Thursday, November 10, 2016

अध्याय-4, श्लोक-33

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ ३३ ॥
हे परंतप! द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है।हे पार्थ! अंततोगत्वा सारे कर्मयज्ञों का अवसान दिव्य ज्ञान में होता है।
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हे परंतप अर्जुन! धन-सम्पदा का 
दान भी यूँ तो यज्ञ कहलाता है।
लेकिन जो ज्ञान-यज्ञ होता है वो 
द्रव्ययज्ञ से श्रेष्ठ माना जाता है।।

कर्मों से उत्पन्न होनेवाले ये सब 
जिनते भी प्रकार के यज्ञ होते हैं।
हे पार्थ! अंततः वे सारे-के-सारे 
दिव्य-ज्ञान में ही समाप्त होते हैं।।

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