Monday, November 21, 2016

अध्याय-6, श्लोक-20-23

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ २०॥
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌ ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ २१॥
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ २२॥
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्॥ २३॥
सिद्धि की अवस्था में जिसे समाधि कहते हैं, मनुष्य का मन योगाभ्यास के द्वारा भौतिक मानसिक क्रियाओं से पूर्णतया संयमित हो जाता है। इस सिद्धि की विशेषता यह है कि मनुष्य शुद्ध मन से अपने को देख सकता है और अपने आपसे आनंद उठा सकता है। उस आनंदमयी स्थिति में वह दिव्य इंद्रियों द्वारा असीम दिव्यसुख में स्थित रहता है। इसप्रकार स्थापित मनुष्य कभी सत्य से विपथ नहीं होता और इस सुख की प्राप्ति हो जाने पर वह इससे बड़ा कोई दूसरा लाभ नहीं मानता। ऐसी स्थित को पाकर मनुष्य बड़ी से बड़ी कठिनाई से भी विचलित नहीं होता। यह निस्सन्देह भौतिक संसर्ग से उत्पन्न होने वाले समस्त दुखों से वास्तविक मुक्ति है।
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योग का अभ्यास करते-करते
जीवन में एक अवस्था आती है।
मन की गतिविधियाँ रूक जाती
वह अवस्था समाधि कहलाती है।।

जहाँ पहुँचकर मनुष्य आत्मा में
परमात्मा को देखने लगता है।
परमात्मा को जान लेने के बाद
वह स्वयं से पूर्ण संतुष्ट रहता है।।

इस शुद्ध चेतना में की स्थिति में
यह भली-भाँति जाना जाता है।
कि आनंद तो आत्मा का विषय
जो इस शरीर के अलग होता है।।

परम तत्त्व परमात्मा में स्थित वह
योगी कभी विचलित नहीं होता।
अंतर में ही इतना सुख है पाता कि
बाहरी सुख उसे लुभा नही पाता।।

भौतिक सुख का भ्रम जान गया
वह अब कभी सत्य से नहीं डिगता।
परमात्मा प्राप्ति के सुख के बढ़कर
अधिक लाभ कुछ नहीं वो मानता।

सिद्धि की इस अवस्था में आकर
वह पूरी तहा संयमित हो जाता है।
जीवन का कोई भी झंझवात उसे
कभी विचलित नही कर पाता है।।

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