ ३३ ॥
अर्जुन ने कहा-हे मधुसूदन! आपने जिस योगपद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है वह मेरे लिए अव्यवहारिक तथा असहनीय है, क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है।
*************************************
अर्जुन बोले मधुसूदन से कि मुझे
जिस योग को आपने समझाया।
संयम और समभाव का जो  मार्ग
आपने अभी है मुझको बतलाया।।

मेरे लिए तो उस मार्ग पर चलना
प्रभु मुझे सम्भव-सा नहीं लगता है।
क्योंकि मेरा चंचल मन कभी भी
अधिक समय स्थिर नहीं रहता है।।

अध्याय-6, श्लोक-32

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ ३२ ॥
हे अर्जुन! वह पूर्णयोगी है जो अपनी तुलना से समस्त प्राणियों को उनके सुखों तथा दुखों में वास्तविक समानता का दर्शन करता है।
**************************************
हे अर्जुन! जो मनुष्य दूसरों की
भावनाओं को भी समझता है।
सबकी पीड़ा और सबके दुःख
जिसे अपने समान ही लगता है।।

समस्त प्राणियों के सुख-दुःख
जिसके लिए होता एक समान।
यही सब गुण ही कराते हैं उसके
एक पूर्ण योगी होने की पहचान।।

Wednesday, November 23, 2016

अध्याय-6, श्लोक-31

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ ३१ ॥
जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए परमात्मा की भक्तिपूर्वक सेवा करता है, वह हर प्रकार से मुझमें स्थित रहता है।
************************************
योग में स्थित मनुष्य सबको
मुझसे ही संबंधित देखता है।
समस्त प्राणियों के हृदय में 
वह मेरा ही दर्शन करता है।।

भक्ति भाव में स्थित हो जो 
वो सदा मुझको ही भजता है। 
वह योगी तो सभी प्रकार से
सदैव मुझमें स्थित रहता है।।

Tuesday, November 22, 2016

अध्याय-6, श्लोक-30

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ३० ॥
जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है।
*******************************
जो मनुष्य हर जगह ही 
मुझको  देख पाता है।
हर चीज़ को मुझमें ही 
समाहित जो देखता है।

उसकी आँखों से कभी भी 
मैं ओझल नहीं हूँ होता।
न ही वह व्यक्ति भी कभी 
मेरी दृष्टि से दूर है जाता।।

अध्याय-6, श्लोक-29

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ २९ ॥
वास्तविक योगी समस्त जीवों में मुझको तथा मुझमें समस्त जीवों को देखता है। निस्सन्देह स्वरूपसिद्ध व्यक्ति मुझ परमेश्वर को सर्वत्र देखता है।
********************************
योग में पूरी तरह स्थित मनुष्य की 
देखने की प्रकृति ही बदल जाती है।
उसकी दृष्टि सबमें में परमात्मा और 
परमात्मा में सबके दर्शन कराती है।।

यही होती है पहचान उस योगी की 
जिसने आत्म तत्त्व को जान लिया है।
संसार के सभी  प्राणियों में जिसने 
एक ही परमात्मा का दर्शन किया है।।

अध्याय-6, श्लोक-28

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ २८ ॥
इस प्रकार योगाभ्यास में निरंतर लगा रहकर आत्मसंयमी योगी समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है और भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में परम सुख प्राप्त करता है।
**********************************
इस तरह जो योगी सदा ही 
योगाभ्यास में लगा रहता है।
मन, इंद्रियों को वश में कर 
वह आत्मसंयमी हो जाता है।।

भौतिक क्लेशों से मुक्त होकर 
परमात्मा से संबंध वो बनाता है।
इस संबंध के बाद दिव्य प्रेम 
स्वरूप परम आनंद को पाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-27

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ॥ २७ ॥
जिस योगी का मन मुझमें स्थिर रहता है, वह निश्चय ही दिव्यसुख की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करता है। वह रजोगुण से परे हो जाता है, वह परमात्मा के साथ अपनी गुणात्मक एकता को समझता है और इस प्रकार अपने समस्त विगत कर्मों के फल से निवृत्त हो जाता है।
***************************************
स्थित हो जाता परमात्मा में 
जब मनुष्य का चंचल मन।
कामनाएँ हो जाती है शांत 
जो होती रजोगुण से उत्पन्न।।

