Monday, December 5, 2016

अध्याय-7, श्लोक-18

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌ ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्‌ ॥ १८ ॥
निस्सन्देह ये सब उदारचेता व्यक्ति हैं, किंतु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त हैं, उसे मैं अपने ही समान मानता हूँ। वह मेरी दिव्यसेवा में तत्पर रहकर मुझ सर्वोच्च उद्देश्य को निश्चित रूप से प्राप्त करता है।
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चारों ही प्रकार के भक्त 
सबके प्रति उदार रहते हैं।
लेकिन उनमें जो ज्ञानी हैं 
वे मेरा स्वरूप ही होते हैं।।

सदा ही मेरी सेवा में तत्पर  
मुझमें ही रहता मन उनका।
मैं ही होता सर्वोच्च लक्ष्य 
ज्ञानी भक्तों के जीवन का।।

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