Saturday, June 24, 2017

अध्याय-10, श्लोक-18

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्‌ ॥ १८ ॥
हे जनार्दन! आप पुनः विस्तार से अपने ऐश्वर्य तथा योगशक्ति का वर्णन करें। मैं आपके विषय में सुनकर कभी भी तृप्त नहीं होता हूँ क्योंकि जितना ही आपके विषय में सुनता हूँ, उतना ही आपके शब्द-अमृत को चखना चाहता हूँ।
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आपके विषय में जितना मैं सुनूँ  
उतनी ही बढ़ती जाती लालसा
इस अतृप्त हृदय को सदा रहती 
इन अमृत वचनों की अभिलाषा।

हे जनार्दन! जग के स्वामी प्रभु 
अपने ऐश्वर्यों को पुनः बताए 
अपनी योगशक्ति के विषय में 
तनिक फिर से हमें समझाएँ ।।

अध्याय-10, श्लोक-17

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्‌ ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥ १७ ॥
हे कृष्ण! हे परम योगी! मैं किस तरह आपका चिंतन करूँ और आपको कैसे जानूँ? हे भगवान! आपका स्मरण किन-किन रूपों में किया जाय?
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हे योगेश्वर! हे भगवन! बताए 
कैसे हम आपको जान पाए 
कैसे मन आप में हम लगाए 
कैसे आपका चिंतन कर पाए?

किस-किस भाव में भजे हम 
किस-किस रूप का ध्यान धरे 
कैसे हम आपको जाने-पहचाने 
आपको पाने के लिए क्या करे?

अध्याय-10, श्लोक-16

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥ १६ ॥
कृपा करके विस्तारपूर्वक मुझे अपने उन दैवी ऐश्वर्यों को बताएँ जिनके द्वारा आप इन समस्त लोकों में व्याप्त हैं।
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कैसे रहते हैं आप व्याप्त
इस सृष्टि के कण-कण में
समस्त लोकों में हर समय
उपस्थित कैसे हर क्षण में।

ये अलौकिक दिव्य ऐश्वर्य
प्रभु हमें विस्तार से बताए
आपके सिवा कौन समर्थ
जो हमें ये वैभव समझाए।।

Wednesday, June 21, 2017

अध्याय-10, श्लोक-15

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥ १५ ॥
हे परमपुरुष, हे सबके उद्गगम, हे समस्त प्राणियों के स्वामी, हे देवों के देव, हे ब्रह्मांड के प्रभु! निस्सन्देह एकमात्र आप ही अपने को अपनी अंतरंगाशक्ति से जानने वाले हैं।
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हे पुरुषोत्तम, हे सबके आदि प्रभु 
ब्रह्मांड नायक हे  सृष्टि के स्वामी
हे देवों के देव हे आदिदेव भगवन 
स्वतंत्र, स्वराट आप प्रभु अंतर्यामी।

एकमात्र आप ही स्वयं को जानते 
अन्य कोई नहीं है इस त्रिभुवन में।
आप चाहो तो कोई जाने आपको 
जब देते ज्ञान आप बैठ अंतर्मन में।।

Tuesday, June 20, 2017

अध्याय-10, श्लोक-14

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥ १४ ॥
हे कृष्ण! आपने मुझसे जो भी कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ। हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं।
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हे केशव! जो भी कहा है आपने 
सब पर ही पूरा विश्वास रखता हूँ 
आप के हर शब्द हर अक्षर को 
मैं पूर्ण रूप से स्वीकार करता हूँ।

हे प्रभु!आपके दिव्य स्वरूप को 
कोई भी नहीं  समझ सकता है 
चाहे वो शक्तिशाली असुर है  
या फिर चाहे वह मृदु देवता है।।

