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Monday, November 28, 2016

अध्याय-6, श्लोक-47

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥ ४७ ॥
और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यंत श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अंतःकरण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अंतरंग रूप से युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है। यही मेरा मत है।
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सभी प्रकार के योगियों में जो 
मुझमें पूरी तरह श्रद्धा रखता है।
मुझ पर ही आश्रित रहता और 
सदा मेरा ही चिंतन करता है।।

मुझसे प्रेम और मेरी भक्ति में ही 
जिसका सारा जीवन बितता है।
मेरी दृष्टि में ऐसा योगी ही सारे 
योगियों में परम योगी होता है।।

******ध्यानयोग नाम का छठा अध्याय सम्पूर्ण हुआ*******

अध्याय-6, श्लोक-46

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ ४६ ॥
योगी पुरुष तपस्वी से, ज्ञानी से तथा सकामकर्मी से बढ़कर होता है। अतः हे अर्जुन! तुम सभी प्रकार से योगी बनो।
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योग के पथ पर चलने वाला 
तपस्वियों से बेहतर है होता।
शास्त्र ज्ञान में लगा जो ज्ञानी 
वह भी योगी से पीछे ही होता।।

सकाम कर्म में फँसे मनुष्य तो 
योगी से श्रेष्ठ हो ही नहीं सकते।
इसलिए हे अर्जुन! तुम भी इस  
योग के पथ पर क्यूँ नहीं चलते।।

अध्याय-6, श्लोक-45

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌ ॥ ४५ ॥
और जब योगी समस्त कल्मष से शुद्ध होकर सच्ची निष्ठा से आगे प्रगति करने का प्रयास करता है, तो अंततोगत्वा अनेकानेक जन्मों के अभ्यास के पश्चात सिद्धि-लाभ करके वह परम गंतव्य को प्राप्त करता है।
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व्यर्थ नहीं जाता कभी भी उसके 
अनेकों जन्मों का किया अभ्यास।
और पाप कर्मों से शुद्ध कर देता 
इस जन्म में किया गया प्रयास।।

अभ्यास और प्रयास से वह योगी 
अंततः परम सिद्धि पा ही जाता है।
पथ उसका आख़िरकार उसे फिर 
गंतव्य तक अवश्य ही पहुँचाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-44

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ ४४ ॥
अपने पूर्व जन्म की दैवी चेतना से वह न चाहते हुए भी स्वतः योग के नियमों की ओर आकर्षित होता है। ऐसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों के अनुष्ठानों से परे स्थित होता है।
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पुराने सत्कर्मों का असर उसके 
इस जन्म में भी दिख जाता है।
सहज स्वभाविक रूप से ही वह 
योग की तरफ़ आकृष्ट होता है।।

विभिन्न प्रकार के अनुष्ठानों से 
ऐसा जिज्ञासु बँध नहीं पाता है।
शास्रों के दायरे से आगे निकल 
वह तो योग में स्थित हो जाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-43

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌ ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥ ४३ ॥
हे कुरूनंदन ! ऐसा जन्म पाकर वह अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना को पुनः प्राप्त करता है और पूर्ण सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से वह आगे उन्नति करने का प्रयास करता है।
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हे कुरूनंदन! जब वह संस्कारी 
कुल में जन्म लेकर जब आता है।
तो उसके पूर्वजन्म का संस्कार 
उसे फिर से प्राप्त हो जाता है।।

पिछले संस्कारों के प्रभाव और 
इस जन्म में सुसंगति जब पाता।
अधूरे रहे गये लक्ष्य को पाने का
फिर से इसबार प्रयास है करता।।

अध्याय-6, श्लोक-42

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌ ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌ ॥ ४२ ॥
अथवा (अगर दीर्घकाल तक योग करने के बाद असफल रहे तो) वह ऐसे योगियों के कुल में जन्म लेता है जो अति बुद्धिमान हैं। निश्चय ही इस संसार में ऐसा जन्म दुर्लभ है।
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अगर उस योगी ने अपना पथ 
बहुत आगे तक तय किया था।
लक्ष्य प्राप्त करने से बस कुछ 
पहले ही उसने पथ बदला था।।

तो ऐसा मनुष्य विद्वान योगियों 
के उच्च कुल में जन्म पाता  है।
लेकिन ऐसा जन्म इस संसार में 
निस्सन्देह बहुत दुर्लभ होता है।।