पिछले सारे पाप कर्मों से वह 
पूरी तरह मुक्त हो जाता है।
ऐसे योगी तो जीवन में अपने  
परम-आनंद अवश्य पाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-26

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ॥ २६ ॥
मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए।
*******************************
मन का स्वभाव ही ऐसा है क़ि 
वह अक्सर यहाँ-वहाँ भागता है।
चंचलता उसमें सहज ही होती 
वह कभी स्थिर नहीं रह पाता है।।

पर मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह 
भागते मन को खींच कर लाए।
यहाँ-वहाँ भटकने के बदले उसे 
अपनी आत्मा में ही स्थिर कराए।।

Monday, November 21, 2016

अध्याय-6, श्लोक-25

शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ॥ २५ ॥
धीरे-धीरे, क्रमशः पूर्ण विश्वासपूर्वक बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए और इसप्रकार मन को आत्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए।
***********************************
मनुष्य को चाहिए कि धीरे-धीरे 
चलते हुए बुद्धि द्वारा अभ्यास करे।
अभ्यास इतना दृढ़ हो उसका कि  
मन सिर्फ़ आत्मा का ही ध्यान धरे।।

समाधि की इस अवस्था में आकर 
जग का कोई भी चिंतन शेष न रहे। 
चिंतन हो तो बस परमात्मा का अब 
वस्तुओं के चिंतन में मन और न बहे।।

अध्याय-6, श्लोक-24

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ।
सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ २४ ॥ 
मनुष्य को चाहिए कि संकल्प तथा श्रद्धा के साथ योगाभ्यास में लगे और पथ से विचलित न हो। उसे चाहिए क़ि मनोधर्म से उत्पन्न समस्त इच्छाओं को निरपवाद रूप से त्याग दे और इस प्रकार मन के द्वारा सभी ओर से इंद्रियों को वश में करें।
***************************************
मनुष्य को दृढ़ विश्वास के साथ 
योग का अभ्यास करना चाहिए।
संसार से मिलने वाले दुखों से 
उसे विचलित नहीं होना चाहिए।।

मन में उठनेवाली सभी सांसारिक 
इच्छाओं को पूरी तरह त्याग करे।
योगी का कर्त्तव्य है कि वह अपने 
मन द्वारा इंद्रियों को वश में रखे।।

अध्याय-6, श्लोक-20-23

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ २०॥
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌ ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ २१॥
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ २२॥
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्॥ २३॥
सिद्धि की अवस्था में जिसे समाधि कहते हैं, मनुष्य का मन योगाभ्यास के द्वारा भौतिक मानसिक क्रियाओं से पूर्णतया संयमित हो जाता है। इस सिद्धि की विशेषता यह है कि मनुष्य शुद्ध मन से अपने को देख सकता है और अपने आपसे आनंद उठा सकता है। उस आनंदमयी स्थिति में वह दिव्य इंद्रियों द्वारा असीम दिव्यसुख में स्थित रहता है। इसप्रकार स्थापित मनुष्य कभी सत्य से विपथ नहीं होता और इस सुख की प्राप्ति हो जाने पर वह इससे बड़ा कोई दूसरा लाभ नहीं मानता। ऐसी स्थित को पाकर मनुष्य बड़ी से बड़ी कठिनाई से भी विचलित नहीं होता। यह निस्सन्देह भौतिक संसर्ग से उत्पन्न होने वाले समस्त दुखों से वास्तविक मुक्ति है।
********************************************
योग का अभ्यास करते-करते
जीवन में एक अवस्था आती है।
मन की गतिविधियाँ रूक जाती
वह अवस्था समाधि कहलाती है।।

जहाँ पहुँचकर मनुष्य आत्मा में
परमात्मा को देखने लगता है।
परमात्मा को जान लेने के बाद
वह स्वयं से पूर्ण संतुष्ट रहता है।।

इस शुद्ध चेतना में की स्थिति में
यह भली-भाँति जाना जाता है।
कि आनंद तो आत्मा का विषय
जो इस शरीर के अलग होता है।।

