Tuesday, January 10, 2017

अध्याय-9, श्लोक-18

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्‌ ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्‌ ॥ १८ ॥
मैं ही लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा अत्यंत प्रिय मित्र हूँ। मैं सृष्टि तथा प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अविनाशी बीज भी हूँ।
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मैं ही प्राप्त करने योग्य परम लक्ष्य 
मैं ही करता हूँ सबका भरण-पोषण।
मुझसे सी सब जीव हुए हैं उत्पन्न 
मैं ही हूँ सबका अविनाशी कारण।।

मैं ही स्वामी व अच्छे-बुरे का साक्षी 
मैं ही सबका गंतव्य परम धाम हूँ।
जहाँ ले सकते हैं सारे जीव शरण 
मैं ही एकमात्र वह परम विश्राम हूँ।।

अटूट प्रेम करनेवाल मित्र हूँ सबका 
मैं सृष्टि करता, मैं ही प्रलय करता।
मैं ही आधार जग व  जगवालों का
मैं ही इन सबको आश्रय हूँ  देता।।

अध्याय-9, श्लोक-17

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ॥ १७ ॥
मैं इस ब्रह्मांड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूँ। मैं ही ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्त्ता तथा ओंकार हूँ। मैं ही ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद हूँ।
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मैं ही हूँ पालनकर्त्ता पिता 
मैं ही  सबकी जननी माता।
मैं ही वो मूल स्रोत पितामह 
मैं ही हूँ सबका आश्रयदाता।।

मैं ही हूँ जानने योग्य जग में 
मैं ही शुद्धिकर्त्ता व ओंकार हूँ।
मैं ही हूँ ऋग्वेद और सामवेद 
मैं ही यजुर्वेद का आधार हूँ।।

अध्याय-9, श्लोक-16

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ ।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥ १६ ॥
किंतु मैं ही कर्मकांड, मैं ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला तर्पण, औषधि, दिव्य ध्वनि (मंत्र), घी, अग्नि तथा आहुति हूँ।
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मैं ही हूँ कर्मकांड 
मैं यज्ञ कहलाता हूँ।
मैं ही औषधि, मैं ही 
पितरों का तर्पण होता हूँ।।

मैं ही हूँ मंत्र भी 
मैं ही घृत भी हूँ।
मैं ही हूँ अग्नि 
मैं ही आहुति हूँ।।

Monday, January 9, 2017

अध्याय-9, श्लोक-15

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥ १५ ॥
अन्य लोग जो ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यज्ञ में लगे रहते हैं, वे भगवान की पूजा उनके अद्वय रूप में, विविध रूपों में तथा विश्व रूप में करते हैं।
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ज्ञान के अनुशीलन द्वारा कुछ  
लोग यज्ञ कार्य में लगे रहते हैं।
कुछ मुझे एक ही तत्त्व जानकर 
अद्वय रूप में मुझको पूजते हैं।।

अलग-अलग तत्त्व मानकर कुछ 
मनुष्य द्वैतभाव से मुझे भजते हैं।
अनेक विधियाँ हैं पूजा की कुछ   
मेरे विश्व रूप की पूजा करते हैं।।

Saturday, January 7, 2017

अध्याय-9, श्लोक-14

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥ १४ ॥
ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढ़संकल्प के साथ प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरंतर मेरी पूजा करते हैं।
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ऐसे महात्माजन दृढ़ता पूर्वक  
मेरी महिमा का गान करते हैं।
ऐसे ही चलता रहे ये गुणगान  
निरंतर इसी प्रयास में रहते हैं।।

सदा मेरी भक्ति में स्थित होते   
बारम्बार मुझे नमस्कार करते।
भक्ति भाव से भरा होता ह्रदय 
निरंतर मेरी पूजा में लगे रहते।।

अध्याय-9, श्लोक-13

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यम्‌ ॥ १३ ॥
हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं। वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान के रूप में जानते हैं।
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हे पार्थ! मोह से हैं मुक्त महात्मा 
वे सब मेरी शरण ग्रहण करते हैं।
भौतिक प्रकृति के कष्ट से दूर वे 
दैवी प्रकृति से संरक्षित रहते हैं।।

पूरी तरह मेरी भक्ति में निमग्न 
अनन्य भाव से मुझे ही भजते हैं।
मैं ही हूँ सभी जीवों का उद्ग़म 
ये सत्य भलीभाँति वे जानते हैं।।

अध्याय-9, श्लोक-12

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥ १२ ॥
जो लोग इसप्रकार मोहग्रस्त होते हैं , वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं। इस मोहग्रस्त अवस्था में उनकी मुक्ति-आशा, उनके सकाम कर्म तथा ज्ञान का अनुशीलन सभी निष्फल हो जाते हैं।
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इसप्रकार मोहित होनेवाले लोग
किसी भी क्षेत्र में सफल न होते।
मुक्ति का पथ हो या सकाम कर्म
या ज्ञान, हर जगह निष्फल होते।।

भौतिक प्रकृति की माया में फँस
उसके जाल में ही उलझे रहते हैं।
आसुरी व्यवहार, नास्तिक विचार 
यही सब उन्हें आकर्षित करते हैं।।