अध्याय-6, श्लोक-41

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ ४१ ॥
असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या धनवानों के कुल में जन्म लेता है।
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असफल योगी पहले उत्तम लोक 
में जा उन इच्छाओं को भोगता है।
जिन इच्छाओं के पीछे पड़कर ही  
वह योगपथ से च्यूत हुआ होता है।।

अनेकों वर्षों के भोग के बाद उसे 
फिर से एक अवसर दिया जाता है।
किसी सम्पन्न परिवार में या किसी 
सदाचारी के घर वह जन्म पाता है।।

Sunday, November 27, 2016

अध्याय-6, श्लोक-40

श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥ ४० ॥
भगवान ने कहा-हे पृथापुत्र! कल्याण-कार्यों में निरत योगी का न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है। हे मित्र! भलाई करनेवाला कभी बुराई से पराजित नहीं होता।
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भगवान ने कहा कि असफल योगी
का पूर्व कर्म कभी बेकार न होता।
न ही इस जन्म में,न अगले जन्म में
कभी भी उसका विनाश न होता।।

हे पार्थ! कल्याण-कार्य में था कल
और आज अगर पथ से भटक गया।
फिर भी उसका कल्याण होगा मित्र
क्या हुआ आधे रास्ते वह रह गया।।

अध्याय-6, श्लोक-39

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥ ३९ ॥
हे कृष्ण! यही मेरा संदेह है और मैं आपसे पूर्णतया दूर करने की प्रार्थना कर रहा हूँ। आपके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो इस संदेह को नष्ट कर सके।
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हे कृष्ण! यही मेरी संदेह है
जिससे मैं भ्रमित हो रहा हूँ।
इसे दूर करने की कृपा करें
आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ।।

आपके सिवा कोई और नहीं
जो मुझे सह-सही बता सके।
अपने ज्ञान से मेरे संशयों को
सदा के लिए ही मिटा सके।।

अध्याय-6, श्लोक-38

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ ३८ ॥
हे महाबाहु कृष्ण! क्या ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग से भ्रष्ट व्यक्ति आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही सफलताओं से च्यूत नहीं होता और छिन्नभिन्न बादल की भाँति विनष्ट नहीं हो जाता जिसके फलस्वरूप उसके लिए किसी लोक में कोई स्थान नहीं रहता?
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हे कृष्ण! परमात्मा- प्राप्ति के 
मार्ग से जो बीच में ही भटका।
वह न सांसारिक भोग ही पाया 
न ही आपको प्राप्त कर सका।।

ऐसे मार्ग से विचलित मनुष्य को
प्रभु कौन-सा स्थान मिल पाता है?
क्या छिन्नभिन्न बादल की भाँति 
वह दोनों ओर से नष्ट हो जाता है?

अध्याय-6, श्लोक-37

अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ ३७ ॥
अर्जुन ने कहा- हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म-साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है, किंतु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है और योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता?
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अर्जुन ने कहा भगवान से कि 
कुछ लोग प्रभु ऐसे भी होते हैं।
शुरुआत करते श्रद्धापूर्वक पर 
बाद में पथ से भटक जाते हैं।।

मार्ग से भटके योगी जीवन में 
आख़िर किस गति को पाते हैं?
आत्म-साक्षात्कार से भटक कर 
किस पथ और लक्ष्य वे जाते हैं?

अध्याय-6, श्लोक-36

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ ३६ ॥
जिसका मन उच्छृंखल है उसके लिए आत्म-साक्षात्कार कठिन कार्य होता है, किंतु जिसका मन संयमित है और जो समुचित उपाय करता है उसकी सफलता ध्रुव है। ऐसा मेरा मत है।
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जो मनुष्य अपने मन को 
वश में नहीं कर पाता है।
वह आत्म-साक्षात्कार से 
फिर वंचित रह जाता है।।

लेकिन जो मन को वश में 
करने का प्रयास करता है।
मेरे विचार से परमात्मा को 
वह मनुष्य सहज पाता है।।

अध्याय-6, श्लोक-35

श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ ३५ ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-हे महाबाहु कुंतीपुत्र! निस्सन्देह चंचल मन को वश में करना अत्यंत कठिन है, किंतु उपयुक्त अभ्यास तथा विरक्ति द्वारा यह सम्भव है।
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श्री कृष्ण भगवान ने कहा कि 
कुंतिपुत्र सत्य है तुम्हारा संशय।
इतना आसान भी नहीं है होता 
इस चंचल मन पे पाना विजय।।