परम तत्त्व परमात्मा में स्थित वह
योगी कभी विचलित नहीं होता।
अंतर में ही इतना सुख है पाता कि
बाहरी सुख उसे लुभा नही पाता।।

भौतिक सुख का भ्रम जान गया
वह अब कभी सत्य से नहीं डिगता।
परमात्मा प्राप्ति के सुख के बढ़कर
अधिक लाभ कुछ नहीं वो मानता।

सिद्धि की इस अवस्था में आकर
वह पूरी तहा संयमित हो जाता है।
जीवन का कोई भी झंझवात उसे
कभी विचलित नही कर पाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-19

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ १९ ॥
जिसप्रकार वायुरहित स्थान में दीपक हिलता-डुलता नहीं, उसी तरह जिस योगी का मन वश में होता है, वह आत्मतत्त्व के ध्यान में सदैव स्थिर रहता है।
**********************************
हवा नहीं होती जिस जगह वहाँ  
दीपक हिलता-डुलता नहीं जैसे।
योग में ही स्थित रहता जो योगी 
उसका मन भी स्थिर होता है वैसे।।

दीपक की लौ कभी इधर-उधर 
नहीं हो सकती जैसे बिन हवा के।
योगी का मन भी स्थिर हो जाता 
आत्मा में बसे परमात्मा पर जाके।।

Sunday, November 20, 2016

अध्याय-6, श्लोक-18

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ १८ ॥
जब योगी योगाभ्यास द्वारा अपने मानसिक कार्यकलापों को वश में कर लेता है और अभ्यास में स्थित हो जाता है अर्थात समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हो जाता है, तब वह योग में सुस्थिर कहा जाता है।
*********************************
अपने योग के अभ्यास के द्वारा 
योगी मन को वश में कर लेता है।
जगत के भटकन से निकाल मन  
परमात्मा की ओर मोड़ देता है।।

जब संसार की सारी इच्छाओं से 
वह पूरी तरह मुक्त हो जाता है।
तब उसका अभ्यास सफल होता 
वह योग में सुस्थिर  कहलाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-17

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ १७ ॥
जो खाने-सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है।
*************************************
खाने, पीने, सोने हर काम में 
जो सदा ही नियमित रहता है।
आमोद-प्रमोद हो या कर्त्तव्य 
हर कार्य ही नियम से करता है।।

ऐसा अनुशासित व्यक्ति ही तो  
योग का अभ्यास कर पाता है।
योगाभ्यास द्वारा वह अपने सारे 
क्लेशों को दूर कर सकता है।।

अध्याय-6, श्लोक-16

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ १६ ॥
हे अर्जुन! जो अधिक खाता है या बहुत कम खाता है, जो अधिक सोता है अथवा जो पर्याप्त नहीं सोता उसके योगी बनने की सम्भावना नहीं है।
********************************
हे अर्जुन! योगी बनने के लिए तो 
ज़रूरी है जीवन में संतुलित होना।
बहुत अधिक भोजन भी ठीक नहीं 
न ही ठीक ज़रूरत से कम खाना।।

मुश्किल है  योग उसके लिए जो 
आवश्यकता से अधिक सोता है।
और जो ज़रूरत की नींद भी न ले 
वह भी योगी नहीं बन सकता है।।

Saturday, November 19, 2016

अध्याय-6, श्लोक-15

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ १५ ॥
इसप्रकार शरीर, मन तथा कर्म में निरंतर संयम का अभ्यास करते हुए संयमित मन वाले योगी को इस भौतिक अस्तित्व की समाप्ति पर भगवद्धाम की प्राप्ति होती है।
*******************************
इसप्रकार शरीर से अपने जो 
निरंतर अभ्यास करता रहता।
मन को अपने हमेशा ही वह 
परमात्मा में ही स्थिर रखता।।

परम शांति को प्राप्त कर चुका 
ऐसा संयमित योगी जो होता।
सांसारिक बंधन से मुक्त होकर  
वह भगवद्धाम अवश्य ही जाता।।

