Showing posts with label कर्मयोग-कृष्णभावनाभावित कर्म. Show all posts
Showing posts with label कर्मयोग-कृष्णभावनाभावित कर्म. Show all posts

Monday, December 19, 2016

अध्याय-8, श्लोक-27

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥ २७ ॥ 
हे अर्जुन! यद्यपि भक्तगण इन दोनों मार्गों को जानते हैं, किंतु वे मोहग्रस्त नहीं होते। अतः तुम भक्ति में सदैव स्थित रहो।
*********************************
हे पृथापुत्र! मेरे भक्तों को 
दोनों पथ का पता होता है।
पर कोई भी पथ उन्हें कभी 
मोहग्रस्त नहीं कर पाता है।।

इसलिए हे अर्जुन! तुम भी 
उनकी तरह अनासक्त रहो।
हर समय मेरी भक्ति में ही 
मन को अपने स्थिर रखो।।

Wednesday, November 16, 2016

अध्याय-5, श्लोक-29

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ २९ ॥
मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावमृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शांति लाभ करता है।
******************************************
सारे यज्ञों और तपस्याओं का 
मुझे परम भोक्ता जो जानता है। 
सभी लोकों और देवताओं, इन  
सबका मुझे स्वामी मानता है।।

पता है जिसे मेरी प्रकृति का कि 
मैं सबका ही सदा हितैषी रहता।
मेरी दयालुता को समझनेवाला  
परम शांति अवश्य प्राप्त करता।।

******कर्मयोग-कृष्णभावनाभावित कर्म नाम का पाँचवा अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-5, श्लोक-27-28

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ २७ ॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ २८ ॥
समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौहों के मध्य केंद्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इंद्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है। जो निरंतर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है।
*************************************
इन्द्रियविषयों का चिंतन 
बाहर ही त्यागकर।
दृष्टि को भौहों के
मध्य में केंद्रित कर।।

प्राण - अपान वायु को 
नथुनों के भीतर रोककर।
इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि 
तीनों अपने वश में कर।।

चलता है जीवन में बस
मोक्ष को लक्ष्य बनाकर।
वह होता योगी इच्छा 
भय और क्रोध त्यागकर।।

जो जीता है निरंतर 
इसी अवस्था में रहकर।
वो तो होता है मुक्त 
इसी संसार में ही होकर।।

अध्याय-5, श्लोक-26

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्‌ ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्‌ ॥ २६ ॥
जो क्रोध तथा समस्त इच्छाओं से रहित है, जो स्वरूपसिद्ध, आत्मसंयमी हैं और संसिद्धि के लिए निरंतर प्रयास करते हैं उनकी मुक्ति निकट भविष्य में सुनिश्चित है।
************************************
भौतिक इच्छाओं का मोह नहीं 
क्रोध से भी पूरी तरह मुक्त है।
आत्म-ज्ञान प्राप्त कर चुका है  
जो आत्म-संयम से भी युक्त है।

ऐसा स्वरूप सिद्ध व्यक्ति ही  
जीवन में परम शांति पाता है।
जब भी जाता इस जग से वो 
परमात्मा के पास ही जाता है।।

अध्याय-5, श्लोक-25

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥ २५ ॥
जो लोग संशय से उत्पन्न होनेवाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म-साक्षात्कार में रत है, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं।
**************************************
जग के सारे जंजालों से परे हैं जो 
सारी दुविधाएँ मिट चुकी जिनकी।
पाप का लेश मात्र भी नहीं होता 
आत्म-ज्ञान में रत है बुद्धि उनकी।।

प्राणियों के कल्याण के लिए ही  
जिनके समस्त कार्य हुआ करते हैं।
ऐसे ब्रह्म ज्ञानी मनुष्य एकदिन 
अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-24

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ २४ ॥
जो अंतःकरण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अंतःकरण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अंतर्मुखी होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है। वह परब्रह्म में मुक्ति पाता है और अंततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है।
***************************************
जो अपने अंतर में आनंद पाता  
आत्मा में ही ज्ञान प्राप्त करता।
मन को स्थिर कर आत्मा में जो  
हर पल सुख का अनुभव करता।।

वही मनुष्य वास्तव में योगी है 
और परब्रह्म में मुक्ति पाता है।
स्वरूपसिद्ध वह मानव निश्चित 
फिर परब्रह्म को प्राप्त होता है।।

