Monday, November 14, 2016

अध्याय-5, श्लोक-19

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ १९ ॥
जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बंधनों को पहले ही जीत लिया है। वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।
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देखें सबको एक समान और 
हर जीव में जाने परमात्मा को।
जन्म-मृत्यु का बंधन भी फिर 
बाँध न पाए उन आत्माओं को।।

संसार के दोषों से कोशों दूर वे 
ब्रह्म के समान  निर्दोष होते हैं।
सांसारिक परपंचों से ऊपर उठे 
वे सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-18

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ १८ ॥
विनम्र साधु पुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता व चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।
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वास्तविक ज्ञान को जिनसे साध लिया
वह हर जगह परमात्मा को देख पाता।
वस्तु, प्राणी, ऊँच-नीच, अपना-पराया 
सबके ही प्रति सहज समभाव हो जाता।।

वह तो सबको ही समान देखता है चाहे 
सामने उसके ब्राह्मण हो या चाण्डाल।
गाय, कुत्ता जैसे छोटे पशु हो समक्ष या 
सामने खड़ा हो हाथी जैसा पशु विशाल।।

अध्याय-5, श्लोक-17

तद्‍बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥ १७ ॥
जब मनुष्य की बुद्धि, मन, श्रद्धा तथा शरण सब कुछ भगवान में स्थिर हो जाते हैं, तभी वह पूर्णज्ञान द्वारा समस्त कल्मष से शुद्ध होता है और मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है।
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जब बना ले मनुष्य परमात्मा को 
अपनी बुद्धि और मन का विषय।
शरणागति और श्रद्धा हो हृदय में 
कहीं भी बचा रह न जाए संशय ।।

तब सारे पापों से शुद्ध हो जाता
तत्व ज्ञान के स्तर पर वो आकर।
फिर छोड़ संसार का आना-जाना 
बढ़ चलता वह मुक्ति के पथपर।।

अध्याय-5, श्लोक-16

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्‌ ॥ १६ ॥
किंतु जब कोई उस ज्ञान से प्रबुद्ध होता है, जिससे अविद्या का विनाश होता है, तो उसके ज्ञान से सब कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे दिन में सूर्य से सारी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं।
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लेकिन जब जीव का अज्ञान 
उच्च ज्ञान से मिट जाता है।
अविद्या समाप्त हो जाती है 
वास्तविकता देख पाता है।।

सारे भ्रम मिट जाते हैं उसके 
फिर सत्य समक्ष ऐसे आता है।
जैसे सूर्य के उदित हो जाने पर 
हर पदार्थ प्रकट हो जाता है।।

अध्याय-5, श्लोक-15

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ १५ ॥
परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को। किंतु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो कि वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किए रहता है।
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सबके शरीर में रहने वाले परमात्मा 
जीव के कर्मों से अलग ही है रहता।
न वह पाप कर्मों को ग्रहण करता हैं 
न ही पुण्य कर्मों में शामिल है होता।।

किंतु जीवात्मा तो अज्ञान के कारण 
सदा ही मोह जाल में फँसा रहता है।
और मोह इन्हीं परदों के कारण ही  
वास्तविक ज्ञान उससे ढँका रहता है।।

अध्याय-5, श्लोक-14

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ १४ ॥
शरीर रूपी नगर का स्वामी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है। यह सब तो प्रकृति के गुणों के द्वारा ही किया जाता है।
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देह में रहता है जीवात्मा पर 
वह देह का कर्त्ता नहीं होता।
न ही कोई कर्म उत्पन्न करता 
न ही वह कर्मफल को रचता।

ये जितने भी कर्म होते हैं यहाँ 
और जो भी परिणाम दिखते हैं।
वे सब-के-सब प्रकृति के तीन 
गुणों द्वारा संचालित होते हैं।।

अध्याय-5, श्लोक-13

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ॥ १३ ॥
जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किए कराये सुखपूर्वक रहता है।
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जब शरीर में रहनेवाला जीवात्मा
मन से कर्मों का त्याग कर देता है।
न कुछ करता और न ही करवाता
अपनी प्रकृति को वश में रखता है।।

ऐसी स्थिति में वह जीव सदा अपने
आत्म-स्वरूप में ही आनंद लेता है।
और इस नौ द्वार वाले नगर, देह में
बिना कुछ किए सुखपूर्वक रहता है।।