अध्याय-6, श्लोक-13-14

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌ ॥ १३ ॥
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ १४ ॥
योगाभ्यास करनेवाले को चाहिए कि वह अपने शरीर, गर्दन तथा सिर को सीधा रखे और नाक के अगले सिरे पर दृष्टि लगाए। इसप्रकार वह अविचलित तथा दमित मन से, भयरहित, विषयीजीवन से पूर्णतया मुक्त होकर अपने हृदय में मेरा चिंतन करे और मुझे ही अपना चरमलक्ष्य बताए।
*************************************
योगाभ्यास के लिए आवश्यक 
कि योग्गी की मुद्रा संतुलित हो।
शरीर, गर्दन व सिर सीधा रखे 
और दृष्टि नाक के सिरे पर हो।।

यहाँ-वहाँ भटके न ध्यान उसका 
मन भी भय से सर्वथा मुक्त हो।
इन्द्रियविषयों के विचलन से दूर 
जीवन उसका ब्रह्मचर्य युक्त हो।।

मन को भली-भाँति शांत करके 
मुझे ही वो अपना लक्ष्य बनाये।
सारे मोह-ममता के बंधन छोड़ 
एकमात्र मेरे आश्रय में वो आये।।

मन को मुझ पर स्थित करके वो 
बस मुझ पर अपना ध्यान धरे ।
फिर अपने हृदय में हरपल वह 
सिर्फ़ मेरा ही चिंतन-मनन करे।।

अध्याय-6, श्लोक-11-12

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌ ॥ ११ ॥
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ १२ ॥
योगाभ्यास के लिए योगी एकांत स्थान में जाकर भूमि पर कुशा बिछा दे और फिर उसे मृगछाला से ढके तथा ऊपर से मुलायम वस्त्र बिछा दे। आसन न तो बहुत ऊँचा हो, न ही बहुत नीचा। यह पवित्र स्थान में स्थित हो। योगी को चाहिए कि इसपर दृढ़तापूर्वक बैठ जाए और मन, इंद्रियों तथा कर्मों को वश में करते हुए तथा मन को एक बिंदु पर स्थिर करके हृदय को शुद्ध करने के लिए योगाभ्यास करे।
*********************************
योगाभ्यास के लिए ज़रूरी है  
विशेष बातों का ध्यान रखना।
और सबसे पहले आवश्यक है 
योगी का एकांत स्थान ढूँढना।।

यह स्थान अगर पवित्र हो तो 
वहाँ वह कुशा से आसन बनाए।
मृगछाला व मुलायम वस्त्र को 
वह आसन के ऊपर बिछाए।।

ध्यान रहे कि आसन अपना वो 
बहुत ऊँचा या नीचा न लगाए।
जब आसन उपयुक्त तैयार हो 
तो दृढ़तापूर्वक उस पर बैठ जाए ।।

अपने मन, इंद्रियों और कर्मों की 
सारी क्रियाओं को वश में रखे।
मन को एक बिंदु पर स्थिर कर 
हृदय - शुद्धि हेतु योगाभ्यास करे।।

अध्याय-6, श्लोक-10

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ १० ॥
योगी को चाहिए कि वह सदैव अपने शरीर, मन तथा आत्मा को परमेश्वर में लगाए, एकांत स्थान में रहे और बड़ी सावधानी के साथ अपने मन को वश में करे। उसे समस्त आकांक्षाओं तथा संग्रहभाव की इच्छाओं से मुक्त होना चाहिए।
*********************************************
योगी तो तन, मन और आत्मा से 
सदा परमेश्वर में ही ध्यान लगाए ।
एकांत में रहकर मन को यूँ साधे 
कि मन वही करे जो वो बताए।।

कुछ भी पाने की लालसा न हो 
जग का आकर्षण लुभा न पाए।
किसी वस्तु को संग्रह करने की 
इच्छा भी उसके मन में न आए।।

अध्याय-6, श्लोक-9

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ ९ ॥
जब मनुष्य निष्कपट हितैषियों, प्रिय मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईर्ष्यालुओं, शत्रुओं तथा मित्रों, पुण्यात्माओं एवं पापियों को समान भाव से देखता है, तो वह और भी उन्नत माना जाता है।
*****************************************
कोई हित चाहे या अहित करे 
मित्रता करे या निभाये शत्रुता।
ईर्ष्या करे कोई तो भी उसके  
स्वभाव में अंतर नहीं पड़ता।।

