Thursday, October 20, 2016

अध्याय-3, श्लोक-6

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ ६ ॥
जो कर्मइंद्रियों को वश में तो करता है, किंतु जिसका मन इन्द्रियविषयों का चिंतन करता रहता है, वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है।
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काम-काज छोड़ दे बनकर त्यागी 
और मन के साथ भटकता फिरता।
करे दिखावा वो ऊपर से कितना भी 
मन तो उसका विषयों में ही रहता।।

ऐसा मूरख तो दुनिया के साथ-साथ 
स्वयं को भी सदा धोखा ही  देता है।
कितना भी कर ले दिखावा और ढोंग 
वास्तव में वह मिथ्याचारी ही होता है।।

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