Thursday, November 24, 2016

अध्याय-6, श्लोक-32

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ ३२ ॥
हे अर्जुन! वह पूर्णयोगी है जो अपनी तुलना से समस्त प्राणियों को उनके सुखों तथा दुखों में वास्तविक समानता का दर्शन करता है।
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हे अर्जुन! जो मनुष्य दूसरों की
भावनाओं को भी समझता है।
सबकी पीड़ा और सबके दुःख
जिसे अपने समान ही लगता है।।

समस्त प्राणियों के सुख-दुःख
जिसके लिए होता एक समान।
यही सब गुण ही कराते हैं उसके
एक पूर्ण योगी होने की पहचान।।

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