सबके लिए एक समान भाव 
कभी किसी से वैर नहीं करता।
चाहे कोई तटस्थ हो या फिर 
कोई कर रहा हो मध्यस्थता।।

पापी, पुण्यात्मा सबको ही वो 
एक समान दृष्टि से ही देखता।
ऐसा निर्मल भाव वाला व्यक्ति 
जीवन में बहुत आगे बढ़ा होता।।

अध्याय-6, श्लोक-8

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥ ८ ॥
वह व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त तथा योगी कहलाता है जो अपने अर्जित ज्ञान तथा अनुभूति से पूर्णतया संतुष्ट रहता है। ऐसा व्यक्ति अध्यात्म को प्राप्त तथा जितेंद्रिय कहलाता है। वह सभी वस्तुओं को - चाहे वे कंकड़ हों, पत्थर हो या कि सोना एकसमान देखता है।
**************************************
जिसे परम तत्त्व का ज्ञान हुआ 
और अनुभव से भी जान लिया।
वही योगी कहलाता है जिसने 
चित्त को है अपने स्थिर किया।।

इंद्रियों को अपने वश में रखता 
प्रभु को पाकर संतुष्ट वो रहता है।
कंकड़ हो, पत्थर हो या हो सोना 
उसे सब एक समान ही लगता है।।

अध्याय-6, श्लोक-7

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥ ७ ॥
जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है क्योंकि उसने शांति प्राप्त कर ली है। ऐसे पुरुष के लिए सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी एवं मान-अपमान एक ही है।
*******************************
मन को जिसने जीत लिया है 
उसने प्रभु को प्राप्त किया है।
प्रभु को पा लेने का मतलब है 
परम शांति को पा लिया है ।।

फिर तो वह व्यक्ति के जग के 
सुख-दुःख से ऊपर उठ जाता।
सर्दी-गर्मी हो या मान -अपमान 
सब उसके लिए एक ही होता।।

अध्याय-6, श्लोक-6

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌ ॥ ६ ॥
जिसने मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है, किंतु जो ऐसा नहीं कर पाया उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा।
******************************
मन को अपने वश में रखकर 
जिसने उसको जीत लिया है।
उसके लिए तो मन से बेहतर 
जग में न कोई मित्र हुआ है।।

लेकिन जो मन से हार गया 
जिसे मन ने हैं वश में किया।
उसके लिए तो मन से बढ़कर 
जग में नहीं कोई शत्रु हुआ।।

Friday, November 18, 2016

अध्याय-6, श्लोक-5

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ ५ ॥
मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे गिरने न दे। यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी।
******************************
मनुष्य को चाहिए मन के द्वारा
अपने उद्धार का वो प्रयास करे।
इस जन्म-मृत्यु के बंधन को काटे  
निम्न योनियों में और वो न गिरे।।

इस संसार में फँसे जीवों के लिए
अनुकूल मन होता उसका मित्र है।
और वही मन बन जाता है शत्रु
जब होती स्थितियाँ  विपरीत है।।

Thursday, November 17, 2016

अध्याय-6, श्लोक-4

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥ ४ ॥
जब कोई पुरुष समस्त भौतिक इच्छाओं का त्याग करके न तो इन्द्रियतृप्ति के लिए कार्य करता है और न सकामकर्मों में प्रवृत्त होता है तो वह योगारूढ़ कहलाता है।
************************************
जब मन में सांसारिक सुख की 
कोई इच्छा शेष नहीं रहती है।
इंद्रियाँ विषयों के पीछे -पीछे 
तृप्ति के लिए नहीं भटकती हैं।।

न फल की कोई कामना होती 
न सुख के लिए कार्य करता है।
ऐसी स्थिति में पहुँचकर पुरुष 
योग में स्थित हुआ कहलाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-3

