अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ १७ ॥
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ १७ ॥
जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नही है।
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नख से शिख तक पूरे शरीर में
फैली हुई है जो अविरल चेतना।
उसे ही तुम अविनाशी समझो
जो अनुभव कराए हर्ष व वेदना।
हर स्थिति, हर देश और काल में
रहता सदा अव्यय और एक-सा।
इस आत्मा को नष्ट कर पाए कोई
इतना नही है सामर्थ्य किसी-का।।
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