विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥ १८ ॥
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥ १८ ॥
हे जनार्दन! आप पुनः विस्तार से अपने ऐश्वर्य तथा योगशक्ति का वर्णन करें। मैं आपके विषय में सुनकर कभी भी तृप्त नहीं होता हूँ क्योंकि जितना ही आपके विषय में सुनता हूँ, उतना ही आपके शब्द-अमृत को चखना चाहता हूँ।
***************************************
आपके विषय में जितना मैं सुनूँ
उतनी ही बढ़ती जाती लालसा
इस अतृप्त हृदय को सदा रहती
इन अमृत वचनों की अभिलाषा।
हे जनार्दन! जग के स्वामी प्रभु
अपने ऐश्वर्यों को पुनः बताए
अपनी योगशक्ति के विषय में
तनिक फिर से हमें समझाएँ ।।