आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ २९ ॥
कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, किंतु कोई-कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नही समझ पाते।
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भाँति-भाँति के लोग भाँति भाँति से
आत्मा के विषय में ज्ञान है रखते।
कई अचरज से देखते आत्मा को
तो कई अचरज से वर्णन है करते।।
कई लोग जो अचरज से सुनते हैं
आत्मा के विषय में हो रही बातें।
तो कई लोग होते हैं ऐसे भी जो
सुनते सब पर कुछ समझ न पाते।।
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