Thursday, November 10, 2016

अध्याय-4, श्लोक-38

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ ३८ ॥ 
इस संसार में दिव्य-ज्ञान के समान कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध नहीं है। ऐसा ज्ञान समस्त योग का परिपक्व फल है। जो व्यक्ति भक्ति में सिद्ध हो जाता है, वह यथासमय अपने अंतर में इस ज्ञान का आस्वादन करता है।
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इस संसार में सबसे  शुद्ध है वह    
योगों का परिपक्व फल है ज्ञान।
समूचे संसार को पवित्र करनेवाला 
और कुछ भी नही इसके  समान।।

जिस व्यक्ति ने भी इस ज्ञान को 
जीवन में आत्मसात कर लिया है।
समय के साथ उनसे अपने भीतर 
इस ज्ञान का आस्वादन किया है।।

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