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ ३ ॥
अष्टांगयोग के नवसाधक के लिए कर्म साधन कहलाता है और योगसिद्ध पुरुष के लिए समस्त भौतिक कार्यकलापों का परित्याग ही साधन कहलाता है।
***********************************
मन को वश में करने के लिए 
कोई अष्टांगयोग शुरू करता है।
योग प्राप्ति के लिए कर्म करना 
यही उसके लिए साधन होता है।।

जो इस पथ पर आगे बढ़े हुए हैं 
जिनके नियंत्रण में उनका मन है।
उन सिद्ध योगियों के लिए फिर  
भौतिक कर्मों का त्याग साधन है।।

अध्याय-6, श्लोक-2

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ॥ २ ॥
हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं उसे ही तुम योग अर्थात परब्रह्म से युक्त होना जानो क्योंकि इन्द्रियतृप्ति की इच्छा को त्यागे बिना कोई कभी योगी नहीं हो सकता।
**********************************
हे पाण्डुपुत्र ! संन्यास और योग 
दोनों एक-दूसरे से भिन्न नहीं है।
परब्रह्म से मिलानेवाला योग हो  
या हो संन्यास, दोनों एक ही है।।

क्योंकि जब तक इन्द्रिय-सुख की 
कामना का त्याग नहीं कर लेता।
तब तक कोई भी मनुष्य कभी भी 
परमात्मा को पा नहीं है  सकता।।

अध्याय-6, श्लोक-1

श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥ १ ॥
श्रीभगवान ने कहा- जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है और जो अपने कर्त्तव्य का पालन करता है, वही संन्यासी और असली योगी है। वह नहीं, जो न तो अग्नि जलाता है और न ही कर्म करता है।
*****************************************
श्रीभगवान योगी व संन्यासी का 
वास्तविक अर्थ यहाँ बताते हैं।
फल की इच्छा बिना कर्म करे 
वही संन्यासी, योगी कहलाते हैं।।

अग्नि का त्याग कर देने भर से 
कोई संन्यासी नहीं बन जाता है।
कर्मों से मुख मोड़ लेने मात्र से 
कोई भी योगी नहीं कहलाता है।।

Wednesday, November 16, 2016

अध्याय-5, श्लोक-29

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ २९ ॥
मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावमृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शांति लाभ करता है।
******************************************
सारे यज्ञों और तपस्याओं का 
मुझे परम भोक्ता जो जानता है। 
सभी लोकों और देवताओं, इन  
सबका मुझे स्वामी मानता है।।

पता है जिसे मेरी प्रकृति का कि 
मैं सबका ही सदा हितैषी रहता।
मेरी दयालुता को समझनेवाला  
परम शांति अवश्य प्राप्त करता।।

******कर्मयोग-कृष्णभावनाभावित कर्म नाम का पाँचवा अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-5, श्लोक-27-28

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ २७ ॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ २८ ॥
समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौहों के मध्य केंद्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इंद्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है। जो निरंतर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है।
*************************************
इन्द्रियविषयों का चिंतन 
बाहर ही त्यागकर।
दृष्टि को भौहों के
मध्य में केंद्रित कर।।

प्राण - अपान वायु को 
नथुनों के भीतर रोककर।
इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि 
तीनों अपने वश में कर।।

चलता है जीवन में बस
मोक्ष को लक्ष्य बनाकर।
वह होता योगी इच्छा 
भय और क्रोध त्यागकर।।

जो जीता है निरंतर 
इसी अवस्था में रहकर।
वो तो होता है मुक्त 
इसी संसार में ही होकर।।

अध्याय-5, श्लोक-26

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌ ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌ ॥ २६ ॥
जो क्रोध तथा समस्त इच्छाओं से रहित है, जो स्वरूपसिद्ध, आत्मसंयमी हैं और संसिद्धि के लिए निरंतर प्रयास करते हैं उनकी मुक्ति निकट भविष्य में सुनिश्चित है।
************************************
भौतिक इच्छाओं का मोह नहीं 
क्रोध से भी पूरी तरह मुक्त है।
आत्म-ज्ञान प्राप्त कर चुका है  
जो आत्म-संयम से भी युक्त है।

ऐसा स्वरूप सिद्ध व्यक्ति ही  
जीवन में परम शांति पाता है।
जब भी जाता इस जग से वो 
परमात्मा के पास ही जाता है।।

