न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ ९ ॥
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ ९ ॥
हे धनंजय! ये सारे कर्म मुझे नहीं बाँध पाते। मैं उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ।
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हे धनंजय! ये जितने भी कर्म
मेरे द्वारा सम्पन्न किए जाते।।
उनमें से कोई भी मुझे अपने
कर्म बंधन में बाँध नहीं पाते।।
क्योंकि मैं उन्हें किसी फल
की इच्छा से नहीं करता हूँ।
मैं तो कर्म व फल दोनों से
हमेशा ही विरक्त रहता हूँ।।
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