अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥ ४ ॥
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥ ४ ॥
हे देहधारियों में श्रेष्ठ! निरंतर परिवर्तनशील यह भौतिक प्रकृति अधिभूत (भौतिक अभिव्यक्ति) कहलाती है। भगवान का विराट रूप जिसमें सूर्य तथा चंद्र जैसे समस्त देवता सम्मिलित हैं, अधिदैव कहलाता है। तथा प्रत्येक देहधारी के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित मैं परमेश्वर अधियज्ञ (यज्ञ का स्वामी) कहलाता हूँ।
********************************************
हे देहधारियों मे श्रेष्ठ अर्जुन! सुनो
भौतिक प्रकृति जो बदलती रहती।
वह परिवर्तनशील स्वभाव वाली
प्रकृति ही अधिभूत कहलाती है।।
भौतिक प्रकृति जो बदलती रहती।
वह परिवर्तनशील स्वभाव वाली
प्रकृति ही अधिभूत कहलाती है।।
सूर्य, चंद्र समेत सारे देवी-देवता
जिसके भीतर समाहित रहते हैं।
जिसके भीतर समाहित रहते हैं।
मेरे उसी विशाल विराट रूप को
शास्त्र,साधु आधिदैव कहते हैं।।
प्रत्येक जीव के हृदय में रहता हूँ
मैं अंतर्यामी परमात्मा के रूप में।
मैं ही हूँ वह परम यज्ञ भोक्ता
सारे यज्ञ अर्पित होते हैं जिसमें।।
No comments:
Post a Comment