अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ ५ ॥
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ ५ ॥
और जीवन के अंत में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरंत मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है। इसमें रंचमात्र भी संदेह नहीं है।
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अपने जीवन के अंतिम क्षण में
मुझमें ही जिसका ध्यान रहता है।
मेरा ही स्मरण करते-करते जो
अपने शरीर का त्याग करता है।।
ऐसे व्यक्ति मेरा ही स्वभाव यानि
स्वयं मुझे ही प्राप्त कर जाते हैं।
इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि
वे मेरे पास ही लौटकर आते है।।
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