अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥ ८ ॥
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥ ८ ॥
हे पार्थ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरंतर लगाये रखकर अविचलित भाव से भगवान के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है।
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हे पार्थ! जो सदा मेरा स्मरण करता
मन को मुझमें ही लगाए है रखता।
चेतना मेरे सिवा कहीं और न जाए
निरंतर इसके लिए अभ्यास करता।।
ऐसा अविचल भाव होता जिसका
सदा मेरा ही चिंतन करता रहता है।
मेरे विषय में चिंतन करते-करते वह
एक दिन मुझे अवश्य पा जाता है।।
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