Thursday, November 17, 2016

अध्याय-6, श्लोक-1

श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥ १ ॥
श्रीभगवान ने कहा- जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है और जो अपने कर्त्तव्य का पालन करता है, वही संन्यासी और असली योगी है। वह नहीं, जो न तो अग्नि जलाता है और न ही कर्म करता है।
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श्रीभगवान योगी व संन्यासी का 
वास्तविक अर्थ यहाँ बताते हैं।
फल की इच्छा बिना कर्म करे 
वही संन्यासी, योगी कहलाते हैं।।

अग्नि का त्याग कर देने भर से 
कोई संन्यासी नहीं बन जाता है।
कर्मों से मुख मोड़ लेने मात्र से 
कोई भी योगी नहीं कहलाता है।।

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