Wednesday, September 21, 2016

अध्याय-1,श्लोक-32-35

किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ।
येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥ ३२॥
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥ ३३॥
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ॥ ३४॥
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ॥ ३५॥


हे गोविंद ! हमें राज्य, सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ ! क्योंकि जिन सारे लोगों के लिए हम उन्हें चाहते हैं वे ही इस युद्धभूमि में खड़े हैं। हे मधुसूदन ! जब गुरुजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, सालें तथा अन्य सारे सम्बन्धी अपना - अपना धन एवं प्राण देने के लिए तत्पर हैं और मेरे समक्ष खड़े हैं तो फिर मैं इन सबको क्यों मारना चाहूँगा, भले ही वे मुझे क्यों न मार डाले? हे जीवों के पालक ! मैं इन सबों से लड़ने को तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीनों लोक क्यों न मिलते हो, इस पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें। भला धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन -सी प्रसन्नता मिलेगी?

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करुणा व दया के कारण
और ममता के अतिरेक में।
भूलकर सारे प्रण व प्रतिज्ञा
डूबें रहे अर्जुन अब शोक में।।


राज्य, सुख और ये जीवन तो
अपनों के संग ही भला लगे।
पाकर भी इनको क्या करूँगा
जब पाने में छूट जाएँगे सगे।।


गुरु, पिता, पुत्र और पितामह
ससुर, पौत्र, साले सारे संबंधी।
ऐसा पड़ा है मोह का पर्दा कि
विवेक की आँखें हो रही अँधी।।


पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें
मिल जाए चाहे मुझे तीनों लोक।
मैं नही लड़ूँगा अपनों से क्योंकि
मिलेनवाला है मुझे सिर्फ़ शोक।।



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