अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥ १६ ॥
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥ १६ ॥
किंतु मैं ही कर्मकांड, मैं ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला तर्पण, औषधि, दिव्य ध्वनि (मंत्र), घी, अग्नि तथा आहुति हूँ।
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मैं ही हूँ कर्मकांड
मैं यज्ञ कहलाता हूँ।
मैं ही औषधि, मैं ही
पितरों का तर्पण होता हूँ।।
मैं ही हूँ मंत्र भी
मैं ही घृत भी हूँ।
मैं ही हूँ अग्नि
मैं ही आहुति हूँ।।
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