कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ ३८ ॥
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ ३८ ॥
हे महाबाहु कृष्ण! क्या ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग से भ्रष्ट व्यक्ति आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही सफलताओं से च्यूत नहीं होता और छिन्नभिन्न बादल की भाँति विनष्ट नहीं हो जाता जिसके फलस्वरूप उसके लिए किसी लोक में कोई स्थान नहीं रहता?
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हे कृष्ण! परमात्मा- प्राप्ति के
मार्ग से जो बीच में ही भटका।
वह न सांसारिक भोग ही पाया
न ही आपको प्राप्त कर सका।।
ऐसे मार्ग से विचलित मनुष्य को
प्रभु कौन-सा स्थान मिल पाता है?
क्या छिन्नभिन्न बादल की भाँति
वह दोनों ओर से नष्ट हो जाता है?
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