Monday, July 31, 2017

अध्याय-10, श्लोक-25

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्‌ ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥ २५ ॥
मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ।
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महर्षि भृगु हूँ मैं जितने भी 
महर्षियों के हैं यहाँ प्रकार
वाणी के मध्य से हूँ आदि 
दिव्य,पवित्र,अक्षर ओंकार ।

जितने भी यज्ञों की है चर्चा
उनमें हूँ नाम जप यज्ञ विमल 
न चलनेवालों की श्रेणी में से 
मानो मुझे हिमालय अचल।।

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