Wednesday, November 16, 2016

अध्याय-5, श्लोक-27-28

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ २७ ॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ २८ ॥
समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौहों के मध्य केंद्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इंद्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है। जो निरंतर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है।
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इन्द्रियविषयों का चिंतन 
बाहर ही त्यागकर।
दृष्टि को भौहों के
मध्य में केंद्रित कर।।

प्राण - अपान वायु को 
नथुनों के भीतर रोककर।
इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि 
तीनों अपने वश में कर।।

चलता है जीवन में बस
मोक्ष को लक्ष्य बनाकर।
वह होता योगी इच्छा 
भय और क्रोध त्यागकर।।

जो जीता है निरंतर 
इसी अवस्था में रहकर।
वो तो होता है मुक्त 
इसी संसार में ही होकर।।

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