अध्याय-10, श्लोक-12-13

अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्‌ ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्‌ ॥ १२ ॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥ १३ ॥
अर्जुन ने कहा-आप परम भगवान, परमधाम, परमपवित्र, परम सत्य हैं। आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं।
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र्जुन बोले हे भगवन! आप ही
परम ईश्वर आप परम आश्रय हो 
परम शुद्ध परम पावन आप ही 
परमसत्य हर चेतना के विषय हो।

शाश्वत सनातन पुरुष हैं आप प्रभु 
दिव्य, अलौकिक अजन्मा है आप 
आप सारे देवताओं के आदि देव 
आप ही तो हैं  विभु सर्वत्र व्याप्त।

नारद, असित, देवल और व्यास 
सबकी यही मति है आपको लेकर 
आप ने भी पुष्टि कर ही दी इसकी  
आज ये परम ज्ञान स्वयं मुझे देकर।

अध्याय-10, श्लोक-11

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं           तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ ११ ॥
मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ।
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ऐसे अनन्य शुद्ध भक्तों पर
होती है मेरी भी कृपा विशेष
भक्ति की सहूलियत देने में
छोड़ता नहीं मैं कुछ भी शेष।

इनके हृदयों में वास कर मैं
उन्हें सदा प्रकाशित हूँ करता
ज्ञान के आलोक से मैं इनके
अज्ञान के अंधकार हर लेता।।

Friday, June 16, 2017

अध्याय-10, श्लोक-10

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्‌ ।
ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ १० ॥
जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरंतर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।
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मुझसे मन जुड़ गया जिनका 
मेरा ही भजन करे जो निरंतर 
प्रेम पूर्वक मेरा स्मरण करते 
मुझसे ही आप्लावित अंतर।

ऐसे मधुर भक्त मुझसे दिव्य 
ऐसा बुद्धियोग प्राप्त करते हैं  
जिसके द्वारा वे सहजता से  
मुझ परमेश्वर तक आ सकते हैं।

अध्याय-10, श्लोक-9

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्‌ ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ९ ॥
मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम संतोष तथा आनंद का अनुभव करते हैं।
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मुझमें चित्त लगा है जिनका 
उनके मन मुझमें वास करते हैं 
परस्पर मेरी कथा लीला गान 
इन कार्यों में ही लगे रहते हैं।

मेरी सेवा में जीवन समर्पित 
कुछ और इच्छा न होती उनकी 
आनंद में रमण करते हैं सदा वे 
लग जाती मुझमें मति जिनकी।।

अध्याय-10, श्लोक-8

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥ ८ ॥
मैं समस्त आध्यात्मिक और भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है। जो बुद्धिमान ये भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं।
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मैं ही कारण सम्पूर्ण जगत का 
भौतिक हो या हो आध्यात्मिक
मुझसे ही उत्पन्न होकर ये सब 
मेरी शक्ति से ही होते कार्यान्वित।

विद्वान पुरुष इन सबको जान 
मेरी प्रेमाभक्ति में लगा रहता है 
मेरी अराधना में तत्पर वो रह 
निरंतर मेरा ही स्मरण करता है।।

अध्याय-10, श्लोक-7

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥ ७ ॥
जो मेरे इस ऐश्वर्य तथा योग से पूर्णतया आश्वस्त है, वह मेरी अनन्य भक्ति में तत्पर होता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
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मेरे ये ऐश्वर्य योग व शक्ति 
जो कोई तत्त्व से जान लेता 
मुझसे ही सब,जो दृष्टिगोचर 
मन से जो कोई ये मान लेता।

वह पाता है मेरी अनन्य भक्ति 
भकटना उसका फिर सम्भव नही 
बना रहता भक्ति पथ पर अडिग
नहीं है इसमें कोई संशय कहीं।

अध्याय-10, श्लोक-6

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥ ६ ॥
सप्तर्षिगण तथा उनसे भी पूर्व चार अन्य महर्षि एवं सारे मनु (मानवजाति के पूर्वज) सब मेरे मन से उत्पन्न हैं और विभिन्न लोकों में निवास करने वाले जीव उनसे अवतरित होते हैं।
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सप्तर्षिगण हो या उनसे पहले 
प्रकट हुए सनकादि चारों कुमार 
मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं ये सब 
मैं ही हूँ इनका एकमात्र आधार।

