Showing posts with label अध्याय-८. Show all posts
Showing posts with label अध्याय-८. Show all posts

Saturday, January 7, 2017

अध्याय-9, श्लोक-12

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥ १२ ॥
जो लोग इसप्रकार मोहग्रस्त होते हैं , वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं। इस मोहग्रस्त अवस्था में उनकी मुक्ति-आशा, उनके सकाम कर्म तथा ज्ञान का अनुशीलन सभी निष्फल हो जाते हैं।
********************************
इसप्रकार मोहित होनेवाले लोग
किसी भी क्षेत्र में सफल न होते।
मुक्ति का पथ हो या सकाम कर्म
या ज्ञान, हर जगह निष्फल होते।।

भौतिक प्रकृति की माया में फँस
उसके जाल में ही उलझे रहते हैं।
आसुरी व्यवहार, नास्तिक विचार 
यही सब उन्हें आकर्षित करते हैं।।

Saturday, December 24, 2016

अध्याय-9, श्लोक-11

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌ ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌ ॥ ११
जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं। वे मुझ परमेश्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते।
**********************************
जब-जब मेरा मनुष्य रूप में इस
धरा-धाम पर अवतरण होता है।
मूर्ख मनुष्यों को मेरा दिव्य शरीर
अपने तरह ही भौतिक  लगता है।

वे तब मेरा उपहास हैं उड़ाते और
अपनी भाँति मरणशील समझते।
मैं ही हूँ सारे जीवों का परमेश्वर
मेरा स्वभाव वे जान ही नहीं पाते।।

Friday, December 23, 2016

अध्याय-9, श्लोक-10

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥ १० ॥
हे कुंतीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी ही शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं।इसके शासन में यह जगत बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है।
**********************************
हे कुंतीपुत्र! चर-अचर से समाहित ये 
भौतिक प्रकृति मेरी ही एक शक्ति है।
मेरी द्वारा ही होती है संचालित और 
मेरी अध्यक्षता में ही ये कार्य करती है।।

मेरे अधीन है वह और उसके शासन में 
जगत बारबार उत्पन्न-विनष्ट होता है।
मेरा प्रत्यक्ष कोई लेना-देना नही होता 
प्रकृति से ही जग परिवर्तित होता है।।

अध्याय-9, श्लोक-9

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ ९ ॥
हे धनंजय! ये सारे कर्म मुझे नहीं बाँध पाते। मैं उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ।
************************************
हे धनंजय! ये जितने भी कर्म 
मेरे द्वारा सम्पन्न किए जाते।।
उनमें से कोई भी मुझे अपने 
कर्म बंधन में बाँध नहीं पाते।।

क्योंकि मैं उन्हें किसी फल 
की इच्छा से नहीं करता हूँ।
मैं तो कर्म व फल दोनों से 
हमेशा ही विरक्त रहता हूँ।।

अध्याय-9, श्लोक-8

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्‌ ॥ ८ ॥
सम्पूर्ण विराट जगत मेरे अधीन है। यह मेरी इच्छा से बारम्बार स्वतः प्रकट होता रहता है और मेरी ही इच्छा से अंत में विनष्ट होता है।
*******************************
ये विशाल जगत, ये सम्पूर्ण सृष्टि 
मेरे अधीन रहकर ही कार्य करती।
जीवों की चौरासी लाख योनियाँ 
अपनी इच्छाएँ मुझसे पूरी करती।।

मेरी इच्छा से ही तो बारबार स्वयं 
यह जगत प्रकट होता ही रहता है।
प्रकट होकर फिर सृष्टि के अंत में 
मेरी ही इच्छा से विनष्ट होता है।।

अध्याय-9, श्लोक-7

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्‌ ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्‌ ॥ ७ ॥
हे कुंतीपुत्र! कल्प का अंत होने पर सारे प्राणी मेरी प्रकृति में प्रवेश करते हैं और अन्य कल्प के आरम्भ होने पर मैं उन्हें अपनी शक्ति से पुनः उत्पन्न करता हूँ।
**********************************
हे कुंतीपुत्र!! मेरी ही शक्ति से 
जीवों के जीवन चक्र चलते है।
कल्प का जब अंत होता तब 
सब मुझमें ही प्रवेश करते हैं।।

अन्य कल्प के आरम्भ होने पर 
मेरी शक्ति से ही उत्पन्न होते।
मुझसे ही सृजन,मुझसे संहार 
मुझसे ही सारे प्राणी हैं पलते।।

