यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३८॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ३९॥
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥ ३८॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ ३९॥
हे जनार्दन! यद्यपि लोभ से अभिभूत चित्त वाले ये लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रों से द्रोह करने में कोई दोष नही देखते किंतु हम लोग, जो परिवार के विनष्ट करने में अपराध देख सकते हैं, ऐसे पापकर्मों में क्यों प्रवृत्त हों?
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हे जनार्दन! अंतर है हममें और उनमें
हम उनकी तरह तो लोभी नही है।
हमें देख सकते हैं परिणाम युद्ध का
हमें पता क्या ग़लत, क्या सही है।
वे नही देख सकते मित्र द्रोह के दोष
पर ये अपराध है, हम तो जानते हैं।
परिवार के विनाश पर तुले भले वे
पर ये पापकर्म है, हम तो जानते हैं।
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