Thursday, November 17, 2016

अध्याय-6, श्लोक-2

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ॥ २ ॥
हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं उसे ही तुम योग अर्थात परब्रह्म से युक्त होना जानो क्योंकि इन्द्रियतृप्ति की इच्छा को त्यागे बिना कोई कभी योगी नहीं हो सकता।
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हे पाण्डुपुत्र ! संन्यास और योग 
दोनों एक-दूसरे से भिन्न नहीं है।
परब्रह्म से मिलानेवाला योग हो  
या हो संन्यास, दोनों एक ही है।।

क्योंकि जब तक इन्द्रिय-सुख की 
कामना का त्याग नहीं कर लेता।
तब तक कोई भी मनुष्य कभी भी 
परमात्मा को पा नहीं है  सकता।।

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