Thursday, December 22, 2016

अध्याय-9, श्लोक-6

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥ ६ ॥
जिस प्रकार सर्वत्र प्रवहमान प्रबल वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार समस्त उत्पन्न प्राणियों को मुझसे उत्पन्न जानो।
*********************************
सब जगह बहने वाली वायु
अत्यंत प्रबल और है महान ।
लेकिन उसका सदा ही रहता
आकाश के भीतर ही स्थान।।

वैसे ही जितने भी प्राणी हुए
उत्पन्न इस विशाल सृष्टि में।
सब मुझमें ही स्थित है रहते
सबका स्थान है मेरी दृष्टि में।।

Monday, December 19, 2016

अध्याय-8, श्लोक-28

वेदेषु यज्ञेषु तपः सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्‌ ।
अत्येत तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्‌ ॥ २८ ॥
जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है,वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होनेवाले फलों से वंचित नहीं होता। वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अंत में परम नित्य धाम को प्राप्त होता है।
*************************************
जो व्यक्ति भक्ति के पथ पे जाता
वह किसी फल से वंचित न रहता।
वेदाध्ययन, तपस्या, दान  का फल 
उसे बिना प्रयास सहज ही मिलता।।

दार्शनिक और सकाम कर्म के पुण्य 
वह मात्र भक्ति से प्राप्त कर लेता।
समस्त पुण्य फलों को भोगता हुआ 
अंत में मेरे परम धाम को आ जाता।

****** भगवद्प्राप्ति नाम का आठवाँ  अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-8, श्लोक-27

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥ २७ ॥ 
हे अर्जुन! यद्यपि भक्तगण इन दोनों मार्गों को जानते हैं, किंतु वे मोहग्रस्त नहीं होते। अतः तुम भक्ति में सदैव स्थित रहो।
*********************************
हे पृथापुत्र! मेरे भक्तों को 
दोनों पथ का पता होता है।
पर कोई भी पथ उन्हें कभी 
मोहग्रस्त नहीं कर पाता है।।

इसलिए हे अर्जुन! तुम भी 
उनकी तरह अनासक्त रहो।
हर समय मेरी भक्ति में ही 
मन को अपने स्थिर रखो।।

अध्याय-8, श्लोक-26

शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ॥ २६ ॥
वैदिक मतानुसार इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग हैं-एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार का। जब मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाता है तो वह वापस नहीं आता, किंतु अंधकार के मार्ग से जानेवाला पुनः लौटकर आता है।
********************************
वेदों के अनुसार इस संसार से दो 
मार्गों से ही जाया जा सकता है।
कोई प्रकाश के मार्ग से जाता तो 
कोई अंधकार का पथ पकड़ता है।।

जो मनुष्य प्रकाश के पथ से जाता 
वह कभी यहाँ वापस नहीं आता है।
पर  जो अंधकार के मार्ग से जाता 
वह यहाँ लौटकर अवश्य आता है।।

अध्याय-8, श्लोक-25

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्‌ ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥ २५ ॥
जो योगी धुएँ, रात्रि, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है, वह चंद्रलोक को जाता है, किंतु वहाँ से पुनः (पृथ्वी पर) चला आता है।
**********************************
जब अग्नि का धुआँ फैला हो 
या रात्रि का अंधकार घना हो।
कृष्णपक्ष का घटता चंद्रमा हो 
और सूर्य  दक्षिणायन बना हो।।

उन छह महीनों में जो भी योगी  
भौतिक शरीर का त्याग करता है।
पहले तो स्वर्ग जा सुख भोगता  
पर बाद में वापस यहीं गिरता है।।

अध्याय-8, श्लोक-24

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ २४ ॥
जो परमब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे अग्निदेव के प्रभाव में, प्रकाश में, दिन के शुभक्षण में, शुक्लपक्ष में या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है, उन छह मासों में इस संसार से शरीर त्याग करने पर उस परमब्रह्म को प्राप्त करते हैं।
********************************
जिस समय अग्नि जल रही हो 
दिन का समय सूर्य प्रकाश हो।
शुक्ल पक्ष का समय हो और 
उत्तरायण में सूर्य का वास हो।।

उन छह महीनों में जो भी योगी  
भौतिक शरीर का त्याग करता।
वह फिर कभी वापस नहीं आता 
वह तो परमब्रह्म को पा जाता।।

अध्याय-8, श्लोक-23

यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥ २३ ॥
हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें उन विभिन्न कालों को बताऊँगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुनः आता है अथवा नहीं आता।
************************************
हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें बताऊँ  
उन विभिन्न कालों के विषय में।
किस काल का क्या प्रभाव होता  
हमारे  जीवन के अंतिम समय में।।

किस काल में शरीर त्यागने पर 
योगी वापस नहीं आते हैं फिर से।
और किस काल शरीर छूटे अगर  
तो पुनर्जन्म निश्चित होता जिनसे।।