कठिन है यह काम निश्चित ही  
पर इसका भी हल है मेरे पास।
जग की इच्छाओं को त्यागकर 
और निरंतर हो इसका अभ्यास।।

अध्याय-6, श्लोक-34

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌ ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ॥ ३४ ॥
हे कृष्ण! चूँकि मेरा मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यंत बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है।
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हे कृष्ण! मन मेरा बड़ा चंचल
एक तो है हठी उसपे बलवान।
यहाँ-वहाँ भागता रहता है सदा
उच्छृंखल मनमौजी के समान।।

कैसे वश में करूँ ऐसे मन को
जो वायु से अधिक वेगवान है।
मन और वायु दोनों में वायु को
वश में करना थोड़ा आसान है।।

Thursday, November 24, 2016

अध्याय-6, श्लोक-33

अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ॥ ३३ ॥
अर्जुन ने कहा-हे मधुसूदन! आपने जिस योगपद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है वह मेरे लिए अव्यवहारिक तथा असहनीय है, क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है।
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अर्जुन बोले मधुसूदन से कि मुझे
जिस योग को आपने समझाया।
संयम और समभाव का जो  मार्ग
आपने अभी है मुझको बतलाया।।

मेरे लिए तो उस मार्ग पर चलना
प्रभु मुझे सम्भव-सा नहीं लगता है।
क्योंकि मेरा चंचल मन कभी भी
अधिक समय स्थिर नहीं रहता है।।

अध्याय-6, श्लोक-32

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ ३२ ॥
हे अर्जुन! वह पूर्णयोगी है जो अपनी तुलना से समस्त प्राणियों को उनके सुखों तथा दुखों में वास्तविक समानता का दर्शन करता है।
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हे अर्जुन! जो मनुष्य दूसरों की
भावनाओं को भी समझता है।
सबकी पीड़ा और सबके दुःख
जिसे अपने समान ही लगता है।।

समस्त प्राणियों के सुख-दुःख
जिसके लिए होता एक समान।
यही सब गुण ही कराते हैं उसके
एक पूर्ण योगी होने की पहचान।।

Wednesday, November 23, 2016

अध्याय-6, श्लोक-31

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ ३१ ॥
जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए परमात्मा की भक्तिपूर्वक सेवा करता है, वह हर प्रकार से मुझमें स्थित रहता है।
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योग में स्थित मनुष्य सबको
मुझसे ही संबंधित देखता है।
समस्त प्राणियों के हृदय में 
वह मेरा ही दर्शन करता है।।

भक्ति भाव में स्थित हो जो 
वो सदा मुझको ही भजता है। 
वह योगी तो सभी प्रकार से
सदैव मुझमें स्थित रहता है।।

Tuesday, November 22, 2016

अध्याय-6, श्लोक-30

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ३० ॥
जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है।
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जो मनुष्य हर जगह ही 
मुझको  देख पाता है।
हर चीज़ को मुझमें ही 
समाहित जो देखता है।

उसकी आँखों से कभी भी 
मैं ओझल नहीं हूँ होता।
न ही वह व्यक्ति भी कभी 
मेरी दृष्टि से दूर है जाता।।

अध्याय-6, श्लोक-29

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ २९ ॥
वास्तविक योगी समस्त जीवों में मुझको तथा मुझमें समस्त जीवों को देखता है। निस्सन्देह स्वरूपसिद्ध व्यक्ति मुझ परमेश्वर को सर्वत्र देखता है।
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योग में पूरी तरह स्थित मनुष्य की 
देखने की प्रकृति ही बदल जाती है।
उसकी दृष्टि सबमें में परमात्मा और 
परमात्मा में सबके दर्शन कराती है।।

यही होती है पहचान उस योगी की 
जिसने आत्म तत्त्व को जान लिया है।
संसार के सभी  प्राणियों में जिसने 
एक ही परमात्मा का दर्शन किया है।।

अध्याय-6, श्लोक-28

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ २८ ॥
इस प्रकार योगाभ्यास में निरंतर लगा रहकर आत्मसंयमी योगी समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है और भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में परम सुख प्राप्त करता है।
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इस तरह जो योगी सदा ही 
योगाभ्यास में लगा रहता है।
मन, इंद्रियों को वश में कर 
वह आत्मसंयमी हो जाता है।।

भौतिक क्लेशों से मुक्त होकर 
परमात्मा से संबंध वो बनाता है।
इस संबंध के बाद दिव्य प्रेम 
स्वरूप परम आनंद को पाता है।।