समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥ १३ ॥
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ १४ ॥
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥ १३ ॥
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ १४ ॥
योगाभ्यास करनेवाले को चाहिए कि वह अपने शरीर, गर्दन तथा सिर को सीधा रखे और नाक के अगले सिरे पर दृष्टि लगाए। इसप्रकार वह अविचलित तथा दमित मन से, भयरहित, विषयीजीवन से पूर्णतया मुक्त होकर अपने हृदय में मेरा चिंतन करे और मुझे ही अपना चरमलक्ष्य बताए।
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योगाभ्यास के लिए आवश्यक
कि योग्गी की मुद्रा संतुलित हो।
शरीर, गर्दन व सिर सीधा रखे
और दृष्टि नाक के सिरे पर हो।।
यहाँ-वहाँ भटके न ध्यान उसका
मन भी भय से सर्वथा मुक्त हो।
इन्द्रियविषयों के विचलन से दूर
जीवन उसका ब्रह्मचर्य युक्त हो।।
मन को भली-भाँति शांत करके
मुझे ही वो अपना लक्ष्य बनाये।
सारे मोह-ममता के बंधन छोड़
एकमात्र मेरे आश्रय में वो आये।।
मन को मुझ पर स्थित करके वो
बस मुझ पर अपना ध्यान धरे ।
फिर अपने हृदय में हरपल वह
सिर्फ़ मेरा ही चिंतन-मनन करे।।
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