Sunday, November 13, 2016

अध्याय-5, श्लोक-12

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ १२ ॥
निश्चल भक्त शुद्ध शांति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है, किंतु जो व्यक्ति भगवान से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बँध जाता है।
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कर्म योगी बिना किसी कामना के 
कर्त्तव्य समझ सारे कर्म करते हैं।
कर्म फलों का त्याग कर देने से  
वे सदा ही परम शांति में रहते हैं।।

लेकिन फलों को भोगने की इच्छा 
रख जो अपने कर्मों को करता है।
कर्म फल से आसक्ति के कारण 
वह कर्म के बंधन में बँध जाता है।।

अध्याय-5, श्लोक-11

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ ११ ॥
योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इंद्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।
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कर्म तो हर कोई ही करता यहाँ 
पर अंतर होता है भाव में सबके।
योगी लोग जो कर्म करते हैं तो  
आसक्ति न होती मन में उनके।।

शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों से 
वे जो भी कर्म यहाँ पर करते हैं।
लक्ष्य आत्मा की शुद्धि भर होती 
और कुछ भी इच्छा नही रखते हैं।।

Saturday, November 12, 2016

अध्याय-5, श्लोक-10

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ १० ॥
जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिसप्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है।
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जिस व्यक्ति ने कर्म फलों को 
परमेश्वर को देना सीख लिया है ।
जिसने जीवन के सारे ही कर्म को 
मोह ममता त्याग कर किया है।।

उसे संसार में रहते हुए भी कभी 
पाप प्रभावित नहीं कर सकता।
जैसे जल में रहता कमल सदा
पर पत्तों तक जल नहीं पहुँचता।।

अध्याय-5, श्लोक-8-9

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥ ८ ॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥ ९ ॥
दिव्य भावनामृत युक्त पुरुष देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते-फिरते, सोते तथा श्वास लेते हुए भी अपने अंतर में सदैव यही जानता रहता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता।बोलते, त्यागते, ग्रहण करते या आँखें खोलते-बंद करते हुए भी वह यह जानता रहता है कि भौतिक इंद्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त हैं और वह इन सबसे पृथक है।
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जो व्यक्ति सत्य की अनुभूति करता 
वह दिव्य चेतना के स्तर पर होता है।
देखता, सुनता, छूता, सूँधता, चलता 
भोजन करता, सोता श्वास लेता है।।

पर यह सारे काम करते हुए भी वह 
प्रभु के विषय में ही सोचता रहता है।
वह यही मानता है कि इनमें से कोई 
काम भी वास्तव में वह नहीं करता है।।

बोलते, त्यागते,  ग्रहण करते हुए या 
आँखें खोलते बंद करते वह जानता है।
इंद्रियाँ अपने-अपने विषयों में लगी हैं 
पर वह ख़ुद को इनसे अलग मानता है।।

अध्याय-5, श्लोक-7

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ ७ ॥
जो भक्तिभाव से कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इंद्रियों को वश में रखता है, वह सबों को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं। ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बँधता।
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शुद्ध आत्मा होते हैं, वे इंद्रियों को 
सदा ही अपने नियंत्रण में रखते हैं।
उनका मन उन्हें नहीं चलाता कभी 
वे मन को अपने अनुसार चलाते हैं।।

भक्ति भाव में मन स्थित रहता उनका  
सबका प्रिय वो,सब उनके प्रिय होते।
इस तरह अपने सारे कार्यों को करते  
फिर भी किसी कर्म में नहीं वे बँधते।।

अध्याय-5, श्लोक-6

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥ ६ ॥
भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता। परंतु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।
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हे महाबाहु! मन में भक्ति भाव न हो 
तो कर्मों का त्याग दुःख ही देता है।
ऐसा सूखा त्याग जीवन में कभी भी 
सुख की अनुभूति नही दे सकता है।।

लेकिन कोई अगर भक्ति में लगा है 
भगवान का उसे रहे स्मरण हर पल।
उसका तो निश्चित है प्रभु को पाना 
चाहे आज पाए या पाए वो कल।।

Friday, November 11, 2016

अध्याय-5, श्लोक-5

यत्साङ्‍ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्‍ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ ५ ॥
जो यह जानता है कि विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एक समान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप देखता है।
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निष्काम कर्म योग भक्ति से भी 
हम वो सब प्राप्त कर सकते हैं।
जो ज्ञान और स्थान सांख्य योग 
से ज्ञानी हासिल किया करते हैं।।

सांख्य और निष्काम दोनों को जो 
समान फल की दृष्टि से देखता है।
वही होता है वास्तविक ज्ञानी और
सत्य का समुचित ज्ञान रखता है।।