अध्याय-8, श्लोक-22

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्‌ ॥ २२ ॥
भगवान, जो सबसे महान हैं, अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किए जा सकते हैं। यद्यपि वे अपने परम धाम में विराजमान रहते हैं, तो भी वे सर्वव्यापी हैं और उनमें सब कुछ स्थित है।
***********************************
हे पृथपुत्र! परम पुरुष भगवान 
जिनसे बढ़कर कोई भी नहीं है।
उसको प्राप्त करने के रास्तों में 
अनन्य भक्ति ही सबसे सही है।।

वैसे तो वे अपने परम धाम में 
सदा सर्वदा विराजमान रहते हैं।
सब कुछ उनमें स्थित होता है 
और वे सबके भीतर भी होते हैं।।

अध्याय-8, श्लोक-21

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्‌ ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ २१ ॥
जिसे वेदान्ती अप्रकट और अविनाशी बताते हैं, जो परम गंतव्य है, जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई वापस नहीं आता वही मेरा परमधाम है।
***************************
वेदों में जिसे अविनाशी और
अप्रकट नाम से कहा गया है।
जो जीवों के लिए सदा से ही
परम गंतव्य का स्थान रहा है।।

जहाँ पहुँचकर कोई भी जीव
कभी वापस यहाँ नहीं आता।
यही पावन आंदनमय स्थान
मेरा परम धाम कहलाता है।।

Sunday, December 18, 2016

अध्याय-8, श्लोक-20

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥ २० ॥
इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यक्त प्रकृति है, जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है। यह परा (श्रेष्ठ) और कभी नाश न होनेवाली है। जब इस संसार का सबकुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता।
***********************************
इसके अतिरिक्त एक और भी 
परम अव्यक्त प्रकृति होती है।
जो इस व्यक्त अव्यक्त से परे 
और शाश्वत तथा परम होती है।।

यह श्रेष्ठ और अविनाशी प्रकृति 
अनादि से अनंत काल तक रहती।
संसार का सबकुछ नष्ट हो जाता 
फिर भी ये कभी नष्ट नहीं होती।।

अध्याय-8, श्लोक-19

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥ १९ ॥
जब-जब ब्रह्मा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत विलीन हो जाते हैं।
***********************************
हे पृथापुत्र! ये जो जितने जीव है 
वे सब ही बारबार प्रकट होते हैं ।
और बारबार प्रकट होकर उतनी  
ही बार फिर विलीन भी होते हैं।।

जब-जब ब्रह्मा की रात्रि आती है 
समस्त जीव अव्यक्त हो जाते हैं।
और जब ब्रह्मा का दिन आता है 
वे सब फिर से व्यक्त हो आते हैं।।

अध्याय-8, श्लोक-18

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥ १८ ॥
ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुनः अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं।
**********************************
ब्रह्मा के दिन की शुरुआत होती  
सारे जीवों को वह प्रकट करती है।
पहले जो जीव होते हैं अव्यक्त 
उन सब जीवों को व्यक्त करती है।।

जब ब्रह्मा की रात्रि आती है तब 
सब पुनः अव्यक्त में समा जाते है।
वह अव्यक्त जिसमें जीव समाते 
उसको हम ब्रह्म नाम से जानते हैं।।

अध्याय-8, श्लोक-17

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ (१७)
मानवीय गणना के अनुसार एक हज़ार युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन बनता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है।
***************************************
सतयुग,त्रेता,द्वापर औ कलियुग
चारों मिल एक चतुर्युग बनते हैं।
ऐसे हजार चतुर्युग मिलते तो उसे  
उसे ब्रह्मा का एकदिन कहते हैं।।

ऐसी ही बड़ी हजार चतुर्युगों की
ब्रह्मा की एक रात्रि भी होती है।
समय के तत्त्व को जान पाते हैं
जिन्हें इसकी जानकारी होती है।।

Friday, December 16, 2016

अध्याय-8, श्लोक-16

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥ १६ ॥
इस जगत में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतर सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है। किंतु हे कुंतीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता।
************************************
हे अर्जुन!इस ब्रह्मांड में निम्नलोक 
से ले ब्रह्मा जी के ब्रह्मलोक तक।
हर लोक के निवासी हैं मरणशील
 लगा रहता जन्म-मृत्यु का चक्कर।।

किंतु कुन्तीपुत्र! मेरा लोक है भिन्न 
वहाँ जा कभी कोई नहीं आता है।
जो पा लेता मेरे लोक को उसके 
पुनर्जन्म का चक्कर छूट जाता है।।