सारे मनु भी मेरे मन से हैं जन्मे 
जिनसे ये मानव जाति आयी है 
कोई भी मुझसे विलग नहीं यहाँ 
ये सारी सृष्टि मेरी ही बनायी है।।

Thursday, June 15, 2017

अध्याय-10, श्लोक-4-5

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥ ४ ॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥ ५॥
बुद्धि, ज्ञान, संशय तथा मोह से मुक्ति, क्षमाभाव, सत्यता, इन्द्रियनिग्रह, मननिग्रह, सुख तथा दुःख, जन्म, मृत्यु, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश तथा अपयश-जीवों के ये विविध गण मेरे ही द्वारा उत्पन्न हैं।
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संशय मिटानेवाली बुद्धि 
मोह से मुक्त करे जो ज्ञान 
क्षमा व सत्य का आचरण 
स्थिर मन,इंद्रियों पे नियंत्रण।

जन्म मृत्यु का कारण 
सुख दुःख की अनुभूति
भय अभय की चिंता 
यश अपयश की प्राप्ति।

तपस्या की शक्ति और 
अहिंसा व समता का भाव 
दान की प्रवृत्ति और 
संतुष्ट होनेवाला स्वभाव।

इन सबके पीछे का कारण 
मनुष्यों के विभिन्न स्वभाव 
मुझसे से सब उत्पन्न होते 
मुझसे से मिलते हैं सारे भाव।।

अध्याय-10, श्लोक-3

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्‌ ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ३ ॥
जो मुझे अजन्मा, अनादि, समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जानता है, मनुष्यों में केवल वही मोहरहित और समस्त पापों से मुक्त होता है।
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मैं हूँ जन्म-मृत्यु से परे अजन्मा 
मैं हूँ समस्त लोकों का स्वामी 
मेरा कोई आरम्भ या अंत नहीं 
मैं आदि अंत से परे हूँ अनादि।

मरणशील मनुष्यों में से जो इन 
बातों को समझ व जान लेता है 
मोह में वो फिर पड़ता नहीं कभी 
सारे पापों से भी मुक्त होता है।।

अध्याय-10, श्लोक-2

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥ २ ॥
न तो देवतागण मेरी उत्पत्ति या ऐश्वर्य को जानते हैं और न महर्षिगण ही जानते हैं, क्योंकि मैं सभी प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी कारण स्वरूप (उद्गगम) हूँ।
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न देवी देवता न महान महर्षि 
कोई भी मुझे कहाँ जान पाए 
मेरा ऐश्वर्य और मेरा प्रभाव 
भलीभाँति कोई समझ न पाए।

क्योंकि सभी देवी देवता और 
ऋषि मुनियों के समस्त प्रकार 
सबको उत्पन्न मैंने ही है किया
मैंने ही दिया आकार व आहार।

अध्याय-10, श्लोक-1

श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥ १ ॥
श्री भगवान ने कहा-हे महाबाहु अर्जुन! और आगे सुनो। चूँकि तुम मेरे प्रिय सखा हो, अतः मैं तुम्हारे लाभ के लिए ऐसा ज्ञान प्रदान करूँगा, जो अभी तक मेरे द्वारा बताए गए ज्ञान में श्रेष्ठ होगा।
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श्री भगवान ने कहा अर्जुन से
ग्रहण करो मेरे ये परम उपदेश
दे रहा हूँ मैं ये दिव्य परम ज्ञान
तुम्हें अपना प्रिय व सखा देख।

हे महाबाहु ! तुम्हारे हित में ही
ये ज्ञान तुम्हें मैं बतला रहा हूँ
उन सब में ही श्रेष्ठ है ये ज्ञान
जितनी बातें अब तक कहा हूँ।।