यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ ४० ॥
इस प्रयास में न तो कोई हानि होती है न ही ह्रास अपितु इस पथ पर की गई अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा कर सकती है।
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स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥ ४० ॥
इस प्रयास में न तो कोई हानि होती है न ही ह्रास अपितु इस पथ पर की गई अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा कर सकती है।
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अनासक्त भाव से जब हम कर्म करे
तो कभी भी हिस्से में हानि न आए ।
हानि की तो बात दूर यह प्रयास तो
कर्मफल रूपी दोष भी दूर भगाए ।।
निष्काम कर्म के इस पथ पर कभी
थोड़ी-सी प्रगति भी व्यर्थ न जाती।
जन्म-मृत्यु के चक्र के महान भय से
भी पथिक की यहाँ रक्षा हो जाती।।
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