Friday, November 18, 2016

अध्याय-6, श्लोक-5

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ ५ ॥
मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे गिरने न दे। यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी।
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मनुष्य को चाहिए मन के द्वारा
अपने उद्धार का वो प्रयास करे।
इस जन्म-मृत्यु के बंधन को काटे  
निम्न योनियों में और वो न गिरे।।

इस संसार में फँसे जीवों के लिए
अनुकूल मन होता उसका मित्र है।
और वही मन बन जाता है शत्रु
जब होती स्थितियाँ  विपरीत है।।

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