सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ ९ ॥
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥ ९ ॥
जब मनुष्य निष्कपट हितैषियों, प्रिय मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईर्ष्यालुओं, शत्रुओं तथा मित्रों, पुण्यात्माओं एवं पापियों को समान भाव से देखता है, तो वह और भी उन्नत माना जाता है।
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कोई हित चाहे या अहित करे
मित्रता करे या निभाये शत्रुता।
ईर्ष्या करे कोई तो भी उसके
स्वभाव में अंतर नहीं पड़ता।।
सबके लिए एक समान भाव
कभी किसी से वैर नहीं करता।
चाहे कोई तटस्थ हो या फिर
कोई कर रहा हो मध्यस्थता।।
पापी, पुण्यात्मा सबको ही वो
एक समान दृष्टि से ही देखता।
ऐसा निर्मल भाव वाला व्यक्ति
जीवन में बहुत आगे बढ़ा होता।।
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