यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ॥
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ॥
इस भौतिक जगत में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता है, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है।
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शुभ अशुभ क्षणों से भरे जगत में
जो इनसे प्रभवित नही होता है।
शुभ में भी हर्ष होता नही उसको
न अशुभ से ही वह द्वेष करता है।।
हर्ष और द्वेष के द्वंद्व से ऊपर उठा
उसका चित्त सदा निर्मल रहता है।
ऐसी जिसकी प्रकृति होती जग में
वही पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है।।
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