अध्याय-5, श्लोक-25

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥ २५ ॥
जो लोग संशय से उत्पन्न होनेवाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म-साक्षात्कार में रत है, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं।
**************************************
जग के सारे जंजालों से परे हैं जो 
सारी दुविधाएँ मिट चुकी जिनकी।
पाप का लेश मात्र भी नहीं होता 
आत्म-ज्ञान में रत है बुद्धि उनकी।।

प्राणियों के कल्याण के लिए ही  
जिनके समस्त कार्य हुआ करते हैं।
ऐसे ब्रह्म ज्ञानी मनुष्य एकदिन 
अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-24

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ २४ ॥
जो अंतःकरण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अंतःकरण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अंतर्मुखी होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है। वह परब्रह्म में मुक्ति पाता है और अंततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है।
***************************************
जो अपने अंतर में आनंद पाता  
आत्मा में ही ज्ञान प्राप्त करता।
मन को स्थिर कर आत्मा में जो  
हर पल सुख का अनुभव करता।।

वही मनुष्य वास्तव में योगी है 
और परब्रह्म में मुक्ति पाता है।
स्वरूपसिद्ध वह मानव निश्चित 
फिर परब्रह्म को प्राप्त होता है।।

Tuesday, November 15, 2016

अध्याय-5, श्लोक-23

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्‌ ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥ २३ ॥
यदि इस शरीर को त्यागने के पूर्व कोई मनुष्य इंद्रियों के वेगों को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होता है, तो वह संसार में सुखी रह सकता है।
******************************************
शरीर का अंत हो इससे पहले 
संयमित रहना सीख लिया है।
काम-क्रोध के वगों को जिसने 
पूरी तरह अपने वश में किया है।।

ऐसा व्यक्ति जग में रहकर भी 
योगी की तरह निर्लिप्त होता है।
दुःख से भरी इस दुनिया में भी 
वह सुख-शांति से रह सकता है।।

अध्याय-5, श्लोक-22

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ २२ ॥ 
बुद्धिमान मनुष्य दुःख के कारणों में भाग नही लेता जो कि भौतिक इंद्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं। हे कुंतिपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अंत होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनंद नही लेता।
****************************
इंद्रियों और उसके विषयों से उपजा  
सुख, दुःख का ही कारण होता है।
प्रारम्भ में कितना भी सुखकर लगे 
पर अंत में सदा वह दुःख ही देता है।।

इंद्रियों से मिलने वाले इन भोगों का 
मिलना और छूटना लगा ही रहता।
हे कुंतिपुत्र! बुद्धिमान वही जो कभी 
क्षणिक भोगों में आनंद नहीं लेता।।

Monday, November 14, 2016

अध्याय-5, श्लोक-21

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌ ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ २१ ॥
ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रिय सुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अंतर में आनंद का अनुभव करता है। इसप्रकार स्वरूपसिद्ध व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्रचित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है।
********************************
दुनिया में फैला ये भौतिक सुख 
मुक्त पुरुष को कहाँ भाता है।
वो तो सदा ही समाधि में रहते     
उनको उसी में आनंद आता है।।

वे अपने आत्मा में ही रमण करते  
और परमात्मा पर ध्यान लगाते हैं।
बाहरी सुख उन्हें लुभा नहीं पाते  
अपने अंतर में इतना सुख पाते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-20

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌ ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ २० ॥
जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित है और भगवद्विद्या को जाननेवाला है वह पहले से ही ब्रह्म में स्थित रहता है।
*****************************************
प्रिय वस्तु का आना हर्षित न करे 
अप्रिय भी विचलित न कर पाए।
सुख और दुःख दोनों का ही समय  
बिना हर्ष-विषाद के निकल जाए।।

ऐसे स्थिर बुद्धिवाले मनुष्य कभी भी 
किसी प्रकार के मोह में नही फँसते।
ब्रह्म ज्ञान को जानने वाले ये लोग 
स्वयं भी सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते।।

