प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥ २७ ॥
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥ २७ ॥
जिस योगी का मन मुझमें स्थिर रहता है, वह निश्चय ही दिव्यसुख की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करता है। वह रजोगुण से परे हो जाता है, वह परमात्मा के साथ अपनी गुणात्मक एकता को समझता है और इस प्रकार अपने समस्त विगत कर्मों के फल से निवृत्त हो जाता है।
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स्थित हो जाता परमात्मा में
जब मनुष्य का चंचल मन।
कामनाएँ हो जाती है शांत
जो होती रजोगुण से उत्पन्न।।
पिछले सारे पाप कर्मों से वह
पूरी तरह मुक्त हो जाता है।
ऐसे योगी तो जीवन में अपने
परम-आनंद अवश्य पाता है।।
ऐसे योगी तो जीवन में अपने
परम-आनंद अवश्य पाता है।।
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