Wednesday, December 14, 2016

अध्याय-8, श्लोक-8

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌ ॥ ८ ॥
हे पार्थ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरंतर लगाये रखकर अविचलित भाव से भगवान के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है।
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हे पार्थ! जो सदा मेरा स्मरण करता 
मन को मुझमें ही लगाए है रखता।
चेतना मेरे सिवा कहीं और न जाए 
निरंतर इसके लिए अभ्यास करता।।

ऐसा अविचल भाव होता जिसका  
सदा मेरा ही चिंतन करता रहता है।
मेरे विषय में चिंतन करते-करते वह 
एक दिन मुझे अवश्य पा जाता है।।

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