अध्याय-5, श्लोक-19

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ १९ ॥
जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बंधनों को पहले ही जीत लिया है। वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।
*************************************
देखें सबको एक समान और 
हर जीव में जाने परमात्मा को।
जन्म-मृत्यु का बंधन भी फिर 
बाँध न पाए उन आत्माओं को।।

संसार के दोषों से कोशों दूर वे 
ब्रह्म के समान  निर्दोष होते हैं।
सांसारिक परपंचों से ऊपर उठे 
वे सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-18

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ १८ ॥
विनम्र साधु पुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता व चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।
*******************************************
वास्तविक ज्ञान को जिनसे साध लिया
वह हर जगह परमात्मा को देख पाता।
वस्तु, प्राणी, ऊँच-नीच, अपना-पराया 
सबके ही प्रति सहज समभाव हो जाता।।

वह तो सबको ही समान देखता है चाहे 
सामने उसके ब्राह्मण हो या चाण्डाल।
गाय, कुत्ता जैसे छोटे पशु हो समक्ष या 
सामने खड़ा हो हाथी जैसा पशु विशाल।।

अध्याय-5, श्लोक-17

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥ १७ ॥
जब मनुष्य की बुद्धि, मन, श्रद्धा तथा शरण सब कुछ भगवान में स्थिर हो जाते हैं, तभी वह पूर्णज्ञान द्वारा समस्त कल्मष से शुद्ध होता है और मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है।
****************************************
जब बना ले मनुष्य परमात्मा को 
अपनी बुद्धि और मन का विषय।
शरणागति और श्रद्धा हो हृदय में 
कहीं भी बचा रह न जाए संशय ।।

तब सारे पापों से शुद्ध हो जाता
तत्व ज्ञान के स्तर पर वो आकर।
फिर छोड़ संसार का आना-जाना 
बढ़ चलता वह मुक्ति के पथपर।।

अध्याय-5, श्लोक-16

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌ ॥ १६ ॥
किंतु जब कोई उस ज्ञान से प्रबुद्ध होता है, जिससे अविद्या का विनाश होता है, तो उसके ज्ञान से सब कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे दिन में सूर्य से सारी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं।
************************************
लेकिन जब जीव का अज्ञान 
उच्च ज्ञान से मिट जाता है।
अविद्या समाप्त हो जाती है 
वास्तविकता देख पाता है।।

सारे भ्रम मिट जाते हैं उसके 
फिर सत्य समक्ष ऐसे आता है।
जैसे सूर्य के उदित हो जाने पर 
हर पदार्थ प्रकट हो जाता है।।

अध्याय-5, श्लोक-15

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ १५ ॥
परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को। किंतु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो कि वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किए रहता है।
************************************
सबके शरीर में रहने वाले परमात्मा 
जीव के कर्मों से अलग ही है रहता।
न वह पाप कर्मों को ग्रहण करता हैं 
न ही पुण्य कर्मों में शामिल है होता।।

किंतु जीवात्मा तो अज्ञान के कारण 
सदा ही मोह जाल में फँसा रहता है।
और मोह इन्हीं परदों के कारण ही  
वास्तविक ज्ञान उससे ढँका रहता है।।

अध्याय-5, श्लोक-14

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ १४ ॥
शरीर रूपी नगर का स्वामी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है। यह सब तो प्रकृति के गुणों के द्वारा ही किया जाता है।
************************************
देह में रहता है जीवात्मा पर 
वह देह का कर्त्ता नहीं होता।
न ही कोई कर्म उत्पन्न करता 
न ही वह कर्मफल को रचता।

ये जितने भी कर्म होते हैं यहाँ 
और जो भी परिणाम दिखते हैं।
वे सब-के-सब प्रकृति के तीन 
गुणों द्वारा संचालित होते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-13

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥ १३ ॥
जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किए कराये सुखपूर्वक रहता है।
************************************
जब शरीर में रहनेवाला जीवात्मा
मन से कर्मों का त्याग कर देता है।
न कुछ करता और न ही करवाता
अपनी प्रकृति को वश में रखता है।।

ऐसी स्थिति में वह जीव सदा अपने
आत्म-स्वरूप में ही आनंद लेता है।
और इस नौ द्वार वाले नगर, देह में
बिना कुछ किए सुखपूर्वक रहता है।।