Tuesday, November 15, 2016

अध्याय-5, श्लोक-23

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्‌ ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥ २३ ॥
यदि इस शरीर को त्यागने के पूर्व कोई मनुष्य इंद्रियों के वेगों को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होता है, तो वह संसार में सुखी रह सकता है।
******************************************
शरीर का अंत हो इससे पहले 
संयमित रहना सीख लिया है।
काम-क्रोध के वगों को जिसने 
पूरी तरह अपने वश में किया है।।

ऐसा व्यक्ति जग में रहकर भी 
योगी की तरह निर्लिप्त होता है।
दुःख से भरी इस दुनिया में भी 
वह सुख-शांति से रह सकता है।।

अध्याय-5, श्लोक-22

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ २२ ॥ 
बुद्धिमान मनुष्य दुःख के कारणों में भाग नही लेता जो कि भौतिक इंद्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं। हे कुंतिपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अंत होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनंद नही लेता।
****************************
इंद्रियों और उसके विषयों से उपजा  
सुख, दुःख का ही कारण होता है।
प्रारम्भ में कितना भी सुखकर लगे 
पर अंत में सदा वह दुःख ही देता है।।

इंद्रियों से मिलने वाले इन भोगों का 
मिलना और छूटना लगा ही रहता।
हे कुंतिपुत्र! बुद्धिमान वही जो कभी 
क्षणिक भोगों में आनंद नहीं लेता।।

Monday, November 14, 2016

अध्याय-5, श्लोक-21

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्‌ ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥ २१ ॥
ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रिय सुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अंतर में आनंद का अनुभव करता है। इसप्रकार स्वरूपसिद्ध व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्रचित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है।
********************************
दुनिया में फैला ये भौतिक सुख 
मुक्त पुरुष को कहाँ भाता है।
वो तो सदा ही समाधि में रहते     
उनको उसी में आनंद आता है।।

वे अपने आत्मा में ही रमण करते  
और परमात्मा पर ध्यान लगाते हैं।
बाहरी सुख उन्हें लुभा नहीं पाते  
अपने अंतर में इतना सुख पाते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-20

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌ ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ २० ॥
जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित है और भगवद्विद्या को जाननेवाला है वह पहले से ही ब्रह्म में स्थित रहता है।
*****************************************
प्रिय वस्तु का आना हर्षित न करे 
अप्रिय भी विचलित न कर पाए।
सुख और दुःख दोनों का ही समय  
बिना हर्ष-विषाद के निकल जाए।।

ऐसे स्थिर बुद्धिवाले मनुष्य कभी भी 
किसी प्रकार के मोह में नही फँसते।
ब्रह्म ज्ञान को जानने वाले ये लोग 
स्वयं भी सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते।।

अध्याय-5, श्लोक-19

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ १९ ॥
जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बंधनों को पहले ही जीत लिया है। वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।
*************************************
देखें सबको एक समान और 
हर जीव में जाने परमात्मा को।
जन्म-मृत्यु का बंधन भी फिर 
बाँध न पाए उन आत्माओं को।।

संसार के दोषों से कोशों दूर वे 
ब्रह्म के समान  निर्दोष होते हैं।
सांसारिक परपंचों से ऊपर उठे 
वे सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-18

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ १८ ॥
विनम्र साधु पुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता व चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।
*******************************************
वास्तविक ज्ञान को जिनसे साध लिया
वह हर जगह परमात्मा को देख पाता।
वस्तु, प्राणी, ऊँच-नीच, अपना-पराया 
सबके ही प्रति सहज समभाव हो जाता।।

वह तो सबको ही समान देखता है चाहे 
सामने उसके ब्राह्मण हो या चाण्डाल।
गाय, कुत्ता जैसे छोटे पशु हो समक्ष या 
सामने खड़ा हो हाथी जैसा पशु विशाल।।

अध्याय-5, श्लोक-17

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥ १७ ॥
जब मनुष्य की बुद्धि, मन, श्रद्धा तथा शरण सब कुछ भगवान में स्थिर हो जाते हैं, तभी वह पूर्णज्ञान द्वारा समस्त कल्मष से शुद्ध होता है और मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है।
****************************************
जब बना ले मनुष्य परमात्मा को 
अपनी बुद्धि और मन का विषय।
शरणागति और श्रद्धा हो हृदय में 
कहीं भी बचा रह न जाए संशय ।।

