Friday, November 11, 2016

अध्याय-5, श्लोक-2

श्रीभगवानुवाच
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥ २ ॥
श्रीभगवान ने उत्तर दिया-मुक्ति के लिए कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं। किंतु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है।
***************************************
श्रीभगवान ने बताया अर्जुन को कि 
दोनों ही पथ श्रेष्ठ व मुक्तिदायक हैं।
कर्म का त्याग हो या भक्तिमय कर्म 
दोनों ही मार्ग परम श्रेय प्रदायक है।।

वैसे दोनों ही पथ अपने पथिक को 
लक्ष्य तक पहुँचाने में सर्वथा समर्थ है।
फिर भी इन दोनों मार्गों में भक्तिमय 
कर्म योग का मार्ग ही अधिक श्रेष्ठ है।।

No comments:

Post a Comment