Friday, November 11, 2016

अध्याय-5, श्लोक-3

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥ ३ ॥
जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है। हे महाबाहु अर्जुन! ऐसा मनुष्य समस्त द्वंदों से रहित होकर भवबंधन को पार कर पूर्णतया मुक्त हो जाता है।
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हे माहबाहु! जो व्यक्ति किसी से 
कभी भी कोई इच्छा नहीं करता।
न ही किसी से घृणा होती है उसे 
वह व्यक्ति नित्य संन्यासी होता।।

सांसारिक राग-द्वेषों के द्वंद्व उसे 
कभी भी विचलित नही कर पाते।
ऐसे लोग तो बड़ी ही सहजता से 
संसार के बंधन से मुक्त हो जाते।।

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