तब सारे पापों से शुद्ध हो जाता
तत्व ज्ञान के स्तर पर वो आकर।
फिर छोड़ संसार का आना-जाना 
बढ़ चलता वह मुक्ति के पथपर।।

अध्याय-5, श्लोक-16

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌ ॥ १६ ॥
किंतु जब कोई उस ज्ञान से प्रबुद्ध होता है, जिससे अविद्या का विनाश होता है, तो उसके ज्ञान से सब कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे दिन में सूर्य से सारी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं।
************************************
लेकिन जब जीव का अज्ञान 
उच्च ज्ञान से मिट जाता है।
अविद्या समाप्त हो जाती है 
वास्तविकता देख पाता है।।

सारे भ्रम मिट जाते हैं उसके 
फिर सत्य समक्ष ऐसे आता है।
जैसे सूर्य के उदित हो जाने पर 
हर पदार्थ प्रकट हो जाता है।।

अध्याय-5, श्लोक-15

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ १५ ॥
परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को। किंतु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो कि वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किए रहता है।
************************************
सबके शरीर में रहने वाले परमात्मा 
जीव के कर्मों से अलग ही है रहता।
न वह पाप कर्मों को ग्रहण करता हैं 
न ही पुण्य कर्मों में शामिल है होता।।

किंतु जीवात्मा तो अज्ञान के कारण 
सदा ही मोह जाल में फँसा रहता है।
और मोह इन्हीं परदों के कारण ही  
वास्तविक ज्ञान उससे ढँका रहता है।।

अध्याय-5, श्लोक-14

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ १४ ॥
शरीर रूपी नगर का स्वामी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है। यह सब तो प्रकृति के गुणों के द्वारा ही किया जाता है।
************************************
देह में रहता है जीवात्मा पर 
वह देह का कर्त्ता नहीं होता।
न ही कोई कर्म उत्पन्न करता 
न ही वह कर्मफल को रचता।

ये जितने भी कर्म होते हैं यहाँ 
और जो भी परिणाम दिखते हैं।
वे सब-के-सब प्रकृति के तीन 
गुणों द्वारा संचालित होते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-13

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥ १३ ॥
जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किए कराये सुखपूर्वक रहता है।
************************************
जब शरीर में रहनेवाला जीवात्मा
मन से कर्मों का त्याग कर देता है।
न कुछ करता और न ही करवाता
अपनी प्रकृति को वश में रखता है।।

ऐसी स्थिति में वह जीव सदा अपने
आत्म-स्वरूप में ही आनंद लेता है।
और इस नौ द्वार वाले नगर, देह में
बिना कुछ किए सुखपूर्वक रहता है।।

Sunday, November 13, 2016

अध्याय-5, श्लोक-12

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ १२ ॥
निश्चल भक्त शुद्ध शांति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है, किंतु जो व्यक्ति भगवान से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बँध जाता है।
*****************************************
कर्म योगी बिना किसी कामना के 
कर्त्तव्य समझ सारे कर्म करते हैं।
कर्म फलों का त्याग कर देने से  
वे सदा ही परम शांति में रहते हैं।।

लेकिन फलों को भोगने की इच्छा 
रख जो अपने कर्मों को करता है।
कर्म फल से आसक्ति के कारण 
वह कर्म के बंधन में बँध जाता है।।

अध्याय-5, श्लोक-11

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ ११ ॥
योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इंद्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।
*********************************************
कर्म तो हर कोई ही करता यहाँ 
पर अंतर होता है भाव में सबके।
योगी लोग जो कर्म करते हैं तो  
आसक्ति न होती मन में उनके।।

शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों से 
वे जो भी कर्म यहाँ पर करते हैं।
लक्ष्य आत्मा की शुद्धि भर होती 
और कुछ भी इच्छा नही रखते हैं।।

Saturday, November 12, 2016

अध्याय-5, श्लोक-10

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ १० ॥
जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिसप्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है।
*************************************
जिस व्यक्ति ने कर्म फलों को 
परमेश्वर को देना सीख लिया है ।
जिसने जीवन के सारे ही कर्म को 
मोह ममता त्याग कर किया है।।

उसे संसार में रहते हुए भी कभी 
पाप प्रभावित नहीं कर सकता।
जैसे जल में रहता कमल सदा
पर पत्तों तक जल नहीं पहुँचता।।