Sunday, November 6, 2016

अध्याय-4, श्लोक-22

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ २२ ॥
जो स्वतः होनेवाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वंद्व से मुक्त है और ईर्ष्या नही करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नही।
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स्वतः जो मिल जाए लाभ उसी से 
जिस व्यक्ति को संतुष्ट होना आता।
समस्त द्वंद्वों से ऊपर उठा हुआ हो 
जो किसी से भी ईर्ष्या नही करता।।

सफलता हो या असफलता मिले 
वो सदा ही संतुलित चित्त है रहता।
ऐसा मनुष्य सारे कर्म करते हुए भी 
कर्म बंधन में कभी भी नही पड़ता।।

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