गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥ १८ ॥
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥ १८ ॥
मैं ही लक्ष्य, पालनकर्ता, स्वामी साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा अत्यंत प्रिय मित्र हूँ। मैं सृष्टि तथा प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अविनाशी बीज भी हूँ।
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मैं ही प्राप्त करने योग्य परम लक्ष्य
मैं ही करता हूँ सबका भरण-पोषण।
मुझसे सी सब जीव हुए हैं उत्पन्न
मैं ही हूँ सबका अविनाशी कारण।।
मैं ही स्वामी व अच्छे-बुरे का साक्षी
मैं ही सबका गंतव्य परम धाम हूँ।
जहाँ ले सकते हैं सारे जीव शरण
मैं ही एकमात्र वह परम विश्राम हूँ।।
अटूट प्रेम करनेवाल मित्र हूँ सबका
मैं सृष्टि करता, मैं ही प्रलय करता।
मैं ही आधार जग व जगवालों का
मैं ही इन सबको आश्रय हूँ देता।।
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