शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥ २५ ॥
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥ २५ ॥
धीरे-धीरे, क्रमशः पूर्ण विश्वासपूर्वक बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए और इसप्रकार मन को आत्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए।
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मनुष्य को चाहिए कि धीरे-धीरे
चलते हुए बुद्धि द्वारा अभ्यास करे।
अभ्यास इतना दृढ़ हो उसका कि
मन सिर्फ़ आत्मा का ही ध्यान धरे।।
समाधि की इस अवस्था में आकर
जग का कोई भी चिंतन शेष न रहे।
चिंतन हो तो बस परमात्मा का अब
वस्तुओं के चिंतन में मन और न बहे।।
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