नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ॥ ८ ॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥ ९ ॥
दिव्य भावनामृत युक्त पुरुष देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते-फिरते, सोते तथा श्वास लेते हुए भी अपने अंतर में सदैव यही जानता रहता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता।बोलते, त्यागते, ग्रहण करते या आँखें खोलते-बंद करते हुए भी वह यह जानता रहता है कि भौतिक इंद्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त हैं और वह इन सबसे पृथक है।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ॥ ८ ॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥ ९ ॥
दिव्य भावनामृत युक्त पुरुष देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते-फिरते, सोते तथा श्वास लेते हुए भी अपने अंतर में सदैव यही जानता रहता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता।बोलते, त्यागते, ग्रहण करते या आँखें खोलते-बंद करते हुए भी वह यह जानता रहता है कि भौतिक इंद्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त हैं और वह इन सबसे पृथक है।
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जो व्यक्ति सत्य की अनुभूति करता
वह दिव्य चेतना के स्तर पर होता है।
देखता, सुनता, छूता, सूँधता, चलता
भोजन करता, सोता श्वास लेता है।।
पर यह सारे काम करते हुए भी वह
प्रभु के विषय में ही सोचता रहता है।
वह यही मानता है कि इनमें से कोई
काम भी वास्तव में वह नहीं करता है।।
बोलते, त्यागते, ग्रहण करते हुए या
आँखें खोलते बंद करते वह जानता है।
इंद्रियाँ अपने-अपने विषयों में लगी हैं
पर वह ख़ुद को इनसे अलग मानता है।।
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