न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ २० ॥
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ २० ॥
जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित है और भगवद्विद्या को जाननेवाला है वह पहले से ही ब्रह्म में स्थित रहता है।
*****************************************
प्रिय वस्तु का आना हर्षित न करे
अप्रिय भी विचलित न कर पाए।
सुख और दुःख दोनों का ही समय
बिना हर्ष-विषाद के निकल जाए।।
ऐसे स्थिर बुद्धिवाले मनुष्य कभी भी
किसी प्रकार के मोह में नही फँसते।
ब्रह्म ज्ञान को जानने वाले ये लोग
स्वयं भी सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते।।
No comments:
Post a Comment