Thursday, November 10, 2016

अध्याय-4, श्लोक-41

योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌ ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥ ४१ ॥ 
जो व्यक्ति अपने कर्मफलों का परित्याग करते हुए भक्ति करता है और जिसके संशय दिव्यज्ञान द्वारा विनष्ट हो चुके होते हैं वही वास्तव में आत्मपरायण है। हे धनंजय! वह कर्मों के बंधन से नहीं बँधता।
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हे धनंजय! जिस मनुष्य ने अपने 
कर्मों के फलों को है त्याग दिया।
दिव्य ज्ञान से जिसने अपने सारे 
भ्रम व संशयों को है मिटा लिया।।

ऐसे व्यक्ति ही इस जग में तो 
आत्मपरायण पुरुष कहलाते हैं।
कर्मों के फाँस भी इनको  फिर 
अपने बंधन में न बाँध पाते हैं।।

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